मिस्टर नसीर! डर मुझे भी नहीं लगता, गुस्सा आता है जब मैं देखता हूं कि आप, बशीर बद्र, नकवी या असगर वज़ाहत जैसे तथाकथित प्रगतिशील मुसलमान भी आखिरकार अपनी ‘औकात’ पर उतर जाते हैं।
किसी नेता या पार्टी विशेष के प्रति अपने विरोध को जब आप चाशनी में लपेटकर हिंदू-बहुल इस मुल्क का अपमान करते हैं, जिसने आप जैसों को सिर पर बिठा कर रखा है।
(यह ध्यान रहे नसीर साब कि 1947 में आप लोगों ने चुनाव कर लिया था और यहां रुककर आपके अब्बा या दादा हुज़ूर ने कोई अहसान नहीं किया था, आपने अपना मुल्क तकसीम कर लिया था, साब)।
मिस्टर नसीर। गुस्सा मुझे भी आता है, फिक्र मुझे भी होती है जब मैं देखता हूं कि खाने की तमाम choices के बावजूद मुसलमान गाय काटने और खाने पर ही क्यों आमादा है। न केवल खाने पर, बल्कि सरेआम खाने पर, उसकी नुमाइश करने पर। फिक्र तो मुझे भी होती है कि गाय एक मुद्दा क्यों बन गयी है।
(यह भी ध्यान रहे कि भारत के अधिकांश राज्यों में गोहत्या के खिलाफ कानून है और उसके उल्लंघन पर, गो-हत्यारों के खिलाफ कोई क्यों नहीं उतरता है, क्यों कानूनों का सख्ती से पालन नहीं होता है और क्यों जनता को अपने हाथों में कानून लेना होता है)।
श्रीमन नसीर। गुस्सा मुझे बेतरह आता है, जब आपके कॉमरेड सड़कों पर गाय की कटी हुई मुंडी लेकर घूमते हैं, बीफ-फेस्ट आयोजित करते हैं, लेकिन पोर्क-फेस्ट के ख्याल से ही उनकी नानी मर जाती है। मुझे भी फिक्र होती है, जब मेरे राज्य में दिनदहाड़े गाय काटी जाती है। इसलिए नहीं कि खाने की कमी है, बल्कि इसलिए कि हिंदुओं को जलील करना है।
नसीर साब। मैं भी डरता नहीं, मुझे भी गुस्सा आता है जब रवि पुजारी हो या याकूब पंडित, उनकी दिनदहाड़े मौत पर कोई कुछ नहीं बोलता। आप और आपके कॉमरेड संगीन चुप्पी धर लेते हैं, लेकिन सीट के विवाद में हुए झगड़़े से लेकर खेत की मुंडेर तक के लिए हुई मारपीट में अगर कोई एक मुसलमान है, तो आप लोग तुरंत उसे लिंचिंग का नाम दे डालते हैं।
मिस्टर नसीर। गुस्सा मुझे भी आता है, बेतरह आता है, जब कश्मीर में 5 लाख हिंदुओं को मस्जिदों से घोषणा के बाद, अखबारों में विज्ञापन देकर निकाला जाता है और उन्हें मिलती है – खामोशी। कश्मीर के बाद कैराना से लेकर दादरी और दरभंगा तक जब हिंदुओं को दीवार से सटाया जाता है, जब डॉक्टर नारंग को दिनदहाड़े मारा जाता है, तो गुस्सा मुझे भी आता है, नसीर।
गुस्सा मुझे भी आता है, जब आप जैसे सितारे, थैलीशाह और समाज के सुर्खरू, डर की बात करते हैं, जबकि मेरे मुहल्ले के जुम्मन या चमकीला को कोई डर नहीं लगता। मुझे फिक्र होती है, जब तीन तलाक और हलाला जैसी अमानवीय प्रथा पर आपके मुंह से कुछ नहीं निकलता, आपके बिरादरान सरकार के खिलाफ सड़कों पर होते हैं, तब मुझे फिक्र भी होती है और डर भी लगता है।
जब मुंबई के आज़ाद मैदान में मुसलमानों की भीड़ अमर ज्योति को तोड़ती है, जब आप जैसे विक्षिप्त बुद्धिजीवी रोहिंग्या की वकालत करते हैं, तो मुझे फिक्र भी होती है, डर भी लगता है और गुस्सा भी आता है।
गुस्सा मुझे बेतरह आता है नसीर, जब राम औऱ कृष्ण के इस देश में उनके पूजास्थलों को तोड़कर उस पर मस्जिदें तामीर होती हैं और कोई मुसलमान, 40 करोड़ में एक मुसलमान उसके खिलाफ नहीं बोलता। आप जैसे प्रगतिशील अ-धार्मिक कॉमरेड भी नहीं कहते कि चलो बहुत हुआ। हम रामजी का मंदिर वहीं बनाएंगे।
नसीर, गुस्सा तो मुझे तब भी आता है जब शनि शिंगणापुर से लेकर सबरीमाला तक तो कोर्ट हस्तक्षेप करता है, लेकिन हाजी अली में उसकी बोलती बंद होती है, जब हिंदुओं के हरेक दैनिक काम में, जीवन के हरेक पक्ष में कोर्ट दखल देता है, लेकिन मुसलमानों के लिए आप हिंदुस्तान में शरिया लागू करते हैं। इस दोगलेपन पर मुझे बहुत गुस्सा आता है।
नसीर। गुस्सा मुझे तब भी आता है, जब आपकी सारी प्रगतिशीलता इस्लाम के दरवाज़े पर आते ही बंद हो जाती है (आपके भाई के साथ का मामला अभी ताज़ा है न), गुस्सा मुझे आपके उन वामपंथी भाइयों पर भी आता है, जो जेब में फैज़ कैप रखकर कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का पाठ करते हैं।
और हां, गुस्सा मुझे तब भी आता है, जब मेरे यानी हिंदू के लिए पूरी दुनिया में सिर्फ एक घर बचा हो और उस पर भी आप जैसे लोगों की गिद्ध-दृष्टि हो। आप चिंता मत करें। आपका बच्चा एक सच्चा मुसलमान ही होगा, क्योंकि आप उसके बाप हैं। वह अपनी मां की प्रगतिशीलता कितनी बचा पाएगा, जब जेहाद का ज़हर भी उसकी रगों में दौड़ रहा है…