बचपन में अध्ययन मेरा क्षेत्र नहीं था, न ही अध्यात्म की ओर मेरा खिंचाव था। पूजा-पाठ के कार्यक्रमों में हिस्सा लेना पारिवारिक दिनचर्या का अंगमात्र रहा। हर शाम को तीन से चार बजे के बीच खेलने निकल जाना अटल था।
लेकिन वर्ष में कुछ दिन ऐसे होते थे जब जीवन का खेल बदल जाता था। ये उन दिनों की बात है जब मैं नौ-दस साल से तेरह-चौदह साल के बीच का रहा होऊंगा। गांव में नवाह यज्ञ होता था। नौ दिनों तक रामायण पाठ के बाद तीन दिनों का प्रवचन कार्यक्रम, जिसमें कई बार पास पड़ोस से लेकर अयोध्या तक से पंडित बुलाए जाते थे। जिन प्रवचनकर्ता पंडित का मुझे स्मरण है उनका नाम था केशव जी। केशव जी यूं थे तो पास के ही रहने वाले लेकिन अयोध्या में बस गए थे।
केशवजी भावविभोर होकर रामकथा सुनाते थे। और मानस के दोहों, चौपाइयों की चरणों में व्याख्या कर सम्मोहिनी मंत्र से बांध लेते थे। श्रीराम के जन्म से लेकर, बाल्यक्रीड़ा, शिक्षा-दीक्षा, वन गमन, दशरथ का दुख, भरत मिलाप जैसे प्रसंगों को सुनते हुए सैकड़ों ग्रामीणों को मैंने विह्वल होते देखा है।
वहां मैंने साहित्य का एक समाज देखा, जो कि किसी भी साहित्यकार के जीवन का अभीष्ट है । गांव का एक ऐसा लोक जो बहुत अध्यवसायी या चिंतनशील, मर्मज्ञ न होते हुए भी तुलसी के सजाए तोरणद्वार में घुसता चला जाता था।
अयोध्या से लेकर दंडकारण्य, किष्किंधा और लंका सभी प्रदेशों में विचरण कर लौट आने की वैसी यात्रा मैंने अपने जीवन में कभी नहीं की। धऱती पर रहते हुए धऱती से ऊपर अनंत नील में उठ जाना, किसी विशाल प्रासाद के गलियारों में घूमते हुए सभाओं में बैठ आना, कभी पंचवटी में भटकना, कभी चित्रकूट को किसी साक्षात चलचित्र की तरह देखना।
शब्दों का सामर्थ्य क्या होता है और भावों के भाभर कितने विहंगम होते हैं ये हमने तुलसी से जाना। मैंने एक साथ उतने चमत्कृत चेहरे नहीं देखे। यहां तक कि सिनेमा भी अपनी सभी समस्त मायाओं के साथ हमें कभी उस तरह से स्तंभित नहीं कर सका। लोग उन्हें वैसे ही सुनते थे जैसे राम उनके ही बीच पैठ गए हों, सखा, संतति, पति, पुत्र की तरह।
मिलन के उन अव्यक्त क्षणों में भगवान और भक्त के बीच की रेखा कब मिट जाती थी, पता ही नहीं चलता था। सब राममय हो जाता था। हम राम के साथ ही हंसते थे, राम के साथ ही रोते थे, कभी दशरथ बन कर, कभी लक्ष्मण, भरत बन कर, कभी सीता की तरह उनकी वामा होकर, कभी हनुमान का प्रचंड वेग बन कर।
वहीं से मैंने राम को जाना। और यह भी परख लिया कि ईश्वर अनंत आकाश में बैठा कोई तानाशाह नहीं बल्कि इसी लोक का पुरुष है, हमारे बीच का, हम सब में विद्यमान, सतत प्रवहमान, अंतस्तल में कौंधने वाली विद्युन्मालिका की तरह। जिस दिन केशवजी अपना प्रवचन समाप्त करते थे, उस दिन मेरा मन भारी हो जाता था।
खिलंदड़ी के अवसरों की खोज मेरा जीवन दर्शन था जिसके लिए मैंने कभी पिता से झूठ बोला कभी मां को ठगा लेकिन उन दिनों का खेल कुछ अलग था। केशवजी जब प्रवचन समाप्त कर विदा होने की तैयारी करते थे तब हमारे सामने राम का वनगमन प्रसंग दुबारा प्रस्तुत हो जाता था।
राम को हम सबने अपने भ्राता, अनन्य सखा और आराध्य के रूप में कुछ इसी तरह से देखा, जिया है। नवरात्र और लंकाविजय दोनों अन्तर्गुंफित हैं। पंडालों से देवी का उठना भी उतना ही दुखदायी है। क्योंकि देवी मूर्ति मात्र नहीं, साक्षात माता, भगिनी स्वरूपा हैं जिन्हें हमें अपनी आत्मा में मूर्तिमान देखते हैं।
महाप्रश्न का उत्तर हैं श्रीकृष्ण के कर्म और श्रीराम के आदर्श