माओ की मृत्यु के समय देंग (Deng Xiaoping) एक बार फिर निर्वासन में थे। उन्हें माओ के अंतिम संस्कार के समारोहों में शामिल होने की भी अनुमति नहीं थी।
माओ के उत्तराधिकारी थे माओ के विश्वासपात्र ह्वा गुऑफेंग। गुऑफेंग को खुद माओ ने चुना था और यह उनके लिए सबसे बड़ा पॉवर बेस था, पर असल सत्ता के केंद्र वे नहीं थे।
एक तरफ थे पार्टी के पुराने दिग्गज जिनके बीच देंग का बहुत सम्मान था। और दूसरी ओर थी मैडम माओ की चौकड़ी जिसे ‘गैंग ऑफ फोर’ कहा गया।
‘गैंग ऑफ फोर’ को कोई पसंद नहीं करता था। गुऑफेंग भी नहीं। और उधर उनकी सत्ता पर कब्जा करने की योजना की खबरें हवा में थीं। तो ‘गैंग ऑफ फोर’ को गिरफ्तार कर लिया गया।
उधर पार्टी के पुराने लोगों ने देंग को धीरे धीरे पार्टी में पुनर्स्थापित किया। माओ के जाने के बाद देंग निर्विवाद रूप से पार्टी के अंदर नए विराट पुरुष थे, पर उन्होंने सत्ता पर कब्जा करने का कोई प्रयास नहीं किया।
‘गैंग ऑफ फोर’ पर मुकदमा चलाया गया और मृत रक्षामंत्री लिन बियाओ के साथ साथ उन सबको कल्चरल रेवोलुशन की ज्यादतियों और अत्याचारों के दोषी पाया गया। मैडम माओ ने इस पूरी सुनवाई के दौरान बेहद आक्रामक तेवर अपनाए रखा। उसका सबसे बड़ा तर्क यह था कि उसने यह सब चेयरमैन माओ के कहने पर किया था। उसका यह प्रसिद्ध कथन था – “मैं तो चेयरमैन का कुत्ता थी… उसने जिसे कहा, मैंने उसे काटा”
उनमें से दो को 20 वर्ष के कारावास और दो को फाँसी की सज़ा सुनाई गईं। बाद में सबकी फाँसी को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। मैडम माओ ने आगे चलकर जेल के हस्पताल में फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
चेयरमैन माओ को भी इन अपराधों का दोषी पाया गया पर चीन के इतिहास और स्वतंत्रता की लड़ाई में माओ के योगदान का ख्याल करते हुए माओ को अपमानित नहीं किया गया। माओ के पोर्ट्रेट के साथ वह नहीं किया गया जो रूस में आगे चलकर लेनिन की मूर्ति के साथ किया गया।
देंग को सत्ता नहीं चाहिए थी, लेकिन उन्हें चीन की उन्नति और बदलाव चाहिए था। उन्होंने पहला परिवर्तन लाया शिक्षा के क्षेत्र में। शिक्षा को साम्यवादी सिद्धांतों की तोतारटन्त से अलग कर के साइंस और टेक्नोलॉजी की पढ़ाई से जोड़ा गया। चीनी छात्र बड़ी संख्या में पश्चिमी देशों, विशेषतः अमेरिकी यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ने गए। वहाँ से जब इन छात्रों की खेप लौटी तो यह अपने साथ सिर्फ विज्ञान की किताबें ही नहीं, पश्चिम की खुली सोच और वहाँ की प्रगति के किस्से लेकर भी आई।
चीन के जिन क्षेत्रों में किसानों की हालत विशेष रूप से बुरी थी, उन्हें कम्यूनों से मुक्त करके अपने लिए खेती करने और अपना ख्याल खुद रखने के लिए छोड़ दिया गया। नतीजा यह हुआ कि उन क्षेत्रों में कृषि उत्पादन एकाएक सुधरने लगा। फिर धीरे धीरे यह प्रयोग पूरे देश में दोहराया गया और किसानों के कंधे से कम्यूनिज़्म का जुआ उतार कर उन्हें अपने ढंग से खेती करने के लिए मुक्त कर दिया गया।
खेती में उत्साहजनक परिणाम आने के बाद यही प्रयोग उद्योग और व्यवसाय में भी दुहराया गया। धीरे धीरे निजी उद्योगों और व्यवसायों की बाढ़ आ गयी। पहले कहा गया कि आठ कर्मचारियों वाले उद्योगों के मालिकों को पूंजीपति नहीं माना जायेगा। बाद में यह आठ कर्मचारियों वाला नियम भी गायब हो गया और चीन ने एकाएक कई पीढ़ियों के बाद संपन्नता और समृद्धि की गन्ध पाई।
