प्रधानमंत्री मोदी ने 1 सितम्बर, 2014 को कहा था कि “मैं गुजराती हूँ, मेरे ख़ून में व्यापार है।”
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा था कि शासकों और व्यापारियों के बीच अगर तालमेल बेहतर हो तो अर्थव्यवस्था को ऊंचाई छूने से कोई नहीं रोक सकता है।
व्यावसायिक सुगमता अर्थात ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस के नवीनतम सूचकांक आ गए हैं और भारत ने चार वर्षों में ही 142वें से 77वें पायदान तक का सफ़र तय किया है।
सिद्ध होता है कि व्यवसाय-व्यापार को सुगम बनाने की बातें चुनावी जुमला कत्तई नहीं थीं। गौरतलब है कि यूपीए सरकारों के दस वर्षीय दौर में हमने व्यवस्था और व्यापार को सिर्फ़ चोर-लुटेरों के लिए सुगम होते देखा था।
व्यवसाय ही मूल है, अर्थव्यवस्था ही सच्चाई है, बगैर आर्थिकी के कोई भी स्वतन्त्र राष्ट्र-राज्य का अस्तित्व होता ही नहीं है इसीलिए मुस्लिम हमलावरों और अंग्रेज़ों ने सबसे पहले इस महादेश की आर्थिक व्यवस्था पर कब्ज़ा किया और हिन्दू समाज को यथासंभव दरिद्र बनाया।
नेहरू की काँग्रेस तो दो कदम आगे निकल गई।
लक्ष्मी पूजने वाले नागरिकों में समाजवाद का ज़हर सींचा, और इस दरिद्रता के दर्शनशास्त्र को भारतवर्ष में संवैधानिक रूप से रोप दिया।
आप देखेंगे कि आज़ादी के बाद से नेहरू-गाँधी राजवंश के शासन काल अर्थात 1947 से 1989 तक इतिहास के सबसे ग़रीब भारतवर्ष के काल हैं।
1991 से 2004 तक जो सुधरा वह 2004 से 2014 तक धुल चुका था। अब आस फिर से बंधी है।
व्यवसाय की सुगमता ही यह तय करेगी कि व्यापार चलता रहे, चलता रहेगा तो ही टैक्स मिलेंगे, तो ही रोज़गार उपजेंगे, तो ही कुछ ज़रूरतमंद लोगों को सब्सिडी मिल सकेगी।
व्यवसाय नष्ट होगा तो समाजवाद बचा नहीं पायेगा, और समाजवादी सबसे पहले देश छोड़कर भाग जाने हैं।
ऐसे में व्यवसाय/ व्यापार और आर्थिकी को समझने वाले पर दाँव लगाना ही समझदारी है क्योंकि हार्डवर्क करने वाला सत्यनिष्ठ प्रधानसेवक हार्वर्ड वाले लुटेरों से बेहतर है।
यह बात अब आँकड़ों में भी सिद्ध है।
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