नारीवाद की चर्चा एक महिला के बिना नहीं हो सकती – अमेरिकी फेमिनिस्ट एक्टिविस्ट केट मिलेट।
1970 में टाइम मैगज़ीन ने अपने कवर पर इस महिला का चित्र छापा था और उसे फेमिनिज़्म का कार्ल मार्क्स कहा था। उसकी किताब ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ जो कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पीएचडी के लिए उसकी डॉक्टोरल थीसिस थी, फेमिनिज़्म की आसमानी किताब कही गयी।
केट मिलेट ने खुद फेमिनिज़्म पर बहुत कुछ लिखा, फ़िल्में बनायीं, और वह एक शिल्पकार भी थी। उसे 2013 में वीमेन्स हॉल ऑफ फेम में स्थान दिया गया। पर उसके बारे में जहाँ से सबसे नजदीकी जानकारी मिलती है, वह है उसकी बहन मैलॉरी मिलेट।
मैलॉरी खुद एक समय तक केट के साथ रही और स्त्रियों के अधिकारों के उसके प्रयासों में भी भागीदार रही। उसने केट की पहली फ़िल्म ‘थ्री लाइव्स’ में काम किया और उस फिल्म की एक पात्र भी वह खुद थी। पर वह उसके विचित्र व्यक्तित्व और विकृत विचारों को बहुत दिनों तक नहीं झेल पाई।
मैलॉरी लिखती है कि केट को मानसिक स्वास्थ्य की गंभीर समस्या थी, यह उससे मिलते ही स्पष्ट हो जाता था। जब वह फ़िल्म ‘थ्री लाइव्स’ बना रही थी तो उसकी ज़िद थी कि इस फ़िल्म में कहीं कोई पुरुष नहीं होना चाहिए। पर्दे पर नहीं, कहानी में नहीं, क्रू में भी नहीं। सेट पर खाना लेकर आने वालों में भी कोई पुरुष नहीं होना चाहिए। उस फिल्म में केट के साथ काम करना एक पीड़ादायक अनुभव था।
अपनी फिल्म की पहली स्क्रीनिंग उसने न्यू यॉर्क के एक थिएटर में की। थिएटर खचाखच भरा हुआ था और लोगों ने फ़िल्म की तारीफ की। उससे उत्साहित होकर केट ने फ़िल्म के दूसरे शो के लिए थिएटर बुक कर लिया।
फ़िल्म के खत्म होने के बाद उसने दर्शकों को संबोधित करना शुरू किया। थोड़ी देर लोगों ने उत्सुकता में सुना, फिर थोड़ी शालीनता और शिष्टाचारवश सुनते रहे… तबतक उन्हें समझ में आ गया था कि वह अनर्गल प्रलाप कर रही है। फिर कुछ लोग उठ उठ कर जाने लगे तो केट का चिल्लाना और प्रलाप और बढ़ गया।
तब तक थिएटर में भगदड़ मच गई और लोग दरवाज़े की तरफ भागे। फ़िल्म का दूसरा शो कैंसिल करना पड़ा। उसकी बहन मैलॉरी उसके साथ खड़ी रही पर अपनी बहन के व्यवहार पर शर्म से पानी पानी होती रही।
उसे थिएटर से लेकर वह अपने अपार्टमेंट में आई। यह स्पष्ट था कि उसका मानसिक संतुलन बिल्कुल बिगड़ा हुआ था। उसे हरे हरे रंग के लोग दिख रहे थे। वह सारी रात बड़बड़ाती रही, चक्कर काटती रही। सारी रात मैलॉरी भी डर के मारे सो नहीं पाई, और अपने परिवार वालों को फ़ोन करके मदद माँगती रही। उसे डर लग रहा था कि यह कहीं जाकर किसी का खून ना कर दे।
पर केट मिलेट की मदद करना आसान नहीं था। वह एक खूँखार किस्म की सिविल राइट्स एक्टिविस्ट और फेमिनिस्ट थी, जिसका शौक ही था व्यवस्था से टकराना। किसी की क्या मजाल कि उसके सामने खड़ा हो ले?
