हम अपने जीवन में भाव का व्यापक प्रभाव पड़ता है। प्रेम, करुणा, क्रोध, घृणा, द्वेष आदि के प्रभाव से सभी परिचित हैं। जब हम किसी को प्रेम पूर्ण भाव से देखते हैं तो उसके जिसे हम देख रहे हैं, के मुख मंडल की छवि बदल जाती है। उसके चेहरे पर सुंदरता साफ झलकने लगती है। इसी तरह जब हम किसी को घृणा द्वेष से देखते हैं तो सामने वाले की भावभंगिमा भी खराब हो जाती है।
ऐसा ही हमारे साथ भी होता है। सामने वाले जब जिस भाव से हमें देखते हैं वैसी ही हमारी भावभंगिमा हो जाती है।
यह सब हम सहज ही देखते ही हैं कि भाव हमारी छवि मनोदशा सब को रुपान्तरित करते हैं। हम जड़चेतन के संयोग से बने हैं। शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है। भाव जड़ और चेतन दोनों को प्रभावित करते हैं। इतना तो हम प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं। भाव जिस जगह सघन हो कर केन्द्रित होगा, वहाँ अपेक्षित परिणाम देगा। सारा खेल भाव ऊर्जा का है।
ज्ञान शिक्षा के स्तर से हम परिचित हैं ही, प्राथमिक, माध्यमिक, परास्नातक। ऋषियों का ज्ञान परास्नातक स्तर का माना जा सकता है। भावशक्ति के ज्ञान में विशेषज्ञता प्राप्त ऋषियों ने ही मूर्ति, प्रतीक, के आधार पर साधना के विधान बनाये।
पहले यह निश्चित कर लें कि पक्ष में रहना या विपक्ष में। किसी विषय के पक्ष में सकारात्मक रहना है या नकारात्मक रहना है। एक बार निश्चित कर लिया तो अपने ध्येय पर दृढ़ रहें। अपने ध्येय के प्रति दृढ़ रहना ही सफलता का कारण बनता है।
पल में सकारात्मक पल में नकारात्मक होना, अस्थिर चित्त की निशानी है। अस्थिर चित्त वालों के ध्येय कभी पूरे नहीं होते। किसी बड़े लक्ष्य, उद्देश्य की सफलता का ध्येय निश्चित कर लिया है। जिसमें कई लोगों के सौहार्द, सद्भाव, सहयोग की आवश्यकता है तो ऐसे प्रयास कीजिए कि लोगों के मन में भी आपके ध्येय के प्रति सकारात्मक भाव उत्पन्न हों।
चाहे जैसी परिस्थितियाँ हों, अपने ध्येय के प्रति नकारात्मक भाव मन में न आने दें। नकारात्मक भावों का किसी भी स्थिति में प्रसार न करें।
जब हम नकारात्मक विचार व्यक्त करते हैं तब उनके संपर्क में आने वाले लोगों के मन में हताशा उत्पन्न होती है। और वे भी नकारात्मक भावों से भर जाते हैं। नकारात्मक भाव से भरे व्यक्ति नकारात्मक विचारों का प्रसारण करने लगते हैं। इससे हमने जो चाहा है उसके सफल होने की संभावना क्षीण होने लगती है।
मैं लगातार देख रहा हूँ कि राष्ट्र, धर्म से प्रेम करनेवाले व्यक्ति कभी कभी हताशा, नकारात्मक विचार व्यक्त करने लगते हैं। यह नकारात्मक भाव से ग्रस्त होना। विराट उद्देश्य की सफलता में बाधा तो उत्पन्न करते ही हैं, साथ ही ऐसे व्यक्ति के स्वयं के व्यक्तित्व को भी नष्ट करते हैं।
