हम सब लोग चाणक्य नीति की बात बहुत करते हैं, लेकिन उसको समग्रता में या तो समझते नहीं है या फिर उसकी आवश्यकता नहीं समझते हैं।
नरेंद्र मोदी जी को जितना मैंने पिछले एक दशक में पढ़ा व समझा है उसके आधार पर यह कह सकता हूँ कि उन्होंने न सिर्फ चाणक्य का अर्थशास्त्र व नीतिशास्त्र पढ़ रखा है बल्कि उसका अनुसरण भी कर रहे हैं।
मेरा तो यह भी मानना है कि उन्होंने (शायद अजित डोभाल के प्रभाव में) चीन के प्रसिद्ध युद्धशास्त्री व सेनापति की ‘आर्ट ऑफ वार’ को भी पढ़ा है। मुझ को यह सब उनकी विदेश नीति व कूटनीति से परिलक्षित होता है।
हम भारतीय इतने लंबे समय से गुलाम रहे हैं कि हमारी अपनी ही सोच कुंद हो गयी है। हम आज भी भारत में बदलाव को औपनिवेशिक मानसिकता से देखते व समझते हैं। इसी का प्रभाव यह है कि वैश्विक जगत में राष्ट्रों से बनते बिगड़ते रिश्तों की धार को हम अपनी दैनिक ज़रूरत के हिसाब से तौलने की भूल करते है। लेकिन मोदी जानते हैं कि राष्ट्र ऐसे नहीं बनते हैं।
मोदी ने एक साथ चीन, रूस और अमेरिका को साधने का प्रयास किया है। चीन, जिसको अधिकांश राष्ट्रवादी शत्रु मानते हैं, मोदी ने आगे बढ़कर उससे भी दोस्ती की है और बहुतों को उनकी यह नीति पसन्द नहीं आई है। लेकिन चाणक्य ने नीतिशास्त्र में कहा है कि ‘अपने शत्रु से कभी घृणा नहीं करनी चाहिये क्योंकि घृणा तार्किक सोच और विश्लेषण की क्षमता को नष्ट कर देती है। इसलिये शत्रु से प्रेम करना चाहिये क्योंकि वह आपको अपने शत्रु को अच्छी तरह से समझने का अवसर देता है।’
मैं समझता हूँ मोदी के चीन के साथ वार्ता का जो क्रम है उसका आधार यही है।
जब से मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तब से उनके समर्थकों की उनसे यह बड़ी प्रबल आशा थी कि वे पाकिस्तान से युद्ध कर के उसे धूल चटा देंगे व जब भी चीन, भारत की सीमा पर घुसपैठ करेगा तो उसको मुंहतोड़ जवाब देंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इससे एक बहुत बड़ा वर्ग मोदी से नाराज़ भी है।
चाणक्य ने युद्ध पर जाने से पहले राजा को चेतावनी दी है कि, ‘राजा के लिये युद्ध महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण युद्ध जीतना है। यह जीत तीन स्तंभों, सेना, शासन तंत्र व जनता के आधार पर खड़ी होती है। जब तक यह तीन स्तंभ युद्ध काल की विभीषिका का समर्थन करने को तैयार नहीं है तब तक राजा को युद्ध से दूर रहना चाहिये।’
मोदी जब 2014 में भारत के प्रधानमंत्री बने थे उस वक्त उनको भारत की जो सेना मिली थी, वो न सिर्फ युद्ध सामग्री से अभावग्रस्त व संसाधनों से लचर थी बल्कि पूर्व में मिले राजनीतिक नेतृत्व की रक्षात्मक नीति व मानसिकता से ग्रसित थी।
उन्हें जो प्रशासन मिला था वह विरासत में 70 वर्ष की विदेश व रक्षा नीति का बोझा उठाये मिला था, जिसमें चंद वर्षो में आमूलचूल मूलभूत परिवर्तन हो जाने की शायद उन्हें आशा नहीं थी।
आखिरी में जनता, जो भावना प्रधान तो है लेकिन शताब्दियों की जड़ता ने उसे स्वःस्फुरित स्वार्थ, त्याग व कष्टों को ओढ़ने की मानसिकता से विह्वल कर रखा है। यह तीनों युद्ध के आधार, चाणक्य के मानकों को पूरा नहीं करते है।
यदि हम तटस्थ होकर, मई 2014 में सेना की इन्वेंट्री देखें तो उसके पास न सिर्फ 7 दिन से ज्यादा का गोला बारूद ही नहीं था, बल्कि आधुनिक सैन्य साजोसमान भी नहीं थे। यह सब वो सामग्री है जो भारत में न बनते थे और न ही तुरन्त सैन्य बाज़ार से खरीदे जा सकते थे। इसी लिये मोदी सरकार ने अपनी सेना को आधुनिक बनाने व भविष्य की आवश्यकताओं को देखते हुये जो कुछ पिछले 4 वर्षों खरीद फरोख्त व अनुबंध किये हैं, वो सबके सामने हैं।
