क्या आप जानते हैं कि साम्यवादी विचारक वहीं पनपते हैं जहाँ कायर कौमों की कमी नहीं होती है? और इस कायरता का अभिजात्य स्वरूप है सेक्यूलरिज़्म।
यह अभिजात्य चेष्टा जन्मजात नहीं होती है। यह फितरत कॉलेज की उपज है जिसके बारे में अकबर इलाहाबादी ने लिखा था कि –
हम हर ऐसी किताबें काबिल ए ज़ब्ती समझते हैं
जिन्हें पढ़कर ये बच्चे बाप को खब्ती समझते हैं।
और हर कायर कौम का धर्म इन नवोदित बौद्धिक मुक्केबाजों का पंचिग बैग है, जो इन पंचों के प्रपंच पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करने की हिम्मत नहीं रखते और बहाने बड़े उदात्त बनाते है जैसे मानवता सबसे बड़ा धर्म, धार्मिक मान्यताएँ दकियानूसी परंपरा और गँवारपना आदि आदि।
कभी आपने इन साम्यवादी बुद्धिजीवियों को इस्लाम, ईसाइयत, यहूदी, शिन्टो, बौद्ध, जैन, सिख या पारसी धर्म की कुरीतियों, कुप्रथाओं और रूढ़ियों के खिलाफ बोलते सुना है?
अगर हाँ, तो बताएँ कि कब, कहाँ और कैसे।
पर मैं जानता हूँ आप हाँ कह नहीं पाएँगे। कभी अंग्रेजी में ब्लासफेमी शब्द सुना है, इसका अर्थ है ईश निंदा। ये हर नये धर्म में अलग अलग नाम से पाया जाता है। मंसूर, ईसा मसीह, हजरत मुहम्मद या बौद्ध और जैन भी ईर्ष्या और नफरत की वजह से ईश निंदा का शिकार हुए हैं।
मर्चेंट ऑफ़ वेनिस में यहूदियों से नफरत ईसाइयत के विश्व बंधुत्व को बताने के लिए काफी है। येरूशलम में तीन तीन धर्मों का नाभिनाल गड़ा हुआ है पर इक्के दुक्के पाश्चात्य प्रगतिशील धर्मावलंबियों की भी हिम्मत नहीं कि ईसा के जन्म स्थान को देख लें, अगर इजरायल की सम्मति न हो तो।
वैटिकन का डर इतना है कि अब्बा के दबदबे के चलते complaint of nun को complaint of none बना दिया गया वह भी उस देश में जिसके संविधान में उसकी भी घोर आस्था है जो उस देश के टुकड़े होने के नारे लगाता है।
इस्लामाबाद हो या मैकलुस्कीगंज, गोल्डिनगंज हो या अमीनाबाद, फैज़ाबाद या कुछ और… सन 600 ईस्वी से पहले क्या ये नाम रहे होंगे? इलाहाबाद का मूल शब्द इलाही, हजरत मुहम्मद के बाद ही अस्तित्व में आया होगा पर गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी तो सतयुग के समुद्र मंथन से भी प्राचीन है। अब आप सभी प्रगतिशील साम्यवादी सनातनी लोग बताइए कि समुद्र मंथन के समय इलाहाबाद के नामकरण की संभावना ज्यादा होगी या प्रयाग की?
बारह बरसों पर आयोजित कुंभ का इतिहास तो ब्रह्मा और वैवश्वत मनु के समय से प्रमाणित है। हाँ, पुराणों और उपनिषदों को सत्यता स्थापना के लिए नव प्रगतिशीलों के सत्यापन की ज़रूरत नहीं है।
कलकत्ता या कोलकाता, मद्रास या चेन्नई, उदकमंडलम या ऊटी, बर्मा या म्यांमार, गोल्ड कोस्ट या घाना, रोडेशिया या जिम्बाब्वे और जाम्बिया, लेनिनग्राद या सेंट पीटर्सबर्ग… लिस्ट लंबी है हाथरस से महामायानगर और कासगंज से कांसीराम नगर तक। और तो और गांधार प्रदेश जब भी भीष्म गये होंगे तो क्या उस समय अफगानिस्तान नाम रहा होगा?
