वामपंथी थॉट-वायरस आपको बिना आपकी जानकारी के कैसे पकड़ता है, पिछले दिनों इसका एक बेहतरीन उदाहरण देखने को मिला।
मेरे एक मित्र हैं। बहुत ही प्रिय, बहुत ही सहृदय। मेरे डॉक्टर मित्रों में शायद ही किसी और में इतना सामाजिक सरोकार, गरीबों की इतनी चिंता और उनके लिए व्यवहारिक उपाय करते और किसी को देखा होगा।
भाजपा के लिए सक्रिय भी हैं, हिंदूवादी भी हैं, और अपने व्यक्तिगत जीवन में निष्ठावान सनातनी भी हैं।
डॉक्टर होने और सामाजिक जीवन में सक्रियता के अलावा उन्होंने अपने अत्यंत व्यस्त जीवन में एक और कार्य जोड़ लिया है… दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ की पढ़ाई भी कर रहे हैं।
एक दिन उन्होंने एक विषय पर मुझसे मेरे विचार मांगे। वे महिलाओं के लिए ‘स्वास्थ्य के अधिकार’ पर कानून बनाने के लिए विचार आमंत्रित करने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी में एक सेमिनार आयोजित कर रहे हैं।
उन्होंने एक कांसेप्ट नोट में अपनी चिंता शेयर की कि महिलाओं के स्वास्थ्य के अधिकार का विषय सरकारी कामकाज में नीति-निर्धारण से शुरू होकर मौलिक अधिकारों में शामिल होने का लक्ष्य होना चाहिए।
स्त्रियों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ जानकारी और सुविधा के अभावों के कारण अपमानजनक और हानिकारक अनुभवों का कारण बनती हैं। इसमें अनेक सामाजिक बुराइयों का भी योगदान है जैसे कि पितृसत्तात्मक समाज और कन्यादान इत्यादि…
पढ़ते ही मेरा माथा ठनका – यह तो वामियों की भाषा है। स्त्रियों के स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या को पितृसत्तात्मक समाज और हिन्दू रीति रिवाजों से जोड़ने की तकनीक पर तो बिल्कुल बाएँ हाथ का सिग्नेचर है। यह भाषा इनकी कलम से कैसे निकली? यह कलम की फिसलन है या हृदय परिवर्तन!
मैंने एक शाम फ़ोन लगाया और उनसे दो घंटे बात की। उन्हें बिल्कुल भी भनक नहीं थी कि इस सेमिनार के वामपंथी उद्देश्य भी हो सकते हैं। वे तो लॉ की वर्तमान प्रचलित भाषा बोल रहे थे।
उनसे लंबी बातचीत के बाद कुछ विषय निकल कर आये जिन्हें संक्षेप में यहाँ शेयर करना बनता है।
स्वास्थ्य सबकी चिंता का विषय है। स्त्रियों का स्वास्थ्य भी सबकी चिंता का विषय है। एक परिवार के पुरुष क्या चाहते हैं कि स्त्रियों को स्वास्थ्य सुविधाएँ ना मिलें? मैं एक पिता हूँ तो क्या मुझे अपनी बेटी को अस्वस्थ देख कर सुख मिलेगा? या कोई पति चाहता है कि उसकी पत्नी बीमार रहे? स्वास्थ्य एक ‘आवश्यकता’ है। फिर वे कौन हैं जो इसे एक आवश्यकता नहीं, ‘अधिकार’ सिद्ध करने के लिए तत्पर हैं? इससे उनका कौन सा लक्ष्य सिद्ध हो रहा है?
भारत जैसे देश में जहाँ स्वास्थ्य सुविधाएँ सबको सुलभ नहीं हैं, इस नई परिभाषा के क्या वामपंथी स्कोप हैं?
जब आप किसी आवश्यकता को ‘अधिकार’ परिभाषित करते हैं तो यह भी सिद्ध होता है कि जिस किसी भी व्यक्ति की उस आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो रही है, वस्तुतः उसके अधिकारों का हनन हो रहा है। यानि उसके साथ अन्याय हो रहा है।
चूँकि स्त्रियों की कुछ विशेष स्वास्थ्य समस्याएँ हैं, इसलिए उनकी स्वास्थ्य सुविधा संबंधी आवश्यकताएँ भी अधिक हैं। अब उनके लिए स्वास्थ्य सुविधाओं को विशेष रूप से एक अधिकार घोषित करने से विशेष रूप से उनके अधिकारों का हनन हो रहा है।
और यह समाज पितृसत्तात्मक है इसलिए अवश्य उनके साथ यह अन्याय पुरुषों का किया धरा है। और हिन्दू रीति रिवाज़, जैसे कि कन्यादान विशेष रूप से पितृसत्ता को प्रतिध्वनित करते हैं, तो अवश्य हिन्दू धर्म स्त्रियों के प्रति अन्यायपूर्ण है… उन्हें सामान्य स्वास्थ्य सेवाएँ तक उपलब्ध नहीं कराता।
लीजिये, हो गया अत्याचार और अन्याय का एक नया नैरेटिव तैयार, जिसमें हमारे ही परिवार की स्त्रियां पीड़िता की भूमिका में हैं और इसमें विलेन कौन है? आप और आपका चिरपरिचित विलेन हिन्दू धर्म.
स्त्रियों के स्वास्थ्य जैसे सीधे सरल से विषय को जिसकी आवश्यकता और प्राथमिकता पर कोई विवाद हो ही नहीं सकता, एक छोटे से निर्दोष से दिखने वाले कानून की मदद से वे सामाजिक विघटन और विभेद की कहानी में बदल दे सकते हैं। उनका यह टैलेंट ही उनकी विष की थैली है। और कानून के क्षेत्र में उनकी यह जबरदस्त घुसपैठ यूँ ही नहीं है। यही है उनका विष का दाँत।
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