बनारस के लंका पर रिक्शा चलाने वाला भदोही का अधेड़ हो, पटना के एजी कॉलोनी में सब्जी बेचने वाला मोतिहारी का सब्जी वाला, या दिल्ली के कमला नगर में पुरनिया(पूर्णिया) का ई-रिक्शा वाला, इन सब में एक बात समान होती है।
चार बातों से ही आपसे दिल तक जुड़ जाने वाले लोग अलग भारत हैं। पलायन के एक अलग रूप के प्रतिनिधि ये लोग विशेष होते हैं। विशेष इसलिए क्यूंकि अपनों की चार रोटी के लिए अपना तमाम न्योछावर करने वाले इन लोगों का कोई नहीं होता।
ये अपने गाँव से दूर वोटबैंक भले हो सकते हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं होते। कर्ज़माफी को राजनैतिक हथियार के रूप में विकसित करने के कोशिशों के बीच उसके प्रभावों पर बात भी ज़रूरी है।
कितने किसान कर्ज़माफी के दायरे में आएंगे, कितनों को फायदा होगा जैसी बातें मूल बहस को भटकाने की कवायद है। अलग-अलग पार्टियाँ चुनाव जीतने के लिए कर्ज़माफी का शिगूफा छोड़ती आई हैं। जीतने के बाद उन्होंने ऐसा किया भी है। लेकिन विपक्ष द्वारा कर्ज़माफी को लोकसभा चुनावों के लिए मुद्दा बनाना इस कड़ी में नायाब कदम है।
काँग्रेस अध्यक्ष केंद्र सरकार को कुछ अमीर लोगों की सरकार घोषित करते हुए बड़े ही साफगोई से अपनी जवाबदेही से निकल जाते हैं। गरीबों और अमीरों के बीच की खाई के सूत्रधारों का यूं मासूम बनना सच में राजनैतिक कौशल का ही नमूना है।
दो हफ्ते पहले चाँदनी चौक पर रिक्शे पर बैठते हुए मैंने रिक्शे वाले से बातचीत शुरू कर दी थी। पकड़ीदयाल के उस रिक्शे वाले ने जैसे ही मेरे बारे में जाना, उसका चेहरा एकदम भावुक हो चला था। वो कह रहा था कि पहले जानते तो चाय-उ पीकर चलते।
उसका प्रेम गज़ब का था। दिल्ली की महंगाई के बीच निश्चित ही स्टैंड में उसे चाय थोड़ी सस्ती मिल जाती होगी, इसलिए वो आगे के बजाए वहीं से चाय पीकर चलने की बात कर रहा था। ऐसे लोग अपने गाम-समाज को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं। घर से दूर इनका मन इनके घर में ही बसता है।
रिक्शा चलाते हुए ही वो मुझे झुग्गियों के लोगों को दिखाता चल रहा था, ‘ई सब भी अपने इंहा का ही है। जेतना देखिएगा, सब उंहे का है, मोतिहारी, छपरा, मऊ, गोरखपुर का… इधरे रहता है सब… बारह-पंद्रह साल से…!’
सड़क किनारे हम जिन्हें अनावश्यक अतिक्रमण समझते हैं, वो उनका घर था। वो उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। नई दिल्ली स्टेशन से कुछ सौ मीटरों के फासले पर वो अतिक्रमित कच्ची झुग्गियां ही उनका सबकुछ थी। वो दिल्ली में ऐसा ‘बनाके’ भी खुश हो लेते हैं।
मुझे ये बताते हुए उसके शब्द, ‘अपना ही, अपने यहाँ का ही’ थे। जैसे मुझे भी अपनी खुशियों का हिस्सा समझ रहा था। जैसे मुझे बताना चाहता था कि वो सब मेरा भी है। हम-आप चाहकर भी उनके जैसे बड़े दिल वाला नहीं हो सकते। हमें जेब भी देखनी होती है… उनके पास देखने और दिखाने के लिए कुछ नहीं होता…
इस देश के राजनेताओं को ऐसे लोगों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। वो सवाल करने के बजाए अपनी त्रासदी में ही अपनी खुशियां ढूंढ लेते हैं। जिस कर्ज़माफी की बात हमारे राजनेता कर रहें, वो पता नहीं किनके लिए है!
