‘टीम ऑफ़ राइवल्स‘ अमेरिकी इतिहासकार डोरिस गुडविन की लिखी हुई किताब है। उन्होंने इस किताब को लिखने के लिए दस वर्ष शोध किया था। अब्राहम लिंकन पर लिखी किताबों में ये खासी प्रसिद्ध है।
लिंकन की टीम में उनके कई राजनैतिक प्रतिद्वंदी शामिल थे। जिन्होंने कभी उनके खिलाफ चुनाव लड़ा था, उनके साथ मिलकर लिंकन सरकार कैसे चला रहे थे?
ये किताब लिंकन के जीवन के सिर्फ इस राजनैतिक पक्ष पर ध्यान देती है। भारत में शास्त्री जी या नरसिम्हा राव जैसे लोगों ने कैसे सरकार चलाई होगी, उसपर भी इसे पढ़ते-पढ़ते सोचा जा सकता है।
इस किताब को लिखने के दौरान लेखिका पर उनकी एक पुरानी किताब में किसी और की किताब से चोरी करने का मामला भी आया था। लेखिका को इसके लिए अदालत के बाहर समझौता करना पड़ा था।
भारत में यदा-कदा हिन्दी के लेखक दूसरों का लिखा चुराने के मामले में फंसते रहते हैं लेकिन किसी ने बड़ा जुर्माना भरा हो ऐसा याद नहीं आता। हिन्दी में कथेतर साहित्य लिखने वालों ने भारतीय राजनीति पर ऐसी कोई किताब लिखी हो ये भी याद नहीं आता। अगर मौजूदा सरकार को देखें तो ऐसी किताब के लायक मसाला मिलना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा।
लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहने के बाद प्रधानमंत्री बने मोदी के लिए एक बड़ी राजनैतिक चुनौती थी। जितने समय उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी उसकी टक्कर का प्रशासनिक अनुभव रखने वाले लोग भाजपा में नहीं थे। सिर्फ एक मध्य प्रदेश से इस मामले में उनके लिए चुनौती आती दिखती थी।
इस चुनाव ने चुनौती को मिटा डाला है। हार हुई भी है तो उतनी बुरी तरह नहीं हुई कि गिने चुने लोगों को सम्भालना ‘मामा जी’ के लिए आसान होता। कांग्रेस से बहुत कम अंतर की वजह से जोड़-तोड़ कर किसी तरह सरकार बनाई जा सके, इसमें वो लम्बे समय तक व्यस्त रहने वाले हैं।
राष्ट्रीय राजनीति में जो कांग्रेस अपनी जमीन लगभग पूरी तरह खो चुकी थी, इन चुनावों ने दोबारा उसमें जान फूंक दी है। अब छोटी राजनैतिक पार्टियों से मोलभाव में वो बढ़-चढ़कर बोलेगी। इससे सीटों के बंटवारे को लेकर पहले से ही कमज़ोर गठबंधन में और दरार पड़ने की संभावना बढ़ जाती है।
एक एक करके क्षेत्रीय दलों को भाजपा निगलती जा रही है। शिवसेना जैसे दल करीब साफ़ हो चुके हैं, जयललिता के दल को भी ऐसी ही समस्या का सामना करना पड़ रहा होगा। चंद्रबाबू नायडू भी इस चुनाव के बाद बड़े दल का छोटे दल को ख़त्म करना महसूस कर पा रहे होंगे।
राष्ट्रीय राजनीति के स्तर पर मोदी के नेतृत्व को चुनौती दे सके ऐसा कोई बड़ा नाम पार्टी में नहीं है। कुछ अनुभव ‘वीज़ा माता’ स्वराज के पास था, तो उसे भी समाप्त किया जा चुका है। असमय ही मृत्यु होने के कारण भी कुछ नाम अब उन्हें चुनौती नहीं देते।
उत्तर पूर्व के राज्यों में जहाँ भाजपा की कोई पैठ नहीं थी, वहां से भी कांग्रेस को समाप्त करके जगह बना ली गयी है। अगले लोकसभा चुनावों में उधर से भी कुछ सीटों की उम्मीद की जा सकती है। ओड़िसा के पटनायक जैसे नेता और उनके क्षेत्रीय दल भी ज्यादा देर टिकेंगे, ऐसा लगता नहीं है।
काफी कुछ ‘टीम ऑफ़ राइवल्स’ की ही तरह राजनीति में शत्रु अक्सर बाहर नहीं, अन्दर ही होते हैं। मोदी को अगले चुनावों के लिए कुछ इसी तरह का सामना तो करना पड़ता होगा। आश्चर्य है कि इस पक्ष पर लिखने-बोलने वाले लोग नजर नहीं आते।
मेरी निजी राय है कि भाजपा के लिए ‘कूटनीति’ का मतलब अपने समर्थकों को कूट देना होता है, लेकिन अभी की हार को हम हार की तरह नहीं देखते। ये वज़ीर को आगे बढ़ाने के लिए प्यादे कटवा देने जैसी हरकत है। लम्बे समय की नीतियों का मामला हो या त्वरित फैसले, मोदी के बारे में भविष्यवाणी करना कठिन होगा।
अगले चुनावों के लिए ‘राम जन्मभूमि मंदिर’ या कारगिल जैसा कोई छोटा युद्ध बहुत प्रेडिक्टेबल से मुद्दे हैं और मोदी कभी प्रेडिक्टेबल नहीं रहे। क्या मुद्दे उठेंगे, ये अगले चुनावों में देखने लायक होगा।