पर समस्या तब होती है जब कोई खट्टर गुड़गांव को गुरुग्राम करके आपकी वर्तनी तो सुधारता ही है साथ साथ द्वापर युगीन गुरु द्रोण के आश्रम की गरिमा भी स्थापित करता है और कोई योगी प्रयाग की सतयुगी आभा को जब इलाहाबाद के साथ नेम स्वैप करता है।
अचानक कब्र में छटपटाती अकबर इलाहाबादी की रूह काँप उठती है कि नेम चेंजर गेम कहीं मेरा आधार कार्ड बर्बाद न कर दे, पर वहीं वे इस बात पर गौर नहीं फरमा पाए कि काका हाथरसी अपना नाम काका महामायानगरवी रखेंगे क्या।
गज़ब तमाशा यह है कि उनके दामाद अशोक चक्रधर को भी इसकी फिक्र नहीं जबकि प्रयाग के पुनर्नामकरण के मुद्दे पर वो सेकुलर साम्यवादी भी टोटल सियापा कर रहे हैं जो सेंट पीटर्सबर्ग के लेनिनग्राद नामकरण पर हर्षित थे और वहाँ साम्यवाद की तेरहवीं के अवसर पर लेनिन की मूर्ति गिरने पर स्तब्ध, लगभग उसी प्रकार जैसे नोटबंदी पर राहुल-अखिलेश की टीम और पेट्रोल की कीमत सुनकर मोदी प्रेमी।
आप कह सकते हैं कि नाम में क्या रखा है। सच है पर हाल तो अल्फ्रेड पार्क, रेसकोर्स, वाइस रीगल लॉज नाम रहने पर भी वैसा ही था जो आज है फिर बदलाव क्यों?
दरअसल परिवर्तन से परहेज़ नहीं है इन मैकॉले, मार्क्स, लेनिन, एंजेल्स, माओ, चे गुवेरा के अवैध रिश्तेदारों को, समस्या है हिंदुत्व समर्थक नेतृत्व के निर्णय लेने से, वरना अब तक तथाकथित छद्म सनातनी ही ये काम करते थे, उड़ीसा से ओडिसा, बंबई से मुंबई, मद्रास से चेन्नई, हाथरस और कासगंज के नये नाम इन्हीं सनातन चर्मावृत अ-जीव प्रगतिवादियों द्वारा हुए हैं।
इसका कारण है हिंदू समाज की आत्ममुग्धता, अवसरवादिता, धर्म के मामले में सुविधाभोगी प्रवृत्ति।
इस्लाम के समर्थक अपने हर फ़र्ज़ को क़र्ज़ मानते है और फ़र्ज़ की अदायगी क़र्ज़ चुकाने की तरह ज़रूरी मानते हैं, फिर चाहे रोज़ा हो, नमाज़ या ज़कात।
पर ये भेड़चाल सनातनी पुरुष मंगलवार को फल खाकर व्रत करते हैं पर एकादशी का व्रत जानते भी नहीं और स्त्रियाँ प्रगतिशील मोर्चा के साथ मिलकर सिंगणापुर और सबरीमला में दर्शन के लिए संघर्षरत रहती हैं, भले ही पड़ोस के मंदिर में कभी एक दिया न जलाया हो और घर की कुलदेवी का नाम आजतक सास से पूछा न हो।
यही सुविधाभोगी हिंदुओं की भीड़ हिंदू समाज को उसके अतीत से नफरत करना सिखा रही है, वामपंथी इस यज्ञ के पौरोहित्य का दायित्व निभा रहे हैं और केरल को केरलम् का नया नाम देने का प्रस्ताव ला सकते हैं और त्रिपुरा व बंगाल को बिसरा चुके हैं।
इसी शुतुरमुर्ग सरीखी सोच की वजह से आज सुप्रीम कोर्ट के मी लॉर्ड दीवाली के पटाखे फोड़ने का दो घंटे का मुहूर्त चस्पा कर रहे हैं, पर बकरीद की कुर्बानी के बहते खून की पवित्रता पर मुग्ध हैं, जबकि नये साल के पटाखे, शादी के पटाखे पर वैसी प्रतिक्रिया नहीं सुना रहे… और कारण है सनातनियों की कायरता।
वह दिन दूर नहीं जब प्रदूषण के मद्देनज़र गंगास्नान कोर्ट द्वारा अवैध घोषित किया जाएगा और शायद शवदाह के लिए ग्रीन ट्राइब्यूनल की स्वीकृति अनिवार्य होगी।
दुर्गा पूजा उत्सव कानून की भेंट चढ़ गया है, जलविहीन होली का आह्वान सब कर चुके हैं, पटाखे बैन होने की कगार पर हैं, अखबारों में गमले में गणेश विसर्जन का डेमो दिया जा रहा है, केले का गणेश बनाकर और उन्हें पका कर बच्चों में प्रसाद बांटने का चित्र प्रसारित प्रचारित हो रहा है…
पर ध्यान दीजिए आलू का ऊँट बनाकर कुर्बानी देने की सलाह नहीं आ रही, संथारा के समर्थन पर रोक नहीं है, चर्च में एलईडी बल्ब वाली मोमबत्तियाँ जलाकर कार्बन डाई आक्साइड रोकने की सलाह नहीं सूझ रही… किसी न्यायाधीश को, आखिर क्यूँ? जवाब एक है… हिंदू समाज की बौद्धिक, दैहिक और आध्यात्मिक कायरता।
बस उस दिन का इंतजार करिये मनु के वंशजों! जब कोर्ट का आदेश आएगा कि अपने घर के बुजुर्गों की मृत देह जलाकर पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाएँ बल्कि उनके कंकाल सुरक्षित रखकर अपने बच्चों को एनाटामी पढाएँ, डाक्टर बनाएँ।