अब आते है मोदी सरकार को विरासत में मिले शासन तंत्र पर जो पिछले 70 वर्षों की शासन व्यवस्था में पैदा व फला फूला था। ऐसी अवस्था में उनका रातों रात बदल जाना व नये शासक की पूर्व की 180 कोण बदली हुई नीतियों को आत्मसात कर लेना एक आदर्श स्थिति होती, लेकिन यहां पर मुझे लगता है मोदी असफल हुए हैं। जिन भी कारणों से उन्होंने तंत्र में बिना ज्यादा बदलाव किये शासन की नीतियों को परिणाम में बदलने की आशा रखी थी, वो निश्चित रूप से आशानुसार नहीं हुआ है। आज भी यह तन्त्र युद्धकालीन क्या, आपातकालीन स्थिति को भी सफलतापूर्वक परिणाम देने वाला नहीं बना है।
आखिरी में जनता पर आता हूँ। मोदी जिस जनता के प्रधानमंत्री है उस जनता का एक बड़ा वर्ग न सिर्फ मोदी विरोध के अवसाद से ग्रस्त है बल्कि उसमें से कुछ तो खुले आम राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल हैं लेकिन उनको भी वोट द्वारा, जनता से ही समर्थन प्राप्त है। साथ में उनके खुद के समर्थकों में से एक बड़ा वर्ग अपने स्वार्थों से आगे देखने में ही असमर्थ है। ऐसे में, कोई भी आक्रामक नीति, किसी भी शासक के खुद के अस्तित्व को समाप्त करने के लिये काफी है। युद्ध, जनता को कष्ट देता है और मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि आज की भारत की जनता 30-40 साल पुरानी वाली जनता नहीं है।
अब आता हूँ मोदी की विदेश नीति में समाहित कूटनीति पर, जिसने मुझे ही नहीं बल्कि विश्व भर में वैश्विक कूटनीति के विशेषज्ञों को भी प्रभावित किया है। मोदी ने वैश्विक बदलते समीकरणों और उसमें अपनी, शक्ति व कमज़ोरियों का आंकलन करते हुये जो जगह बनाई है, वह अद्भुत है। उन्होंने एक तरफ स्वतंत्रता के बाद से पहली बार अमेरिका के साथ सामरिक गठजोड़ किया व दूसरी तरफ चीन, जो विश्व की द्वितीय सबसे बड़ी आर्थिक व सैन्यशक्ति के साथ भारत की संप्रभुता के लिये खतरा है, उससे पारस्परिक आर्थिक हितों का आदान प्रदान व उसके साथ ही अमेरिकी प्रभाव के अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के सापेक्ष ब्रिक्स (BRICS) को प्रभावी किया है। इतना ही नही, अमेरिका के शत्रु ईरान से, अमेरिका की नाराज़गी के बाद भी तेल लेना व रूस से S-400 के लिये अनुबंध करना बहुत कुछ कह जाता है।
मुझे इसमें भी चाणक्य की एक नीति का योगदान लगता है। चाणक्य ने राजा को सलाह देते हुये लिखा है कि, ‘यदि शत्रु प्रबल है तो उसको या तो अन्य राजाओं व प्रभावशाली व्यक्तित्वों के अभिमत से कमज़ोर करो या फिर जासूसों व प्रोपेगंडा का उपयोग कर कमज़ोर करो।’
मोदी ने चीन जैसे प्रबल शत्रु, जो भारत को 1962 में बुरी तरह हरा कर 3 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्ज़ा कर चुका है और आज भी अरुणाचल व लद्दाख पर दावा कर रहा है, उसको संतुलित करने के लिये इसी का प्रयोग किया है।
मेरा मानना है कि मोदी सरकार का अमेरिका से सामरिक गठबंधन करना जितना अमेरिका के हितों की रक्षा के लिये नहीं, उससे ज्यादा भारत के हितों के लिये किया गया फैसला है। पूरे हिन्द महासागर में 2014 तक जिस तरह चीन ने भारत को बांध कर रखा था उसको तुरन्त ढीला करके, खुद स्थापित होने के लिये यह एक आवश्यकता थी।
आज 2018 में यह स्पष्ट दिख रहा है कि भारत पर हिन्द महासागर से बढ़ता चीनी दबाव कम हो चुका है। इसी के सापेक्ष रूस से, जिसके साथ भारत के सबंध सोवियत रूस के टूटने के बाद ठंडे थे और मोदी सरकार की रूसी सैन्य सामानों पर आत्मनिर्भरता समाप्त करने की नीति से सबंध सामान्य नहीं थे, वहां भी अभी 10 बिलियन डॉलर के अनुबंधों को करके रूस को भी भारतीय हितों से जोड़ दिया है। यह चीन की विस्तारवादी नीति के लिये कोई अच्छा समाचार नहीं है। चीन पर यह भारत का रूसी दबाव है जो बिना वैमनस्य को बनाये रखा गया है।
मेरे लिये नरेंद्र मोदी का फिर से प्रधानमंत्री बनना, भारत की संप्रभुता लिये एक महती आवश्यकता है।