लोगों को समझाओ तो कुछ लोग कहते हैं कि हमारे अकेले के सोचने से क्या होगा? एक प्रकाशवान दीपक पूरे कमरे का अँधेरा मिटा देता है। दीप से दीप जलाये जाते हैं। यह न सोचें कि अकेले मेरे प्रकाशित होने से क्या होगा? आप का प्रकाशित होना बहुत बड़ी उपलब्धि है। आप औरों को भी प्रकाशित होने को प्रेरित कर सकते हैं।
नकारात्मकता स्वयं को बुझाने जैसी है। अतः परिस्थितियाँ लाख खराब हों, किसी भी स्थिति में मन में नकारात्मक भाव न आने दें।
जीवन में किसी भी क्षेत्र में सफल होना हो, यह सूत्र ही ठीक से काम करेंगे।
जो लोग अपने लोगों के बीच नकारात्मक बातें करते हैं, भले ही उनकी मंशा गलत न हो, पर वे अनजाने में ही सही, विपक्षी खेमे की मंशा को पूरा करने का ही काम कर रहे होते हैं।
ऐसे लोगों को एक दो बार समझाया जाये। फिर भी अगर वे अपनी हरकतों से बाज न आये तो उन्हें समूह से बाहर कर दिया जाये। आखिर सड़े हुए चूहों को घर से बाहर फेंकना ही होता है। जिस तरह दुर्गंध हमें कष्ट देती है, वैसे ही नकारात्मक विचार वाले मित्र भी कष्ट कारक होते हैं।
सकारात्मक नकारात्मक भाव विचारों का भी उपयोग किया जा सकता है। इसके लिए उनके उपयोग का तरीका पता होना चाहिए।
महाभारत में कथा है कि उस युग में दो व्यक्ति कुशल सारथी थे, एक कृष्ण दूसरे शल्य। शल्य दुर्योधन की आवभगत से प्रसन्न होकर दुर्योधन के पक्ष में चले गए थे। जबकि वे नकुल सहदेव की मां माद्री के सगे भाई, पांडवों के मामा थे।
जब कर्ण अर्जुन के बीच युद्ध होना था। तब कर्ण ने कृष्ण के मुकाबले शल्य को सारथी बनाना चाहा। दुर्योधन के कहने पर शल्य तैयार हो गए, पर एक शर्त रख दी कि वे केवल रथ चलायेंगे, अन्य काम नहीं करेंगे।
कृष्ण यह बात जानते थे। वे युधिष्ठिर को साथ लेकर शल्य के पास गए। तथा शल्य से सहयोग करने को कहा। पर शल्य ने सहयोग से मना कर दिया। श्री कृष्ण ने शल्य को एक बात के लिए राजी कर लिया कि वे युद्ध के बीच ईमानदारी से सच्ची बात करेंगे।
युद्ध प्रारंभ हुआ, कर्ण अर्जुन पर प्रहार करता और शल्य की ओर प्रोत्साहन की अपेक्षा करता तो शल्य कर्ण को अर्जुन के मुकाबले कमजोर बताते। बार बार यही होने से कर्ण क्षुब्ध हुआ। उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन, आ गया। इस तरह कर्ण के चित्त में अस्थिरता आ गई।
अस्थिर चित्त भूल गलतियों का रास्ता बनाता है। कर्ण ठीक से समझ ही नहीं पाया कि कृष्ण कर्ण के रथ को कीचड़ वाली जगह तक ले आये। कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में धँस गया। शल्य पहिया निकालने के लिए रथ से नीचे नहीं उतरे। अंततः कर्ण को मरना पड़ा।
अतः विपक्षी खेमे के लोगों का मनोबल तोड़ना हो तो उनके बीच नकारात्मक बातें फैलायीं जाती हैं। अपने लोगों के मनोबल को हर हालत में बनाए रखना होता है।
ख्याल रहे टूटे मनोबल वाले योद्धा युद्ध नहीं जीतते। अतः अपने बीच नकारात्मक हतोत्साहित करनेवाली बातें करने वालों को शत्रु ही समझिए।
– शत्रुघ्न सिंह