काँगी-वामी गिरोह का Blitzkrieg और मोदी सरकार की 2019 में वापसी

आज से तीन साल पहले जब काँगी-वामी गिरोह ने नरेंद्र मोदी की सरकार के विरुद्ध, अंतराष्ट्रीय स्तर पर ‘असहिष्णुता’ का प्रचार कर के सरकार को अस्थिर करने का प्रयास किया था, तब मैंने एक लेख में यह समझाने की कोशिश की थी राष्ट्रवादी/ हिंदूवादी विरोधी ताकतों के यह प्रयास अंत मे क्यों असफल होंगे।

आज, मोदी सरकार के साढ़े चार वर्ष पूरे हो चुके हैं और अगले महीनों में, चुनाव तक यही ताकतें, और तीव्रता से इसी तरह के कुतर्की, तथ्यहीन और विष्ठापूर्ण आक्रमण करेंगी ताकि जनमानस में मोदी सरकार के विरुद्ध अविश्वास व भ्रम की स्थिति पैदा करने में वे सफल हो सकें। मैने आज अपने इसी पूर्व लेख के मूल को सामयिक बनाते हुये लिखा है।

द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मन सेना द्वारा किये जा रहे आक्रमणों को एक कहर के नाम से जाना जाता था और वो था ‘Blitzkrieg’ (ब्लिट्ज़क्रेग, जर्मन में बिजली युद्ध)।

यह जर्मनी की युद्ध में आक्रमण नीति थी जिसमें सेना टैंकों, पैदल सैनिकों, तोपची सैनिकों और वायु शक्ति के सभी यंत्रीकृत सैन्य बलों द्वारा शत्रु की अग्रिम पंक्ति व व्यूह रचना पर, भरपूर ताकत व तीव्र गति से संयुक्त रूप से आक्रमण किया जाता था, ताकि शत्रु सेना की अग्रिम पंक्ति ध्वस्त होकर छिन्न भिन्न हो जाये।

एक बार जब वे अपने प्राथमिक उद्देश्य में सफल हो जाते तब सेना अपने किनारे की फिक्र किये बगैर तेज़ी से आगे बढ़ते हुये अंदर घुसती चली जाती थी। एक निरंतरता की गति लिए हुए ब्लिट्ज़क्रेग, अपने शत्रु को असन्तुलन की स्थिति में रखता है। जिससे शत्रु को, जब तक कि उसकी अगली पंक्ति पहले से ही आगे ना बढ़ गयी हो, प्रभावी ढंग से प्रतिकार करना मुश्किल हो जाता है।

यह जो अवार्ड वापसी, असहिष्णुता से शुरू हो कर सर्वोच्च न्यायाधीशों की प्रेस कांफ्रेंस, भारतीय सेना पर प्रश्न खड़ा करना, राफ़ेल का हौआ खड़ा करना, सबरीमला मामले में हिन्दू आस्थाओं को चोट करना, सीबीआई में उठापटक इत्यादि हो रहा है, यह और कुछ नही बस काँगी-वामी गिरोह का भारत की राष्ट्रवादी/ हिंदूवादी सरकार के विरुद्ध ब्लिट्ज़क्रेग है।

जब भी इस गिरोह द्वारा अपने मीडिया के सहभागियों द्वारा इन आक्रमणों को प्रसारित व प्रचारित किया जाता है तब कमज़ोर हृदय समर्थको में यह बात कहीं न कहीं यह घर जाती है कि काँगी-वामी आक्रमणों से भारत की सरकार तितर बितर हो गयी है और उसकी प्रतिकार करने वाली सुरक्षा पंक्ति एक कमज़ोर कड़ी है।

इस सबको लेकर मैं न पहले परेशान था और न आज हूँ क्यूंकि यह कोई ब्रह्मास्त्र नहीं है। इससे कुछ लड़ाइयां तो हारी जा सकती है लेकिन अंतिम युद्ध नहीं जीता जा सकता है।

इसकी कुछ सीमाएं होती हैं। इस तरह के आक्रमण की सबसे बड़ी ताकत उसका अप्रत्याशित होना होता है, जिसका तीव्रता से प्रतिकार करना व शीघ्रता से प्रतिउत्तर देने में सक्षम न होना, एक प्रश्नचिह्न ज़रूर खड़ा कर देता है।

जब शुरू के वर्षो में इस तरह के आक्रमण होते थे तब उसके साथ अप्रत्याशित तत्व का समावेश होता था और तब निश्चित रूप से ऐसा ही परिदृश्य सामने दिखता था। लेकिन मुझको मोदी सरकार में आज इस तरह का कोई भी असमंजस नहीं दिखता है क्योंकि मोदी जी को तब भी यह मालूम था और आज भी मालूम है कि इस तरह के आक्रमण कैसे भूतकाल में असफल हुये थे और आगे भी वैसे ही असफल होंगे।

