यह शहर कूड़ाघर है..

दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में कचरे की पर्वतमालाएं उग रही हैं। ये पर्वतमालाएं निरंतर ऊंची और लंबी हो रही हैं।

पिछले साल गाज़ीपुर के पास गंध की गगनचुंबी चोटी का एक सिरा ढह कर सड़क पर आ गिरा था, दो तीन कार सवार उसमें दब गए, एक-आध यमुना के नाले में उछाल दिए गए।

अद्भुत है.. कि देश की राजधानी में कचरे के पहाड़ उठ रहे हैं। खैर..! क्या फर्क पड़ता है, गंदगी के साथ रहने में हमारी गिनती नहीं है !! क्या मज़ाल कि कोई आसपास भी फटक जाय…!

हम जहां खा रहे या पी रहे होते हैं, उससे दो कदम दूर ही मूत्रत्याग भी कर देते हैं। यकीन न हो तो नोएडा फिल्मसिटी आ जाइये किसी शाम। आपको शरद ऋतु की शोभायमान रात में निरभ्र आकाश तले विहार कराता हूं। और यत्-तत्र सर्वत्र पाए जाने वाले सोमरसार्थियों से मिलवा देता हूं। आप देख सकेंगे कि गले से नीचे उतारने के बाद वे कैसे गरगरा भी देते हैं।

अभी पढ़ा कि द्वारका इलाके में पन्नियों की पर्वतमाला उठ रही है, कचरे का कांचनार… गंध की अट्टालिकाएं… बू के वन! वहां आग लगा दी जाती है और द्वारका का दम घुट जाता है। भलस्वा में कूड़े के ढेर को धुआं कर डाला गया, लोगों के फेफड़े फुंक गए। पंजाब में पिराली जला दी जाती है तो दिल्ली कह उठती है, दिल के जां से उठता है, ये धुआं सा कहां से उठता है..!

प्रधानमंत्री ने करबद्ध प्रार्थना की थी कि धरती मां की पपड़ी को आग के हवाले मत कीजिए लेकिन कौन जतन करे, कौन दूसरे विकल्पों की तलाश करे। फसल काट ली तो अब भस्म भी कर ही डालें!!

दिल्ली का मयूर विहार आज से दस साल पहले तक साफ सुथरा हुआ करता था। यानी… रहते थे जहां मुतखब ही रोज़गार के…!! पर अब वहां पर्याप्त गंदगी है। आप किसी भी सड़क से गुज़र जाइये, हर कूड़ाघऱ के पास कूड़े का विस्तार आधी सड़क तक मिलेगा। वहां गौ माताएं जुगाली करती हुईं पाई जाती हैं और कुत्ते किलोल करते हैं। आदमी जब निकलता है तो पच्चीस फीट पहले ही नाक दबा लेता है। कूड़ा दिनों तक पड़ा रहता है। लोग चलते हैं तो पाँव से लेथरन फैलती है, कूड़ा सड़क के सुदूर इलाकों तक पसर जाता है।

दिल्ली से लगने वाले हर सीमाई इलाके का दौरा कर देख लीजिए। सड़क किनारे आपको दारू की टूटी, साबुत बोतलें, प्लास्टिक के ग्लास, नमकीन की पन्नियां ही नजर आएंगी। अच्छी भली सड़क के किनारे, फ्लाईओवर और पुल के नीचे सरकार हरियाली बिछाती है हम कूड़ा फेंकते हैं। चलती हुई कार से कोक की बोतलें, कैन सनसनाती हुई सड़क पर गिर जाती है.. कई बार आपकी खोपड़ी पर भी लग जाय तो बड़ी बात नहीं। खा लिया फेंक दिया। पी ली… बहा दिया।

पर्यावरण और स्वच्छता के प्रति इतनी लापरवाही हैरत में डाल देती है। मैं यह सोचता हूं कि आखिर हम चाहते क्या हैं। खा पीकर खखार फेंक दिया और चलते बने। अपना घर साफ़ रहे, सारी गंध बाहर बुहार दी जाय। गंदगी बिखेरने में उत्तर भारत का मुकाबला नहीं है। हम निर्विकार भाव से कचरा फेंकते हैं। और ऐसे ही क्षणों में मेरी नायपॉल से सहमति हो जाती है कि इंडिया इज़ ए वास्ट टॉयलेट!

विंध्य पर्वतीय प्रदेश के कुछ एक शहरों और विंध्य के पार इतनी गंदगी और लापरवाही नहीं है। यहां तो विचित्र स्थिति है। ट्रेन से यात्रा करते हुए दिल्ली में प्रवेश कीजिए, आपको लगेगा किसी सड़ांध में घुस रहे हैं। ट्रैक के दोनों पर गंध की आश्चर्यजनक तारतम्यता है। गाजिय़ाबाद से यहां तक सिर्फ गंध ही गंध। कचरे ही कचरे। ले लो जितना लेना हो। देखो तो सही, तुम देश की राजधानी दिल्ली में घुस रहे हो…

स्वच्छता अभियान से जागरुकता तो आई है लेकिन इधर कम दीख पड़ती है। इधर फिलहाल कुंभकर्णी काल चल रहा है। न जाने कब नींद टूटे…

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