29 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण के फैसले को एक बार फिर टाल दिया गया और इसी के साथ 100 करोड़ हिन्दुओं की आस्था को एक बार फिर दरकिनार कर दिया गया।
इसीलिए विश्व हिन्दू परिषद् (विहिप) समेत देशभर में अन्य हिन्दू संगठनों द्वारा अयोध्या में धर्म सभा का आयोजन किया गया था। विहिप द्वारा देशभर से रामभक्तों तथा साधू-संतों को इस धर्मसभा के लिए बुलाया गया था तथा मंदिर निर्माण के लिए आगे की रणनीति बनाने के लिए यहाँ देशभर से आये 2 लाख से अधिक रामभक्त जुटें, जिसमें भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर का निर्माण जल्द से जल्द करने के लिए सरकार से शांतिपूर्ण तरीके से निवेदन किया गया। इस धर्म सभा महाराष्ट्र से शिवसेना के उध्दव ठाकरे पांच हजार से ज्यादा शिवसेनिकों के साथ अयोध्या पहुंचे।
अयोध्या विवाद भारत के हिंदू और मुस्लिम समुदाय बीच तनाव का एक प्रमुख मुद्दा रहा है और देश की राजनीति को एक लंबे अरसे से प्रभावित करता रहा है।
अयोध्या में संपन्न हुई धर्मसभा में तमाम धार्मिक संघटनों समेत बीजेपी की सहोयिगी पार्टी शिवसेना ने भी दस्तक दी। उद्धव ठाकरे ने पहले ही इसकी घोषण कर दी थी की 25 नवम्बर को उनके पार्टी के लगभग पांच हजार से ज्यादा कार्यकर्ता अयोध्या में रामलला के दर्शन करेंगे।
अब सोचनेवाली बात यह है कि आखिर सरकार जब कोर्ट में लंबित मामले खिलाफ नहीं जाना चाहती है और इस धर्म सभा में किसी भी राजनितिक दल यहाँ तक की बीजेपी ने इसमें शिरकत नहीं की तो वह कौन सी मज़बूरी रही है शिवसेना की जो साधू संतों और रामभक्तों की धर्मसभा के साथ ही शिवसेना को भी बहती गंगा में हाथ धोने पर मजबूर होना पडा?
कुछ महीनों पीछे जाकर देखे तो ठाकरे और शिवसेना अपने मुखपत्र सामना और अनेक माध्यमों से सरकार पर हमला करती रही है। शिवसेना ने मोदी सरकार पर पिछले 4 सालो में अनेक बार समय-समय पर अनेक विषयों पर सरकार को घेरा है, चाहे वो महाराष्ट्र की फडनविस सरकार हो या केंद्र की मोदी सरकार शिवसेनाध्यक्ष उद्धव ठाकरे, नितिन राउत अनेक मोर्चो पर सरकार को आड़े हाथों लेते रहे हैं।
गौरतलब है कि महाराष्ट्र सरकार और केंद्र की मोदी सरकार दोनों में ही शिवसेना केवल सहयोगी पार्टी ही नहीं, बल्कि शिवसेना के मंत्री महाराष्ट्र और केंद्र के कैबिनेट में शामिल है। किसानों के मोर्चो पर हो या कालेधन के मुद्दे पर हो, रामजन्मभूमि वाले मुद्दें पर हो या कर्जमाफी के मुद्दे पर शिवसेना ने हमेशा अपने मुखपत्र के जरिये सरकार का विरोध किया है।
यही नहीं शिवसेना कई बार मंत्रिमंडल से इस्तीफे की धमकी दे चुकी हैं लेकिन इस्तीफा कभी दिया नहीं गया जिससे सेना की कई मौको पर किरकिरी भी हुई। सरकार में शामिल होते हुए कोई पक्ष सरकार का विरोध करे और खुद उस विषय पर कार्यवाही न करे तो यह हास्यापद है।
