ये जो स्वामी सानन्द जी थे इन्होंने गंगा सफाई के लिए क्या किया था? एक एनवायरनमेंट इंजीनियर के रूप में इन्होंने गंगा जी की सफाई के लिए कोई नई तकनीक अथवा scientific, executable, innovative मॉडल योजना या ब्लूप्रिंट बनाया हो… ऐसा कुछ था क्या? हो तो कृपया बतायें और उसे सामने लाएं।
गंगा स्वच्छता किसी एक व्यक्ति का नहीं अपितु जन जन का प्रयास होना चाहिये। स्वामी सानन्द जी ने सामान्य जन को जागृत करने के कितने प्रयास किये थे? मेरा अभिप्राय है कि कितने लोगों तक इनकी पहुँच थी? इनके आह्वान पर कितने लोगों ने गंगा में गन्दगी डालना बंद कर दिया?
अनशन करना और सरकार के सामने मांगों का पुलिंदा रख देना बड़ा सरल होता है किंतु वास्तविक कार्य कर के दिखाना कठिन होता है। सरकारों को तो हम 70 साल से कोस रहे हैं, आगे भी कोसते रहेंगे। लेकिन आज का समय सरकारों का नहीं सरोकारों का है। हमें यह निर्णय करना होगा कि गंगा जी से हमारा क्या सरोकार है। क्या वह भक्तिभाव तक ही सीमित है या उसमें कुछ ‘pragmatic approach’ भी है।
ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहाँ लोगों ने सरकारों पर निर्भर रहना छोड़ दिया है। आपने सुना होगा कि अमरीका या किसी देश में फलाने किसान ने पशुओं के गोबर से इतनी बिजली उत्पन्न कर ली कि अब वह अपने घर को ही नहीं आसपास के गाँवों को भी बिजली दे रहा है।
इसी प्रकार हंस फाउंडेशन के मनोज भार्गव मुफ़्त ऊर्जा और कम लागत में साफ़ पानी देने के प्रयास में लगे हैं। उन्होंने एक सोलर पॉवर पैक बनाया है जो कई घण्टे तक प्रकाश दे सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज ज़माना अनशन करने का नहीं अपितु ‘इन्वेंशन’ और ‘इनोवेशन’ करने का है।
आज के समय में मौलिक विज्ञान के दो ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें पूर्ण रूप से कमर्शियल साइंस कहा जा सकता है : कम्प्यूटर विज्ञान और केमिकल साइंस या केमिस्ट्री।
भारत, कम्प्यूटर विज्ञान में तो बहुत आगे बढ़ गया किंतु केमिस्ट्री में पीछे रह गया। आज केमिकल इंजीनियरिंग वाले उन कम्पनियों में अधिक रोज़गार पाते हैं जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाती हैं। स्वच्छ ऊर्जा तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली कम्पनियाँ भी बहुत कम हैं।
मैं केमिस्ट्री की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि नदियों में प्रदूषण नियंत्रण के विषय को मुख्य रूप से रसायन विज्ञान वाले ही सबसे अच्छी तरह समझ सकते हैं। लेकिन गंगा जी को साफ़ करने के लिए केवल केमिस्ट्री ही नहीं माइक्रोबायोलॉजी, सिविल इंजीनियरिंग, जियोलॉजी, पर्यावरण विज्ञान समेत अनेक विषयों के जानकारों के सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है।
यह कोई छोटा मोटा नहीं वास्तव में भगीरथ प्रयास है। हमें एक ऐसा holistic प्रोग्राम बनाना है जिसमें समाज के सभी वर्गों का योगदान हो। घाट किनारे दीया और फ़ूल बेचने वाले बच्चे से लेकर अम्बानी तक सबको अपना दायित्व समझना होगा।
गंगा स्वच्छता के लिए सरकार क्या कर रही है, नहीं कर रही है, यह अलग बात है। हम क्या कर रहे हैं और कर सकते हैं इस पर सोचना चाहिये। हमें अंकित अग्रवाल और करण रस्तोगी जैसे तकनीकी रूप से दक्ष युवा उद्यमियों से प्रेरणा लेनी चाहिये जिन्होंने ‘Help us Green’ नामक कम्पनी बनाई है। ये मन्दिरों से निकले माला फ़ूल से अगरबत्ती इत्यादि बनाते हैं। इस प्रकार यह कचरा गंगा में जाने से बच जाता है।
मैंने स्वयं बहुत लोगों के समक्ष यह विचार रखा था कि हम मन्दिरों में चढ़ाये जाने वाले माला फूल को खरीद कर उससे इत्र और प्राकृतिक रंग बनाएं। उन प्राकृतिक रंगों से देवि दुर्गा की प्रतिमाएं को रंगा जा सकता था जिन्हें गंगा में प्रवाहित किया जाता तो हमारी मान्यताएं भी यथावत रहतीं, गंगा में घातक रसायन भी नहीं जाते और फूलों से रंग बनाने वाली कम्पनी में लोगों को रोजगार भी मिलता।
हालाँकि ऐसा नियम है कि देवताओं को अर्पित सामग्री पुनः किसी को नहीं चढ़ाई जाती किंतु यह भी तो देखिये कि उन चढ़े हुए पुष्प पत्रों को उस स्वरूप में प्रयोग नहीं किया जाता जिसमें वे पहले थे। फूलों से निकले रंग और इत्र उस निर्माल्य स्वरूप से एकदम भिन्न होते हैं जिसमें वे पहले थे। जैसे विष्ठा खाद बन जाती है और वही खाद फसल को पुष्ट कर अन्न का स्वरूप धारण करती है उसी प्रकार गंगा को स्वच्छ रखने के लिए हमें पारपंरिक रूढ़ियों का इतना तो त्याग करना ही होगा और गंगा स्वच्छता को एक ‘entrepreneurial mission’ बनाना होगा।
नमामि गंगे : प्रयासों पर उंगली उठाने से पहले देखिए ज़मीन पर कार्य