ऐसा नहीं था कि विरोध नहीं हुआ। यह पार्टी के अंदर बैठे शुद्धतावादी साम्यवादियों के पसंद की बात नहीं थी और उन्होंने जमकर देंग का विरोध किया। पर वे सभी देंग के आगे बौने थे। देंग ने माओ को झेल लिया था, अब उनके लिए ये सारे विरोध हवा में उड़ते तिनकों जैसे थे।
1978 में देंग सिंगापुर की यात्रा पर गए। यह यात्रा मूलतः सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली कुआन यू (Lee Kuan Yew) को यह समझाने के लिए थी कि वे सुदूर पूर्व के देशों को चीन के समर्थन में और रूस के विरुद्ध समर्थन जुटाने के लिए संगठित करें। इस यात्रा ने इस पूरे क्षेत्र का इतिहास बदल कर रख दिया।
चीन सिंगापुर से संभवतः कुछ हज़ार गुना बड़ा है। पर ली कुआन ने एक बेहद साहसिक कदम लेते हुए देंग से एक बड़ा सीधा प्रश्न पूछा – “हम आपकी मदद क्यों करें? इस क्षेत्र के देश रूस से ज्यादा आपसे डरते हैं। हमारी समस्याएँ चीन की वजह से हैं। अगर आप अपनी ज़मीन का प्रयोग हमारे देशों में कम्यूनिज़्म फैलाने में बंद कर दें, हमारे यहाँ के कम्युनिस्ट विद्रोहियों की सहायता करना बंद कर दें, तो कोई कारण नहीं है कि हम आपके मित्र ना बन सकें।”
देंग ने ली की दृष्टि को समझा और कुछ महीनों बाद चीन से सिंगापुर के कम्युनिस्टों को मदद मिलनी बन्द हो गई।
पर उस यात्रा में देंग सिंगापुर की आर्थिक और औद्योगिक सफलता से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने देखा कि सिंगापुर में शतप्रतिशत एम्प्लॉयमेंट है, और हर व्यक्ति के पास अपना घर है। यानि जो वायदे कम्यूनिज़्म आजतक करता आ रहा था, वह संभव हुआ था तो सिर्फ पूंजीवादी व्यवस्था से।
देंग सिर्फ अपनी पार्टी एफिलिएशन में कम्युनिस्ट थे, सैद्धांतिक प्रतिबद्धता में नहीं। इस सदी के इन दो महान चीनी मूल के नेताओं (ली और देंग) में यह बात कॉमन थी – वे सिद्धांतों को सिर्फ उद्देश्यों की पूर्ति का साधन समझते थे. कम्यूनिज़्म हो या कैपिटलिज़्म, जो भी समाज को समृद्धि दे, वह सही है।
बहुत पहले देंग यह कहने के लिए जाने गए थे कि ‘बिल्ली सफेद हो या काली, क्या फर्क पड़ता है… अगर वह चूहे पकड़ती हो…’
और समृद्धि का रास्ता कम्यूनिज़्म के दरवाज़े से नहीं गुज़रता है यह देखने में देंग नहीं चूके। और उन्होंने रास्ता बदलने से परहेज़ भी नहीं किया। उन्होंने वापस आकर यह सिंगापुर मॉडल का प्रयोग दुहराया और दक्षिणी चीन में कई स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन्स बनाये जहाँ उद्योगों की स्थापना के लिए अनेक रियायतें दी गईं।
ये ज़ोन खूब सफल हुए और देखते देखते देश के सबसे पिछड़े ये इलाके देश के सबसे सम्पन्न इलाके बन गए।
पर विरोधों का कोई अंत नहीं था। 1978 में ही देंग ने अपने कुछ बहुत ही प्रतिष्ठित विद्वानों को पश्चिमी यूरोप के पंद्रह शहरों की यात्रा पर भेजा और कैपिटलिस्ट देशों से क्या सीखा जा सकता है, इसपर रिपोर्ट देने को कहा।
ये वे लोग थे जिनकी प्रतिबद्धता और ईमानदारी पर किसी को शक नहीं था और कोई यह नहीं कह सकता था कि ये देंग की बात ही दुहरा रहे हैं। इन लोगों ने वापस आकर जो रिपोर्ट दी, उसे लोगों ने कई घंटों तक मंत्रमुग्ध होकर सुना। इसमें देंग का अधिकांश विरोध उड़ गया और पार्टी चेयरमैन गुऑफेंग ने इज़्ज़त से इस्तीफा देने में अपनी खैरियत समझी…
क्रमशः…
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