शहर में किसान नहीं होते, वो गाँव में ही होते हैं। नियमित अंतराल पर गाँव जाते रहना श्रेयस्कर होता है। क्योंकि लगातार कई वर्षों तक शहर में रहकर हम गाँव की प्रक्रिया, परिस्थितियां, परेशानियां भूल जाते हैं। आंचलिक भारत की आत्मा के अंचल में बसने जो बात की जाती है, वो शहर की ओर भागने की होड़ के बावजूद आज भी प्रासंगिक है।
परिवार से दूर रहने वाले अधिकतर बच्चों के मूल में आप किसान ढूंढ सकते हैं, चाहे वो पढ़ाई करने वाला है, या सब्जी बेचने वाला! कर्ज़माफी के हल्ले में ऐसे लोगों का स्वर दब जाता है। किसानों को जो लोन मिलता है, उसपर ब्याज काफी कम होता है।
गाँव मे जब लोग लोन लेते हैं, तो उनकी दिलचस्पी इस बात में नहीं होती कि लोन की स्कीम कौन सी है, उन्हें बस इससे मतलब होता है कि उन्हें ब्याज कम देना पड़े। गाँव मे अब भी बहुसंख्य लोग इतने सजग-शिक्षित नहीं हैं कि अपने अधिकारों को समझ सकें, गर हैं भी तो परिस्थितियों के मोहताज है।
ऐसे में एक बड़ा वर्ग ऐसा होता है, जिन्हें लोन को मुफ्त के पैसे की तरह समझाया जाता है। बेवजह भी लोग किसान क्रेडिट लेने को लालायित रहते हैं। इसका फायदा बिचौलिये बखूबी उठाते हैं। और किसान क्रेडिट में पचास फीसदी तक का खेल चलता है, कई बार असली व्यक्ति तक आधी रकम भी बमुश्किल पहुँचती है।
अब सोचिए कोई किसान अगर ये लोन लेता है तो उसे दोगुना लौटाना पड़ता है, लेकिन तात्कालिक लाभ के चक्कर में वो इस बात को नहीं समझ पाता। इसपर तुर्रा ये कि अगर कोई सरकार उस रकम को माफ कर दे तो वो दुबारा से लोन लेने जाता है! इस बार लाभ के नाम पर उसे और अधिक देना पड़ता है।
उसे भी समस्या नहीं होती, पिछली बार की माफी के कारण वो इसे नुकसान नहीं समझता। सस्ते लोन की इस स्कीम की पहुंच इतने के बावजूद भी सामान्य किसानों तक नहीं है। कम से कम जिन लोगों का जिक्र मैंने किया है, जिन परिवारों के दूसरे सदस्य, बच्चे उनकी अनुपस्थिति में खेत पर जाते हैं, वो कोई ऐसा लोन नहीं लेते। किसानों से अधिक इसके फायदों के कारण दूसरे लोग ही इस स्कीम में लोन अधिक लेते हैं।
आम किसान आज भी अपनी जरूरतें सीमित रखता है। अपने खाद-बीज के पैसे के लिए वो गांव के साहूकार पर ही निर्भर होता है। गरीब किसान की भी कुछ न कुछ साख होती है, उसी साख के कारण उसका दुकानदार उसे बीज उधार देता है। फसल काटने के बाद या उसके पहले भी धीरे-धीरे करके, वो पैसे लौटाता है। किसानों की राजनीति करने वाले लोग किसानों के मुद्दों को नहीं समझते।
किसान की पहली प्राथमिकता कर्ज़ या कर्ज़माफी नहीं है। उन्हें बस वक़्त पर खाद-बीज चाहिए। सूखे की मार के वक़्त उसे खेत को पानी चाहिए। कितने राजनेताओं ने इसकी बात की है। वो जानते हैं कि कर्ज़माफी लुभावना है। झांसे में आ जाएंगे लोग। लेकिन किसानों की समृद्धि की जो बात है उसपर आप खामोश क्यों हैं? आप उन्हें कर्ज़माफी के बजाए बिजली-पानी क्यों नही दे सके आजादी के इतने सालों में भी? आज भी आपने किसानों को अपने करम का मोहताज क्यों बनाए रखा है?
एनडीए सरकार के आने के बाद एक काम हुआ है जिसको प्रधानमंत्री अक्सर बताते हैं। चार साल पहले सच में गांवों में यूरिया के लिए मारपीट तक की स्थिति होती थी। यूरिया की नीम कोटिंग के बाद उसकी कमी जैसी बातें सुनने को नहीं मिलती।
ऐसे ठोस कामों के बजाए शिगूफे से कबतक लोगों को बेवकूफ बनाएंगे ये? आज किसानों की समस्या फसल की उचित कीमत न मिलने की है। वो अगर हो जाए तो उनकी सारी समस्या खत्म हो जाए। जो प्याज हम तीस रुपए खरीदते हैं, कई बार उसका एक रुपया भी उसको उपजाने वाले तक नही जाता। ठीक है कि पूरे पैसे पहुंचाना संभव नही है, लेकिन उसका उचित हिस्सा तो मिले किसान को! कर्ज़माफी की बात करने वाले दलों ने इसपर कोई रोडमैप प्रस्तुत किया है क्या? ऐसी कोई बात कभी वो सोचते भी हैं भला?
आपने उन पलायित किसानों, सब्जी वालों, रिक्शे वालों की बात की है क्या कभी? उनकी इस स्थिति को सुधारने की कोई योजना है क्या आपके पास? या हमेशा किसानों को अपनी कृपा का मोहताज बनाए रखने का इरादा है हमारे उन नेताओं का! क्योंकि कर्ज़माफी तो समाधान नहीं ही है, उससे बिचौलिए ही खुश हो सकते हैं बस। अर्थव्यवस्था को बोझ पड़ेगा सो अलग! क्यों न किसानों को आत्मनिर्भर बनाया जाए, किसानी को फायदे का रोज़गार बनाया जाए? क्यों न हम ‘उत्तम कृषि, मद्धम बान…’ की भारतीय धारणा की ओर लौटें!