परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतम ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।
“ सज्जन पुरुष या साधूजन उद्धार करने के लिए, हैं पापमय ही कर्म; उनका नाश करने के लिए,
मैं धर्म की रक्षा करूँ मैं धर्म की स्थापना, मैं प्रगट युग-युग में हुआ हूँ पार्थ ऐसा मानना”
योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण ने ये उपदेश युद्ध से विरत और मानसिक द्वन्द से घिरे अर्जुन को रणभूमि में दिया था कि वो निस्तेज योद्धा ममत्व की बेड़ियाँ काट कर धर्म युद्ध के लिए उद्धत हो जाए….
पर प्रश्न यह है कि यह उपदेश सिर्फ अर्जुन को ही क्यों दिया गया? तो उत्तर है पात्रता… उपदेश धारण करने के लिए भी पात्रता सिद्ध करनी होती है। अपात्र को दिया गया उपदेश निरर्थक होता है।
आज देश में जहाँ देखिए उपदेशकों की फ़ौज खड़ी है, हर तीसरी-चौथी गली में भागवत कथा अमृत बंट रहा है… आस्थावानों का हुजूम उमड़ रहा है “बांके बिहारी कजरारे तेरे मोटे-मोटे नैन” की धुन पर जनता झूम रही है, पर वहीं-कहीं कोने में पड़ा धर्म; सिसकियाँ भर रहा है।
और ऐसा इसलिए है क्योंकि हम सब कथा को पकड़ने के आदी हैं, कथ्य को नहीं… एक ही विषय पर सबकी अलग-अलग व्याख्याएं हैं। सज्जन पुरुषों की रक्षार्थ हर युग में जन्म लेने कि इस ईश्वरीय उक्ति की भी हमने ऐसी ही व्याख्या की है कि हम अपने आप पर हो रहे अत्याचारों को सहते हुए, बस ईश्वर के अवतार लेने और हमारे उद्धार करने की बाट जोहते रहें।
दरअसल हमारा इतिहास विजेताओं का इतिहास है जहाँ ईश्वरी शक्तियां हमेशा आसुरी शक्तियों पर विजय पाती रही हैं, और यही विजेतावाद और अवतारवाद की अवधारणा, हमारे पतन के मूल में है। हम सिर पर खड़ी मौत को देखकर लड़ने के बजाए, ये सोचकर ईश्वर को याद करते हैं कि वो हमारी करूण पुकार सुनते ही खम्बा फाड़ कर नरसिंह की तरह प्रकट होंगे और हमें बचा लेंगे…
पर इसके उलट अब्राम्हिक और इस्लामिक धर्मावलम्बी अपनी लड़ाई आप लड़ने के आदी होते हैं । वो जानते हैं कि उनके धार्मिक शिखर पुरुष जब साधारण लोगों से अपने ही प्राणों की रक्षा नहीं कर सके, तो उन्हें बचाने क्या ख़ाक आयेंगे.. और यही वो संवेदी सूचकांक है जहाँ से हम धर्मभीरु और वो मज़हबी आक्रान्ता के रूप में बदल जाते हैं।
दरअसल हम वो अवसरवादी और सुविधाभोगी लोग हैं जो सिर पर छत, पेट में अन्न और देह पर कपड़े आ जाने के बाद ही धर्म को याद करते हैं। हमारे लिए आवश्कता पहले है, धर्म बाद में… उनके के लिए धर्म ही सबसे पहले है, बाकी सब कुछ बाद में और यही बुनियादी फर्क उनमें वो उन्माद भर देता है जिससे वो अल्पसंख्यक होकर भी बहुसंख्यकों का दमन कर पाते हैं।
हमारे ग्रंथ ईश्वरी विजय गाथाओं से भरे पड़े हैं, जहाँ हमेशा सत्य की विजय होती है। इतिहास गवाह है कि भारत में जो भी विदेशी आक्रान्ता आए, वो संख्या में बहुत कम थे पर हमें अपने पैरों तले रोंदते रहे, क्योंकि हिन्दू जनमानस अपने पुरुषार्थ पर कम और ईश्वरीय कृपा पर अधिक निर्भर रहा, परिणाम… हज़ारों सालों की गुलामी!
कहते हैं कि जब गजनवी सोमनाथ के विध्वंस के लिए भारत में आया, तब वो जितने सैनिक लेकर गजनी से चला था उससे चौगुने पण्डे और पुजारी सोमनाथ मंदिर में मौजूद थे पर वो लड़ने के बजाए सागर तट पर कीर्तन करते रहे कि बस अभी भगवान सोमेश्वर प्रगट होंगे और क्षण भर में समस्त शत्रुओं का संहार कर देंगे, पर हुआ क्या ये हम सब जानते हैं।
दरअसल हमारी समस्या ये है कि हमने इतिहास से कभी कोई सीख ली ही नहीं, पता नहीं हमें गलतियों को दोहराते रहने में क्या मज़ा आता है। जिस देश में कर्म की प्रधानता पर गीता जैसा उपदेश दिया गया हो, उसके बहुसंख्यक समाज की ये अकर्मण्यता समझ से परे है।
हमारी हालत तो यह है कि अगर आज कोई दंगाई घर में घुस आए तो बचाव के लिए हमारे पास मच्छरदानी का डंडा भी नहीं मिलेगा पर वो तैयार हैं, क्योंकि वो जानते हैं कि लड़ाई संख्या बल से नहीं आक्रामकता से जीती जाती है। उनके बच्चों से लेकर बूढों तक सभी ने खून को बहुत करीब से बहते हुए देखा है, वो प्रशिक्षित हैं ऐसे मौकों के लिए… और हम रसोई घर के उस चाक़ू के भरोसे लड़ने वाले हैं जिससे हमारी बेशर्म नाक भी शायद ही कटे पर हम निश्चिन्त हैं, भले ही हमारे आराध्य ४९० सालों से इंतज़ार में हैं कि कभी तो हमारा खून खौलेगा?
पर हमें तो पीने को साफ़ पानी चाहिए, दरअसल हमारी रगों में भी अब ये साफ़ पानी ही बहने लगा है। खून होता तो इतने अपमान के बाद तो शायद धमनियों को फाड़कर बह गया होता, पर हम निश्चित हैं कि प्रमोद कृष्णम के कल्कि भगवान् आयेंगे और हमारा उद्धार करेंगे… खैर जाने दीजिए ये सब फ़ालतू बातें आप तो बिग बॉस देखिए और सोते रहिए कि रात गहरी है…..
जो जम्मू और केरल के हिन्दुओं ने किया, वो क्यों नहीं कर सकते शेष भारत के हिन्दू