शिवसेना को हमेशा से महाराष्ट्र में बीजेपी का बड़ा भाई माना गया है लेकिन पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अमित शाह के रणनीति और देवेन्द्र फडनविस – नितिन गडकरी की जोड़ी ने शिवसेना के इस भ्रम को तोड़ते हुए विधानसभा में शिवसेना से दुगनी सीटें जीतकर महाराष्ट्र में सिंगल लार्जेस्ट पार्टी बनकर उभरी थी। बीजेपी यहीं नहीं रुकी उसने जिस मुंबई पर शिवसेना ने बरसो राज किया है उसी BMC के नगरपालिकाओं के चुनावों में मुंबई में शिवसेना के गढ़ में सेंध लगाते हुए शिवसेना के बराबर सीटें जीत ली थी। यहीं से शिवसेना को इस हार की टीस रही है और शिवसेना केंद्र और महाराष्ट्र सरकार की खिंचाई करने का कोई मौका नहीं छोड़ती।
शिवसेना के पास अपने सांसद द्वारा किये गए कार्य जनता तक पहुँचाने के लिए विशेष कुछ है नहीं क्योंकि शिवसेना पिछले 4 सालों से केवल दोनों ही सरकारों का विरोध करती नजर आयी। शिवसेना केंद्र सरकार को कुम्भकरण कह रही है और राम मंदिर निर्माण की तारीख बताने को कह रही है लेकिन सच्चाई तो यह है कि शिवसेना खुद नींद से अब जाग रही है।
जब आम चुनाव कुछ ही महीनों पर है तो शिवसेना यह समझ चुकी है कि जनता के पास 5 सालों के हिसाब के नाम पर केवल सरकारों के विरोध को लेकर नहीं जाया जा सकता। 2019 के चुनाव के लिए शिवसेना का एक ही “रामबाण” उपाय है श्रीराम का भव्य मंदिर जिसकी लहर के सहारे आनेवाले चुनाव में जनता के सामने जा सके और अपनी राजनितिक जमीन खिसकने से बचाया जा सके।
गौरतलब है कि शिवसेना एकमात्र ऐसी पार्टी है जो गर्व से आज भी बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिराने का श्रेय लेती दिखाई देती है। नितिन राउत ने मीडिया को बताया कि कैसे 17 मिनट में उनके कार्यकर्ताओं ने मिलकर बाबरी ढांचा गिराया था। शिवसेना ये भी जानती है 100 करोड़ हिन्दुओं के आस्था का केंद्र रहे अयोध्या में श्रीराम मंदिर को लगातार पिछले कई दशकों से देश की न्यायप्रक्रिया द्वारा लंबित किया जा रहा है।
अब जब एकबार फिर इसे जनवरी तक टाल दिया गया तो हिन्दू समाज अधीर हो उठा है ऐसे में बहुत संभव है कि जनसमुदाय के दबाव में चुनाव के पहले-पहले राम मंदिर पर सर्वोच्च न्यायलय का कुछ निर्णय आये या जनता के दबाव में सरकार अध्यादेश लाकर राम मंदिर का निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे। जिसका श्रेय शिवसेना खुद लेना चाहती है। शिवसेना बीजेपी के इस धर्मयुद्ध में कूदने से पहले श्रीराम मंदिररूपी नाव के सहारे अपनी राजनितिक जमीन वापस पाना चाहती है।
अब शिवसेना राममंदिर के सहारे महाराष्ट्र में अपनी खोयी हुई राजनीतिक ज़मीन वापस पाने में कहाँ तक कामयाब होती है और बीजेपी जो इस बात को भली भांति समझ रही है, उसकी अगली रणीनीति क्या होगी यह देखना होगा। शिवसेना के राममंदिर वाली राजनीति के बावजूद बीजेपी महाराष्ट्र में अपना प्रदर्शन दोहरा पायेगी ये तो आनेवाला समय ही बताएगा।
Very nice post helpful information thanks.