शिकारी हमें चारों ओर से घेरे खड़ा है, और हमने काट रखे हैं अपने नाख़ून भी!

वैदिक काल में आस्था के पीछे एक चिंतन था। यूं तो वेदों की व्याख्या सनातन की तरह अनंत निरंतर हो सकती है, लेकिन एक विशेष दृष्टि से देखने पर वेद आस्था का शास्त्र कहे जा सकते हैं।

आर्य अपने उपयोग की हर चीज़ का विशेष ध्यान रखते थे, उसे हर सम्भव संभाल कर रखते, यही नहीं उसका सम्मान भी करते। ये सभी भाव इस तरह से प्रकट होते कि देखने वालों को इसमें देवत्व नज़र आता। देवत्व का यह भाव वैदिक संस्कृति में था भी।

और फिर जो जितना अधिक महत्वपूर्ण होता वो उतना महत्वपूर्ण देवता माना जाता, उसको उतना ही महत्व वेदों में दिया भी गया। सूर्य, पृथ्वी, अग्नि, वृष्टि, अन्न आदि आदि आदि, ये सभी देवता हैं।

सनानत समाज की एक विशेषता और रही है। जो कुछ शास्त्रों में है उसे आम जीवन में भी उतारा गया। बड़ी सरलता से। परम्परा बना कर। जिसे फिर संस्कृति कहा जा सकता है।

उपरोक्त देवताओं को वैदिक काल से पूजा जाता रहा है। आज भी यह हमारी परम्पराओं में है। किसी भी व्रत, पर्व, त्योहारों को ध्यान से देखने पर यह समझना कोई बहुत मुश्किल नहीं कि हम किस देवता का पूजन कर रहे हैं।

सिर्फ अगर हम भूले हैं तो यह कि हम अमुक अमुक पूजन किसलिए कर रहे हैं, इसकी अर्थपूर्ण जानकारी अब हमें नहीं। फिर भी हम जाने-अनजाने कम-ज़्यादा पूजन अब भी कर रहे हैं। फिर चाहे वो पीपल की पूजा हो या फिर माता गंगा की।

गौ माता का पूजन भी किसलिए महत्वपूर्ण रहा आया है यहां विस्तार में बताने की आवश्यकता नहीं। दीपावली में लक्ष्मी पूजन भी इसी परम्परा का एक हिस्सा रहा है। बनिया अपने बहीखाते की पूजा करता आया है।

ऋषि वेदों की पूजा करते थे और फिर माता गायत्री व माता सरस्वती के पूजन की परम्परा भी सभ्यता के प्रारम्भ से हैं, जो फिर आधुनिक काल के आते आते हम कलम की भी पूजा करने लगे।

हमारे देवता साकार हैं, साक्षात हैं, मानव जाति के लिए आवश्यक और उपयोगी हैं। और चूंकि ये पूज्य रहे हैं इसलिए कभी भी इनका उपभोग या दुरूपयोग नहीं हो पाया। यह जीवन दर्शन, किसी सभ्यता को कितना समृद्ध बना सकता है, उसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

और फिर इसे अन्य मज़हब, पंथ, सम्प्रदाय से तुलना की जा सकती है। और इस तुलना द्वारा अन्य मज़हब-सम्प्रदाय के दूरगामी दुष्परिणाम को भी देखा-समझा जा सकता है, जो आज मानव सभ्यता भोगने के लिए अभिशप्त है।

जबकि हिंदुत्व कभी भी मानव के लिए खतरा नहीं बना। हाँ, यह दीगर बात है कि चूंकि हम भी अपने पूजन के पीछे छिपे मूल भाव से अनजान होते जा रहे हैं तो पतन हमारा भी हो रहा है।

हमारे पतन का एक कारण और है, जो फिर हमारे सर्वनाश का कारण बन सकता है। वो है, हम एक देवता का पूजन करना बंद कर चुके हैं। यह क्यों और कैसे हुआ, यह अलग विषय है, मगर यह हमारी परम्परा से गायब हैं। और वो पूजन है, शस्त्र पूजा।

उपरोक्त प्रथम पैरा में दी गया देवताओं की सूची में धनुष और बाण भी आते रहे हैं। ऋग्वेद में धनुष-बाण को भी देवता माना गया है और इनका स्तुतिगान वैदिक काल में किया जाता रहा है। त्रेता और द्वापर में भी शस्त्र पूजन की व्यवस्था थी। यह जीवन पर्व का एक अभिन्न अंग था।

शस्त्र और शास्त्र, दोनों को पूज कर ही हम आर्य कहलाये। जिसे फिर कालांतर में सिर्फ क्षत्रियों तक सीमित कर दिया गया था। क्यों और कैसे हुआ से अधिक महत्वपूर्ण है, इसके कारण हम कमज़ोर होते चले गए, जिसकी अंतिम परिणति हमारी गुलामी में हुई।

बहरहाल, शस्त्र-पूजन की आदि परम्परा के अवशेष अब भी कहीं कहीं दिख जाएंगे। मगर ये अवशेष अब खंडहर की तरह हैं, जो किसी काम के नहीं रहे। इसे बहुत षड्यंत्रपूर्वक हमारे जीवन से दूर किया गया। कभी अहिंसा के नाम पर कभी सहिष्णुता के नाम पर।

हम यह भी भूल गए कि प्रकृति ने भी सभी जीव को कोई ना कोई शारीरिक क्षमता या गुण दे रखा है, अपनी सुरक्षा के लिए। यह प्राकृतिक व्यवस्था है। और हम इस प्रकृति के जीवन सिद्धांत को ही भूल बैठे।

शिकारी हमें चारों ओर से घेरे खड़ा है और हमने अपने नाख़ून भी काट रखे हैं। ऐसे में क्या होगा, क्या बताने की आवश्यकता रह जाती है?

भये प्रगट कृपाला

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