हिंदी साहित्य में भक्तिकाल के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है, मगर क्या इस ओर ध्यान गया कि भारत भूखंड में भक्तिकाल और मुग़लकाल एक ही कालखंड है।
और यह कोई अकारण नहीं। ना ही यह संयोगवश हुआ है।
कहते हैं कि मुग़ल काल में हिन्दुओं के लिए सत्ता का विरोध और आलोचना असंभव थी। ऐसे में भक्तिमार्ग एकमात्र विकल्प था। अपना आक्रोश प्रकट करने के लिए ही नहीं बल्कि दुखों से उबरने के लिए भी।
तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की। जन जन इस अखंड पाठ को गाने के लिए गांव गांव में एकत्रित होता। जहां वो अपने आराध्य श्रीराम की भक्ति में डूबकर नई ऊर्जा पाता। यही ऊर्जा उसे सहने की शक्ति देती और आगे बढ़ने की प्रेरणा भी। कृष्णमार्गी भी श्रीकृष्ण की आराधना से शक्ति अर्जित करते।
मुझे यकीन है कि इस दृष्टि से भी भक्तिकाल पर शोध हुए होंगे, लेकिन इस को अधिक प्रचलित नहीं किया गया। संक्षिप्त में कहना हो तो कह सकते हैं कि सिर्फ राम और कृष्ण, दोनों महामानव ही नहीं, बल्कि सभी हिन्दू देवी-देवता आम हिन्दू की ऊर्जा और एकता के स्रोत थे।
यही कारण है जो इनसे संबंधित स्थलों पर मुगलों ने सर्वाधिक प्रहार किया, चाहे फिर वो अयोध्या हो या फिर मथुरा-वृंदावन। संगम पर तो इलाहाबाद ही बसा दिया गया।
यही प्रयोग तिलक ने गणेश उत्सव के द्वारा सफलतापूर्वक किया था। महाराष्ट्र आज भी इस महान पर्व पर सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से एकजुट हो जाता है।
ऐसे ही अनगिनत प्रयोजन पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण में होते रहे हैं। इन धार्मिक उत्सव और सांस्कृतिक पर्वों ने ही हमें जिन्दा रखा और हम एक राष्ट्र के रूप में आपस में बंधे भी रहे और एकसाथ खड़े भी रहे।
भारत एकजुट रहे यह विश्व की राजनीतिक शक्तियों को पसंद नहीं, हिन्दू एकजुट रहे यह शक्तिशाली धर्मपरिवर्तन गिरोह को पसंद नहीं। हमें यह पता हो ना हो मगर अन्य सबको यह पता है कि जब तक भारत एकजुट है, हिन्दू एकजुट है और जब तक हिन्दू एकजुट है, तब तक भारत एकजुट है। इसलिए ब्रेकिंग इंडिया फोर्सेज़ दोनों पर काम कर रही हैं।
राजनीति में घुसपैठ तो स्वतंत्रता संग्राम से की गई लेकिन संस्कृति और धर्म के क्षेत्र पर आक्रमण आज़ादी के बाद अधिक प्रभावशाली ढंग से किया गया। सिनेमा में किस किस को प्लांट किया गया, कुछ कुछ तो समझ आते हैं कुछ एक का पता ही नहीं चलता। मीडिया और साहित्य में यह बहुत सुनियोजित ढंग से किया गया।
इन सभी क्षेत्रों में अब ये बहुत ताकतवर हो चुके हैं। और खुलकर खेलते हैं। इसका एकमात्र कारण है इनका एकजुट होना। कह सकते हैं कि ब्रेकिंग इण्डिया वाले मेकिंग इंडिया वालों से अधिक संगठित भी है और आक्रामक भी। धूर्त तो वो हमसे अधिक हैं ही। इन्हे क्या करना है कहाँ प्रहार करना है, पता होता है। या कह सकते है कि इसी बात के इनको पैसे मिलते हैं।
एकबार फिर यह अकारण नहीं, ना ही संयोगवश है कि हिन्दू की आस्था और विश्वास पर इन दिनों सर्वाधिक प्रहार हो रहे हैं। कौन कर रहा है? सिनेमा, साहित्य, मीडिया, समाचार पत्र और इन सब में काम करने वाले तथाकथित बौद्धिक वर्ग। ये एक-दूसरे को प्रायोजित भी करते हैं और सहयोग व समर्थन भी।
एक बार पुनः लेख के प्रारम्भिक तथ्य को देखिये और समझिये। ब्रेकिंग इंडिया फोर्सेज़ ने इतिहास के भक्तिकाल से सबक लेकर हमारे विरुद्ध कारगार योजना बना रखी है मगर हम अपने ही अतीत से सीखने को तैयार नहीं।
एक नहीं अनेक उदाहरण हैं, जिनके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। ब्रेकिंग इंडिया के ये सब नामधारी मोहरे खुलकर लिखते हैं तो छपते भी हैं और बिकते भी हैं साथ ही मीडिया में दिखते भी हैं। ये क्या लिखते बोलते हैं, हम सब जानते हैं मगर हममें से ही अनगिनत हिन्दुस्तानी हैं जो इनके शब्द-संसार के सौंदर्य में गोता लगाते रहते हैं।
मेरा लेख इन नामधारियों के लिए नहीं है बल्कि इनके ‘बोंज़ाई’ के लिए हैं, जो सोशल मीडिया पर अपने शब्दों का मायाजाल फेंकते हैं और अनगिनत लोग उसके शिकार होते रहते हैं। क्या इन बहुरूपियों को पहचानना इतना मुश्किल है?
माना कि मीडिया और बड़े अखबार में छपने-दिखने वालो का हम रोक नहीं सकते, मगर सोशल मीडिया में क्या इन ‘बोंज़ाई’ से भी निपटने में हम सक्षम नहीं हैं? क्या हम इन्हें पूरी तरह नजरअंदाज़ कर के महत्वहीन नहीं कर सकते? याद रखिये, जब हम इन पैदल-प्यादों का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे तो ऐसे अनेक हाथी घोड़े हैं जो आढ़ा-टेढ़ा चलते भी हैं और दूर तक मार भी करते हैं।
मुठ्ठी भर लोग जानते थे कि इतिहास से सबक मिलता है, सो इतिहास ही बदल डाला