मोदी जी को तब यह मालूम था कि उनके पास पूरे पांच वर्ष हैं और आज यह मालूम है कि प्रतिघात करने के स्थान का चुनाव, उनके ही हाथ में है।

जिस ब्लिट्ज़क्रेग के कारण जर्मनी ने पूरे योरप को रौंद डाला था वही अंतिम युद्ध में उसकी हार का कारण भी बना था। जब जर्मनी ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया था तब उस आक्रमण के दौरान, ब्लिट्ज़क्रेग में निहित दोष सामने उभर कर आये थे।

इस युद्धनीति से जहां कम समय में आगे बढ़ कर के विजय प्राप्त करनी होती थी, वहां वह सफल थी। सामने से जो आक्रमण होता था, वह बख्तरबंद सेना करती थी और उसके ठीक पीछे पैदल सेना होती थी और यह पैदल सेना, बख्तरबंद सेना के द्वारा मचाई गयी तबाही का लाभ उठा लेती थी।

लेकिन यही ब्लिट्ज़क्रेग, सोवियत संघ के साथ युद्ध में असफल हो गयी क्योंकि वहां सोवियत रूस के खुले विस्तृत घास के मैदानों में कुछ घंटों की देरी कई दिनों में बदल गयी।

जर्मनी की सेना तेज़ी से बढ़ती थी और सोवियत रूस की सेना और पीछे हो जाती थी। इससे सोवियत सेना को अपनी रक्षा पंक्तियों से कहीं दूर, पीछे एक जगह जमा होने का मौक़ा मिल जाता था और इस प्रकार उनकी पैदल सेना को रक्षात्मक स्थिति में आकर प्रतिघात करने में पर्याप्त समय मिल गया था।

उदाहरण के लिए स्टेलिनग्राद के युद्ध में सोवियत सेनाएं, जर्मन ब्रेक आउट प्वाइंट से सैकड़ों किलोमीटर दूर संगठित हुईं थी।

जब असहिष्णुता का ब्लिट्ज़क्रेग हुआ था तब मोदी के पास समय बहुत था, वो 2 – 3 राज्यों को हारने को तैयार बैठे थे। ‘असहिंष्णुता’ का आक्रमण भले ही मोदी सरकार पर था, लेकिन उसका प्रभाव सरकार पर नही पड़ना था, यह उनको मालूम था।

उसका असर यहाँ की भावनात्मक रुप से पंगु जनता और भारत के बाहर रह रहे विदेशियों और उनकी मीडिया पर पड़ेगा, इसको मोदी अच्छी तरह से समझते थे। इसलिये मोदी जो दुनिया भर में घूमे है और जो उन्होंने गरीब व विकास से उपेक्षित लोगो के लिए योजनाओं को उन तक पहुंचाया है, उससे उन्होंने अपने विपक्षियों के लिए खुला विस्तृत मैदान तैयार किया है।

मोदी को इस बात का भान था कि आज आर्थिक लाभ और हानि की दुनिया है। यहां अमेरिका की सरकार आईएसआईएस से सस्ते तेल खरीदने और हथियार बेचने के धंधे से परहेज़ नहीं करती, सऊदी अरब का शहज़ादा अपने ही दूतावास में हत्या करवाता है लेकिन धंधा चलता रहता है।

अमेरिका और योरप की सरकारों को चीन से व्यापारिक फायदा है तो उसकी तानाशाही से कोई परेहज़ नहीं है, रूस को उसी तालिबान को हथियार बेचने से कोई परहेज़ नहीं है जिसने उसे अफगानिस्तान में हराया था, अमेरिका ईरान को बर्बाद करना चाहता है लेकिन चाबहार बंदरगाह को चलने देने से कोई दिक्कत नहीं है।

मोदी इस बात को समझ चुके थे कि यदि उन्होंने भारत को दुनिया की ज़रूरत बना दिया तो किसी भी तरह का कुप्रचार, दुनिया को भारत से जुड़ने से नहीं रोक सकता है और भारत मे विपक्षियों द्वारा बनाया कोई भी कथानक उनको अंतिम युद्ध में रणभूमि चुनने से नहीं रोक पायेगा।

मुझ को पूर्ण विश्वास है कि 2018 के जाते जाते मोदी ने रणभूमि भी चुन ली है और ब्रह्मास्त्र भी चुन लिया है। 2019 मोदी सरकार की वापसी का वर्ष है।

2019 का लोकसभा चुनाव : भारत और हिन्दुओं के अस्तित्व का निर्णायक युद्ध!

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