बांस और मिट्टी पर खड़ा टिन की छत से बना एक ढांचा जिसके मिट्टी की दीवारों में दरारें पड़ी हुई हैं। बारिश होने पर केवल सस्ती प्लास्टिक शीट ही इसके भीतर रहने वालों को भीगने से बचा सकती है। वह भी तब जब यह लोग उसे खुद खरीद पाएं।
इसी उपलब्धि को अगर ‘घर’ कहा जाए तो इसके मालिक थे मंगल शबर। जो कि पश्चिम बंगाल के आदिवासी बहुल लालगढ़ इलाके में भूख और कुपोषण से मरे सात लोगों में से एक थे।
जनजातीय शबर समुदाय से संबंधित 35 परिवार लालगढ़ के जंगलखाश गांव में रहते हैं, जिनमें से 7 पिछले 15 दिनों में जीवन के साथ चल रही जंग हार गए। ये मौतें भूख और कुपोषण की वजह से हुई हैं।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए, यह एक नकली खबर है। उन्होंने घोषणा की, “राज्य में भूख की वजह से कोई भी मौत नहीं हुई है।”
इस तरह आदिवासियों की भूख-कुपोषण से हुई इन दर्दनाक सामूहिक मौतों को निपटा कर ममता बनर्जी कोलकाता फिल्म फेस्टिवल की देखरेख में व्यक्तिगत रुप से जुट गई हैं।
लालगढ़ किसी ज़माने में माओवादी गतिविधियों का केन्द्र रहा था। यह उस इलाके से बहुत दूर नहीं है जहां माओवादी नेता किशनजी को जबरदस्त मुठभेड़ के बाद सुरक्षा बलों ने मार गिराया था।
शबर समुदाय बंगाल के आदिवासी बहुत झारग्राम और पुरुलिया जिले के अलावा लालगढ़ इलाके में फैला हुआ है। इसके अधिकांश सदस्य भूख या तीव्र कुपोषण के शिकार है। क्षय रोग, पैरों और पेट की सूजन इस समुदाय के लोगों के लिए आम बीमारियां हैं। इनके लिए पेट भर भोजन एक विलासिता से कम नहीं है।
सिर्फ गरीबी ही नहीं, भ्रष्टाचार ने भी यहां की हालत खराब कर दी है। ग्रामीण आरोप लगाते हैं कि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) इन ग्रामीणों से वसूली करता है। आदिवासियों ने आरोप लगाया, “हमें इंदिरा आवास योजना (जिसे अब प्रधान मंत्री आवास योजना के नाम से जाना जाता है) के तहत घर बनाने के लिए 75000 रुपये मिले हैं, लेकिन हमें इसमें से टीएमसी को पार्टी फंड के लिए 3000 रुपये देना पड़ा।”
पश्चिम बंगाल का जंगलखाश गांव ‘विकास’ से अनजान है। ज्यादातर घर मिट्टी से बने हुए हैं। शबर समुदाय के कुछ लोगों के पास तो खुद को छिपाने के लिए चार दीवारें तक नहीं हैं। पानी का पंप भी टूटा हुआ है। शबर समुदाय के लिए शिक्षा एक सपने की तरह है क्योंकि उनकी प्राथमिकता अपने बच्चों के लिए भोजन जुटाना है।
इस इलाके में क्षय रोग (टीबी) का प्रकोप बेहद ज्यादा है। जो कि सीधे तौर पर गंभीर कुपोषण से जुड़ी बीमारी है। 28 वर्षीय मंगल शबर तपेदिक से पीड़ित थे। उनके परिवार का कहना है कि वह पिछले कुछ महीनों से दवा ले रहे थे और अचानक शनिवार को उसकी मृत्यु हो गई।
साल 2004 में भी भूख और कुपोषण के कारण छह आदिवासियों की मौत हो गई थी। तब राज्य में 2011 तक 34 सालों से कायम रही वामपंथी सरकार थी।
एक और मृतक श्रीनाथ शबर का बेटा नयन शबर, जो 7 साल की उम्र में अपने तम्बू में अगली सर्दी का सामना करने के लिए तैयार हो रहा है। क्योंकि, वह जानता है, उसे जिंदगी की जंग एक और दिन लड़ने के लिए जिंदा रहने की जरूरत है।
इस सबके बीच आदिवासियों की मौत से बेखबर राज्य सरकार सालाना व्यापार शिखर सम्मेलन ‘राइज़िंग बंगाल’ में अपने विकास मॉडल का प्रचार कर रही है।
पश्चिम बंगाल भाजपा की इकाई इन मौतों पर सच जानने और केंद्र सरकार तक उसे पहुंचाने के लिए एक टीम भेजने की तैयारी कर रही है, बशर्ते ममता सरकार उन्हें जाने दे।
ममता के आदिवासियों की भूख और कुपोषण से हो रहीं इस ‘राइज़िंग बंगाल’ का महल पश्चिम बंगाल में 34 सालों के वामपंथी शासन की लाल नींव पर पिछले एक दशक से कुछ कम समय से तामीर हो रहा है।
यह हकीकत है उस प्रदेश की जहां 2004 में जल-जंगल-ज़मीन के व्यवसायिक नारों के धनी वामपंथी सत्ता के रहते भी आदिवासियों की भूख-कुपोषण से मौतें होती रहीं। और यही सत्य आज भी है जब इसी बंगाल को ममता अपने दूसरे कार्यकाल में राइज़ करा रही हैं और फ़िल्मी बना रही हैं।
कौन कहता है आदम मांस सिर्फ माओवादी गोलियों से ही खाया जा सकता है लाल आतंक के द्वारा! आदिवासियों की भूख-कुपोषण भी 34 सालों और फिर दूसरे सत्ता कार्यकाल तक ममता जैसे नैतिक नरभक्षियों को आदम मांस की खुराक दे सकते हैं।
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