प्रिय साड़ी,
आज तुमसे कुछ कहूँगी मैं!
तुम्हारी प्रशंसा में क्या क्या कहूँ मैं?
साढ़े पांच मीटर का कपड़ा भर नहीं अपितु तुम भारतीयता का वह आकाश हो जिसका कोई ओर छोर ही नहीं…
अपने अस्तित्व को कैसे विराट बनाया जाता है ये तुमसे अच्छा कौन सिखायेगा भला?
लोग कहते हैं कि प्रत्येक जीव की नर प्रजाति ही अधिक सुन्दर होती है, पर केवल मनुष्य योनि ही है जिसमें मादा अर्थात नारी थोड़ी अधिक सुन्दर मानी गयी। पर फिर तुम कहीं से आयीं और नारी के सौंदर्य में जैसी अभिवृद्धि तुमने की विश्व का कोई रासायनिक उत्प्रेरक नहीं कर सकता था।
तुम भारतीयता का वह परिचय हो जो असंख्य पण्डित और ज्ञानी भी एकत्र होकर नहीं दे सकते। तुममें सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति समायी है।
वे सेक्युलर कीड़े जिन्हें भारतीयता प्रेषित करते प्रत्येक भारतीय चिन्ह से घृणा है उनकी मादाएं भी भारतीयता को नष्ट करने के अपने अभियान पर तुम्हारे ही आवरण में छुप के निकलती हैं, इससे बड़ी शक्ति और क्या हो सकती है!!
तुम्हें पता है, तुम केवल नारी सौंदर्य में ही विस्फोटक वृद्धि नहीं करतीं अपितु तुम प्रेम, वात्सल्य, कोमलता और लज्जा जैसे नारी के विशेष अधिकार वाले गुणों में भी असीमित वृद्धि कर देती हो!
यदि किसी कारण बेटे को माता की गोद न मिल पाए तो वह उसकी साड़ी पकड़ के भी सो सकता है, ऐसा वात्सल्य विश्व का कौन सा वस्त्र, कौन सा परिधान दे सकता है?
तुम बहुत चतुर भी हो प्रिये! बहुत ही चतुराई से जहाँ एक ओर संस्कृति की, प्रेम की, वात्सल्य की, कोमलता की, सौंदर्य की प्रतीक बन जाती हो वहीं दूसरी ओर उतनी ही दक्षता से मादकता की प्रतीक हो जाती हो।

जहाँ एक ओर पुरुषों से सम्मान प्राप्त करा लेती हो, वहीं दूसरी ओर उनका मादकता भरा आकर्षण भी प्राप्त कर लेती हो और पुरुष से दोनों में संतुलन भी करा लेती हो!!
कुछ अत्यंत भोली महिलाएं आकर्षण का केंद्र बनने को जाने क्या क्या धतकरम करती हैं, परिधानों पर समय, ऊर्जा और तमाम अर्थ व्यय करती हुई थकती रहती हैं। बस एक साड़ी पहने और कमाल हो जाये!!
कुछ भोली स्त्रियों को लगता है तुम्हारे धारण करने से उनकी आयु अधिक लगती है, उनके दर्पण उन्हें सत्य ही नहीं दिखाते कि तुम किसी भी प्रौढ़ा को युवती बना देती हो और पता तक नहीं चलता।
और जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मेरा तो समस्त आत्मविश्वास तुमसे है! मेरी पहचान तुमसे है!
दैनिक कार्यों में तुम्हें धारण करने में मैं स्वयं को असमर्थ पाती हूँ तो केवल इसलिये कि इससे मुझे तुम अपमानित होती सी प्रतीत होती हो।
पर तनिक से भी विशेष अवसर पर तुम्हारे बिना मैं निःसहाय सी हो जाती हूँ।
तुम सूक्ष्म से सूक्ष्म विशेषता में भी मुझे विशेष बनाती हो! कम से कम मेरी दृष्टि में मैं स्वयं अति विशिष्ट हो जाती हूँ!
तुम से ही मैं हूँ!! तुम में ही मैं हूँ!!
– ज्योति अवस्थी