‘अर्बन नक्सली’ आज एकदम हिट संज्ञा है। वैसे आज मेरे पुराने लेखों में यह लेख सामने आया तो आप से साझा करना आवश्यक समझा। 11 जून 2015 को लिखा था मैंने – ‘फर्क समझिए – क्रांति और देशद्रोह में’।
जुल्मी, तानाशाही और/ या विदेशी सत्ताधारियों के विरोध में जब प्रदेश की जनता खड़ी हो जाती है तो उसे क्रांति कहा जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में हिंदुस्तान में चल रहे कुछ आंदोलनों पर दो शब्द।
वैसे कोई भी व्यवस्था हो – आंदोलन हो, क्रांति हो या सरकार हो – चलते रहने के लिए पैसा जरूरी होता ही है। क्रांति में भी सरकार की व्यवस्था पूर्णत: ध्वस्त की नहीं जाती अपितु उसपर सरकार की सत्ता तोड़ी जाती है ताकि क्रांति यशस्वी हो तो उसे सरकार चलाने के लिए व्यवस्था का श्रीगणेश न करना पड़े। जितना बड़ा प्रदेश उतनी व्यवस्था का गठन ज़रूरी होता है। खैर, मूल बात पैसे की कर रहे थे हम।
अंग्रेज़ों के साथ जो स्वातंत्र्य संग्राम हुआ उसमें सरकार से जनता की बराबरी नहीं थी। कहीं कहीं छुटपुट सशस्त्र झड़प होती जहां क्रांतिकारी सरकारी शस्त्रास्त्र ले कर भाग जाते। थोड़े दिन उस से परेशानी होती, लेकिन लंबी लड़ाई लड़ने की उनकी ताक़त नहीं थी। ना ही उनके पास उतना धन था कि सेना और शस्त्र जुटाते।
लेकिन आज जो आंदोलन हम देख रहे हैं, सभी सशस्त्र हैं। आधुनिक महंगे हथियारों से लैस हैं। कहाँ से आता है ये धन? क्या इस आंदोलन से जुड़े लोगों के पास इतने पैसे हैं कि वो शस्त्र खरीद सकें? जो पुलिस मुठभेड़ में मरते हैं, उनकी आर्थिक स्थिति क्या होती है?
दरिद्र होते हैं, घर ठीक से चलाने को पैसे नहीं होते इनके पास। बंदूकें और गोलियां खरीदने पैसे कहाँ से आएंगे? क्या आप को पता है कि एक गोली 300 – 450 रूपए के बीच में आती है? और SLR या AK 47 – 56 कितने की आती है?
कुल मिलाकर एक आदमी अगर 30 गोलियों के 5 मैगज़ीन साथ ले कर चले तो गन के साथ मिलकर कम से कम डेढ़ लाख का समान साथ ले कर चलता है। जरा ट्रिगर दबा दे और 3-4 गोली चल गयी तो उतने पैसों में उसकी फैमिली उस क्षेत्र में हफ्ता भर से ज्यादा रोटी खा सकती है।
चलिये, मान भी लें कि उसे गुस्सा कितना भी हो जान न्योछावर करने का, अपने पैसों से ये हथियार खरीदने की उसकी स्थिति नहीं होती।
तो सवाल ये उठता है कि इसके लिए पैसे कौन लगाता है? साफ है कि ये वे लोग या तत्व हैं जिन्हें उस क्षेत्र को अशांत और अविकसित रखने में ही रुचि है। अगर जितना धन उन्होने ये अशांति बनाए रखने में लगाया है उतना अगर विकास में लगाया होता तो चित्र कुछ अलग होता। और इतना ही साफ ये भी है कि ये देशविरोधी तत्व हैं और वो जिस काम को तवज्जो दे रहे हैं वो कोई क्रांति नहीं, देशद्रोह है।
और एक पहलू है जिसको इस लेख द्वारा उजागर करना चाहता हूँ। वो है इनके sympathizers. ये वो पढ़े लिखे हाई प्रोफ़ाइल लोग हैं जो संभ्रांत समाज में ऐसे आंदोलनकर्ताओं का चित्रण क्रांतिकारी के रूप में करते हैं। उनके लिए सहानुभूति जुटाते हैं और स्थिति को नियंत्रण में लाने की सरकार के कोशिशों का मीडिया में अपप्रचार करते हैं। साधारणत: ये वामपंथी होते हैं और लश्कर ए मीडिया के साथ इनकी अच्छी नेटवर्किंग होती है।
आज ज़रूरत ये भी है कि इनको बे-नकाब कर के अच्छे से सुताई करनी होगी तो काफी राज़ खुलेंगे। ये जानते हैं ये क्या कर रहे हैं और लश्कर ए मीडिया भी उनका इस अपराध में बराबर का साथी है।
ये अक्सर अच्छे घरों से होते हैं और इसी बैकग्राउंड का फायदा उठाकर अपनी करतूतों को आदर्शवाद का चोला पहनाते हैं। वैसे वे अच्छे से जानते हैं कि उनके पूरी लाइफ़स्टाइल के स्पॉन्सर कौन होते हैं। क्या आप ने कभी इनको भारत के लिए या सरकारी उपक्रमों के लिए कभी दो अच्छे शब्द बोलते सुना है? ये दिखेंगे तो रोड़ा डालते हुए ही। पहचान लीजिये इन्हें अच्छी तरह।
नॉर्थ ईस्ट में मिशनरी इन देशद्रोहियों के साथ जुड़े पाये गए हैं। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र आदि राज्य में भी स्थिति अलग नहीं पायी जाएगी अगर ध्यान से देखा जाये।
मारे जाने वालों के गावों में जा कर उनकी धार्मिक बैकग्राउंड चेक करने से भी काफी कुछ सामने आएगा। और आना भी चाहिए। लश्कर ए मीडिया में न ही सही, सोशल मीडिया में तो इस ‘मिशन तोड़ो भारत’ का पर्दाफाश हो जाना चाहिए ताकि इनके सामने कदम उठाने को सरकार को बल मिले। माता रोम के ज़माने में तो इनकी ही सरकार थी, जो आंध्र में YSR ने चर्च की बम्पर फसल उगा दी।
पहलू दिखाते दिखाते थोड़ा सा diversion हुआ। मूल बात पर आते हैं। ख़र्चीले हथियार ही बताते हैं कि यह कोई जनमानस से जुड़े आंदोलन नहीं, बाहर के देशों से पोषित हत्यारे गुट हैं। और जो भी बाहर के देश के इशारे पर अपने देश में देश विरोधी हरकतों को हिंसक अंजाम दे रहा हो वो क्रांतिकारी नहीं, देशद्रोही ही है। अब सरकार भी भारतीय है तो इनकी जड़ें खोदने का यही सही वक़्त है।