स्वतंत्रता के समय भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 50% से भी अधिक था; उद्योग की भागीदारी 15% तथा सेवा 34% के आसपास थी।
सेवा क्षेत्र में उत्पादों की बजाय सेवाओं का ‘निर्माण’ होता है जिसमे रिटेल, बैंक, होटल, पर्यटन, रियल एस्टेट, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक कार्य, कंप्यूटर सेवाएं, मनोरंजन, मीडिया, संचार, बिजली, गैस और पानी की आपूर्ति इत्यादि सम्मिलित हैं।
वर्ष 1980 में कृषि की हिस्सेदारी लगभग 35%, उद्योगों की 25%, तथा सेवाओं की 40% हो गयी।
इस समय कृषि का योगदान 16 प्रतिशत, उद्योग का 29 प्रतिशत और सेवाओं का 55 प्रतिशत है।
अमेरिका, जापान और चीन में कृषि 1 से 7%, उद्योग 20 से 40% एवं सेवाएं 53-80% तक है।
यह स्पष्ट है कि विकसित देशों में अधिकतर जनसंख्या का जीवनयापन उद्योग और सेवा के क्षेत्र से होता है और इन देशो में कृषि का योगदान 2% से अधिक नहीं है।
भारत में 50% जनसंख्या कृषि संबंधी क्षेत्र में जुटी हुई है लेकिन उसका योगदान अर्थव्यवस्था में केवल 16% है। इसके विपरीत अन्य आधी जनसंख्या भारतीय अर्थव्यवस्था में 84% का योगदान कर रही है। एक तरह से कृषि में जुटे हुए अधिकतर लोग निर्धनता का जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं।
हालांकि, भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की कम भागीदारी रोज़गार, आजीविका और खाद्य सुरक्षा के लिए इस क्षेत्र के महत्व को कम नहीं करता है।
ऊपर से कृषि के क्षेत्र में भी धनाढ्य और बाहुबलियों ने कब्ज़ा कर रखा है। सामाजिक न्याय का झंडा इसी क्षेत्र के लोग सबसे ज्यादा बुलंद करते हैं। इन्हीं के नाम पर सबसे ज्यादा नेतागिरी होती है, लेकिन असली लाभ गिनती के कुछ लोग ले जाते हैं।
इंडियन एक्सप्रेस में कृषि के प्रोफेसर अशोक गुलाटी लिखते है कि महाराष्ट्र में गन्ने की बुवाई सिर्फ 4 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि में होती है, जबकि यह फसल सिंचाई का 65 प्रतिशत हिस्सा ले लेती है। इसके विपरीत सोयाबीन, ज्वार, मक्का, चना और तूर की बुवाई 60 प्रतिशत से अधिक भूमि पर होती है लेकिन इन फसलों को सिंचाई का पानी लगभग 8 प्रतिशत मिलता है।
एक बार सोचिए, चीनी की मिलों पर किनका एकाधिकार बना हुआ है? शरद पवार और उनके सहयोगियों की राजनीति किस से चमक रही है? गन्ना मिल और सहकारी बैंकों से।
मैं पहले लिख चुका हूँ कि इस सीज़न में भारत में चीनी उत्पादन रिकॉर्ड 322 लाख टन है, जो कि 2016-17 में हुए 202.62 लाख टन उत्पादन से 59 प्रतिशत अधिक है, जबकि चीनी की वार्षिक घरेलू खपत केवल 250-260 लाख टन है।
सार यह है कि यूपी या केंद्र में सरकार किसी भी दल की हो, भले ही चीनी बाज़ार में सस्ती मिले, अब किसानों और मिलों को रकम की भरपाई हमारे टैक्स से की जायेगी। उन्हें सिंचाई के लिए जल अन्य फसलों की कीमत पर दिया जाएगा।
महाराष्ट्र सरकार ने कृषि उत्पादन बाज़ार समिति के शिकंजे से कृषकों को छुड़ाने के लिए एक कानून बनाने का प्रयास किया, लेकिन व्यापारियों और राजनीतिज्ञों के दबाव में एक दिन में उस बिल को एक समिति के पास भेज दिया गया। एक तरह से इस इशू को एक ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
मेरा यह मानना है कि आज किसानों के बच्चे पढ़ लिख कर जागरूक हो रहे हैं। वह कृषि की कीमत को लेकर दिल्ली तथा अन्य जगहों पर धरना दे देते हैं। कोई भी राजनीतिज्ञ उनको लॉलीपॉप पकड़ा देता है और वे संतुष्ट हो जाते हैं।
लेकिन क्या वे इस बात पर दबाव नहीं डाल सकते कि कृषि उत्पादों को व्यापारियों के चंगुल से मुक्त किया जाए? उन्हें इस पर भी विचार करना चाहिए कि क्यों गन्ने की फसल उगाई जा रही है जब हमारे पास आवश्यकता से अधिक उत्पादन हो रहा हो?
राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों को दोषी ठहराना बहुत आसान है। उनको दोषी ठहराना भी चाहिए, लेकिन क्या किसानों को खुद के व्यवहार पर विचार नहीं करना चाहिए कि उनके स्वार्थ के कारण भारत में अन्य फसलों की तुलना में गन्ने को अधिक पानी और समर्थन मूल्य सरकार से मिल रहा है।
भले ही उस फसल की आवश्यकता हमें हो, या ना हो।