वह किसी भी साइकाइट्री ट्रीटमेंट के विरुद्ध थी। उसका मानना था कि साइकाइट्री इंस्टीट्यूशन सिर्फ लोगों के दमन का साधन हैं। लोगों की स्वतंत्रता, उनकी इंडिविजुलिटी को उनका पागलपन कह कर उनके स्वतंत्र विचारों को कुचला जाता है।
वह अमेरिका के ‘एन्टी-साइकाइट्री’ आंदोलन की भी नेत्री थी। वह सिविल राइट्स एक्टिविस्ट की भीड़ जुटा कर सारे साइकाइट्री हस्पतालों में भर्ती मरीजों को ज़बरदस्ती छोड़ने का आंदोलन चला रही थी और अमेरिका को हज़ारों मानसिक रोगियों को मजबूरन छोड़ना पड़ा जिन्हें इलाज की ज़रूरत थी और जो समाज में सुरक्षित नहीं थे।
और वह सेलिब्रिटी थी। एक प्रसिद्ध पुस्तक की लेखिका थी। उसका जबरदस्त नुइसेन्स वैल्यू था। बेवजह झगड़े फसाद करने का उसका रेपुटेशन था जिससे सभी भागते थे। घर वाले भी।
उसका व्यवहार हमेशा से असंतुलित और हिंसक था। वह एक सैडिस्ट थी, उसे लोगों को दुख देने में आनंद आता था। उसकी मानसिक हालात देख कर उसके घर वालों ने उसका इलाज करवाने का बहुत प्रयास किया पर सफलता नहीं मिली।
अपनी किताबों में भी उसने अपने परिवार का बहुत ही खराब चित्रण किया है। अपने परिवार के सभी सदस्यों को क्रूर, असंवेदनशील, शोषक और अन्यायी बताया है जो उसकी पॉलिटिक्स से घृणा करते थे और उसे लॉक अप में डाल देना चाहते थे।
एन्टी साइकाइट्री मूवमेंट अकेले केट मिलेट का आंदोलन नहीं था। उस समय के बहुत से साइकेट्रिस्ट भी इस बात से सहमत थे कि साइकाइट्री वार्ड और हस्पतालों में मरीजों के साथ होने वाले व्यवहार में सुधार की ज़रूरत है। पर उनमें से कुछ थे जिनका कहना था कि मनोरोग जैसी कोई चीज है ही नहीं, यह सिर्फ लोगों पर शासन करने का एक और बहाना है। थॉमस जाज नाम के साइकेट्रिस्ट ने ‘मिथ ऑफ मेन्टल इलनेस’ नाम की किताब तक लिख डाली।
तब साइकाइट्री की बहुत ज्यादा दवाएँ उपलब्ध भी नहीं थीं। क्लोरप्रोमाज़ीन पहला एन्टी-सायकोटिक था जो 1950 में खोज गया, हलोपेरिडॉल 1958 में। 1970 के दशक तक और कोई एन्टी सायकोटिक उपलब्ध नहीं था। इलेक्ट्रो-कनवलसिव थेरेपी यानी बिजली के झटके दिए जाते थे (जो आज भी ज़रूरी होने से दिए जाते हैं और बहुत ही कारगर हैं)। दवाओं के अभाव में मरीजों को अक्सर बाँध के रखा जाता था। पर जैसे जैसे नए उपचार आते गए, यह सब बदलता गया।
आज इतनी सारी दवाइयाँ उपलब्ध हैं, बिजली के झटकों और बाँधने की नौबत बहुत कम आती है। पर मज़े की बात देखिये, इन सारे सुधारों के श्रेय लेने ये एन्टी-साइकाइट्री आंदोलन वाले चले आते हैं… वे भी जो इसे एक मेडिकल फील्ड मानते ही नहीं थे। जिनका कहना था कि यह एक मिथ है।
क्या उनमें से किसी ने किसी भी एक एन्टी-सायकोटिक या एन्टी-डिप्रेसेंट का अविष्कार किया? किसी ने कोई शोध किया? अगर उनकी बात मानी जाती तो यह सब एक मिथ था, साइकाइट्री नाम का विषय होता ही नहीं। फिर ये सारे सुधार कैसे होते?
लेकिन अगर आप उनका लिखा पढ़ेंगे तो वे यह बताने से नहीं चूकते कि यह सारे सुधार उनके प्रयासों से हुए हैं। यह वामियों की खास तरकीब है। वे एक तरफ तो अव्यवस्था और अराजकता खड़ी करते हैं। दूसरी तरफ व्यवस्था में हुए सारे सुधारों का श्रेय लेने का दावा भी करते हैं।
जबकि सच यह है कि साधनों और सुविधाओं के साथ ये सारे सुधार यूँ भी होने थे। अगर उन्होंने कुछ किया तो हज़ारों मरीजों को इलाज से वंचित किया, दर्जनों खतरनाक रूप से बीमार लोगों को समाज में छोड़ कर अव्यवस्था और हिंसक घटनाओं को बढ़ावा दिया। और यही उनका उद्देश्य था।
एन्टी-साइकाइट्री आंदोलन कोई दीर्घकालिक आंदोलन नहीं रहा। पर यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस बहाने से वामपंथ का मनोरोग से एक महत्त्वपूर्ण संबंध स्थापित होता है… इसे आप चोर की दाढ़ी का तिनका समझ सकते हैं। क्योंकि आखिर वामपंथ एक संस्कारजन्य मनोरोग ही तो है।
क्रमशः… केट मिलेट पर अभी और