आड़ा बाज़ार : बछड़े को खोकर भी गौमाता ने बचाई मारनेवाले की जान

किसी चीज़ को छुपाने का सबसे आसान तरीका होता है उसे बिलकुल खुले में सबके सामने रख देना। ऐसा मेरा मानना है कि बिलकुल आँखों के सामने पड़ी चीज़ पर लोग ध्यान नहीं देते।

आप इससे सहमत नहीं भी हो सकते हैं। इसपर मेरा ध्यान कुछ दिन पहले दोबारा गया। शायद कभी पिछले साल पटना में हेरिटेज वाक शुरू किया गया था। जैसा बाकी सरकारी परियोजनाओं में होता है, वैसा ही ये थोड़े समय बाद बंद भी हो गया।

इस साल जब (India Heritage Walks द्वारा) इसे दोबारा शुरू किया गया, तो हमने पाया कि इसमें आने वाले लोगों की एक अजीब सी प्रतिक्रिया आती। कई लोग बताते कि वो इन जगहों से गुजरे तो कई बार हैं, मगर उन्होंने ऐसे कभी इन्हें देखा ही नहीं था!

दर्जनों बार पटना रेलवे स्टेशन से गुजर चुके लोगों को पता नहीं था कि ये मंदिर कोई 25, 50 या सौ साल पुराना नहीं, बल्कि दो सौ साल से अधिक पुराना है। गाँधी मैदान की मूर्ति दुनिया की सबसे ऊँची गांधी प्रतिमा है, या ये सामने ही मौजूद गांधी संग्रहालय में रखे एक शिल्प की नक़ल पर बनाई गई है, ये कई युवा नहीं जानते थे।

दरभंगा हाउस में पढ़ाई कर चुके लोगों ने उसकी छत या उसका तहखाना नहीं देखा था। ये आँखों के सामने रखी चीज़ नहीं दिखती का विचार हमें बरसों पहले एक थोड़े वरिष्ठ सहकर्मी ने सुझाया था। उस समय हम लोग इंदौर में किसी सर्वेक्षण के सिलसिले में थे, जहाँ एक आड़ा बाजार है। हम लोगों ने पूछा ये अजीब नाम क्यों?

जिस स्थानीय व्यक्ति से पूछा था, उन्हें भी नहीं पता था। मगर उन्होंने पूछ-ताछ करके इस बारे में मालूम करने की बात कही और मामला आया-गया हो गया। मेरे दिमाग में सवाल अटका पड़ा रहा। बिहारी की हिन्दी के हिसाब से बाजार अगर टेढ़ा होता तो उसे आड़ा कहना समझ में आता।

“टंग अड़ाना” जैसी कहावतों वाला रोकना या अड़ जाना भी मतलब हो सकता था। आखिर कैसे ये बाजार लोगों को रोक लेगा, या टेढ़ा है, क्यों आड़ा नाम होगा? इस सवाल का जवाब हमें कुछ साल बाद कहीं और मिला। किसी दौर में इंदौर होल्कर मराठा शासकों की राजधानी हुआ करता था और राजमाता अहिल्याबाई होल्कर वहीँ पास में रहती थीं।

उनके बनवाए मंदिर अब भी उस इलाके में हैं। इस्लामिक हमलों में भग्न, उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक के करीब करीब सभी मंदिरों के जीर्णोद्धार का श्रेय राजमाता अहिल्याबाई को जाता है।

कहते हैं एक रोज उनके पुत्र मालोजी राव का रथ इस रास्ते से निकल रहा था और हाल ही में जन्मा एक बछड़ा उनके रथ के आगे आ गया। रथ रुका नहीं और टक्कर से बछड़े की मृत्यु हो गई। गाय वहीँ मृत बछड़े के पास बैठी थी कि वहां से राजमाता अहिल्याबाई का रथ गुजरा। उन्होंने रथ रोककर पूछताछ की कि ये क्या हुआ है? पूरी बात मालूम करके वो दरबार में पहुंची और मालोजी राव की पत्नी मेनाबाई से पूछा कि माँ के सामने ही बेटे को मार देने वाले की क्या सजा होनी चाहिए?

मेनाबाई बोली, उसे तो प्राण दंड मिलना चाहिए। राजमाता अहिल्याबाई ने मालोजीराव के हाथ पैर बांधकर, जहाँ बछड़ा मरा था वहीँ डालने का आदेश दिया और कहा कि इसपर रथ चढ़ा दो! अब राजमाता ने बछड़े जैसा ही रथ की टक्कर से मारने का दंड तो दे दिया लेकिन कोई सारथी रथ चलाने को तैयार नहीं था। आख़िरकार राजमाता खुद ही रथ चलाने रथ में सवार हो गयी।

राजमाता को रथ बढ़ाते ही रोकना पड़ गया, क्योंकि मालोजी को बचाने एक गाय बीच में आ गयी थी। राजमाता रथ बढ़ाती कि वही गाय फिर रथ के सामने आकर खड़ी हो जाती जिसका बछड़ा मलोजीराव के रथ से मारा गया था। बार-बार हटाये जाने पर भी गाय ने अड़कर मलोजीराव को बचा लिया।

अपना बछड़ा खोकर भी उसे मारने वाले की जान बचाने पर अड़ जाने वाली इस गाय की वजह से इंदौर के इस बाजार का नाम “आड़ा बाजार” है। ये ग्राहकों को अड़कर नहीं रोकता, ये आड़ा-तिरछा भी नहीं। मुझे पता नहीं इंदौर के कितने लोग इस कहानी से वाकिफ़ होंगे। आँख के सामने पड़ी चीज़ें अक्सर नजरों से ओझल हो ही जाती हैं।

इतिहास के पन्नों से : Marichjhapi Massacre

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