नवरात्र एक एक कर समय के सीने में धँसते जा रहे हैं।
इसी बीच, अक्सर भजन संगीत के स्वर कानों में धँसते हैं। सहसा एक स्वर धँसा : “तूने मुझे बुलाया, शेरोंवालिए।”
कुछ देर तो गीत में डूबा, फिर चिंतन की सघन वृत्ति जाग उठी। स्वयं से प्रश्न किया : “किसकी आवाज़ है ये?”
“मुहम्मद रफ़ी।”
ये कैसा नाम है?
इस गीत के साथ सूट करता है?
मुसलमाँ गले से माता के भजन?
फिर हृदय ने कहा, कलाकारों के लिए तो वैसा चिंतन भी योग्य नहीं!
कुछ इंसान जाति/धर्म/देश की सीमाओं से ऊपर उठ जाते हैं। जैसे कि वीर शहीद “अब्दुल हमीद”। जैसे कि हमारे “अब्दुल कलाम” साहब।
और यूँ ही मुझे तेरह अक्टूबर याद आ गया।
तेरह अक्टूबर, उन्नीस सौ अड़तालीस!
साथ में याद आया “फ़ैसलाबाद”, पाकिस्तान के एक शहर।
छः सौ बरस से मौसिकी की रवायतों को चला रहे ख़ानदान में एक बालक का जन्म हुआ।
मुसलमाँ मानते हैं कि अल्लाह की नेमतें “सात सौ छियासी” के कूट अंक में बरसती हैं।
मगर, तेरह अक्टूबर तो हर बरस का दो सौ छियासीवाँ दिन होता है!
कोई हो, जो बरस के दो सौ छियासीवें दिन जन्मे।
इस पर यार लोग कहेंगे, इसमें क्या ख़ास हुआ? ख़ास तो तब होता, जब कोई सात सौ छियासीवें दिन जन्मे।
मगर अफ़सोस मेरे दोस्तों, बरस में कुल तीन सौ पैंसठ ही दिन होते हैं। और दो सौ छियासीवाँ दिन होता है : “तेरह अक्टूबर”।
हाँ, तो मैं क्या कह रहा था। कि कोई हो, जो बरस के दो सौ छियासीवें दिन जन्मे। और एक रोज़ उस “खास” इंसान से कोई पूछे, आप ठीक उसी दिन क्यों जन्मे?
तिस पर वो इंसान क्या कहेगा?
ग़र वो शाइर हुआ, तो कहेगा कि पाँच सौ दिन तक भगवान मेरी “मौसिकी” को तराशता रहा, और तब मैं मेरी माँ को मिला!
ग़र वो लेखक हुआ, तो पाँच सौ दिन ईश्वर उसकी क़लम को धार दे रहा था!
ग़र उसने योद्धा का रूप धरा, तो कहिए कि परमेश्वर उसकी शक्ति, उसके सामर्थ्य और शौर्य को दृढ़ कर रहा था। वह भी पूरे पाँच सौ दिन तक!
पाँच सौ और दो सौ छियासी, हो गये ना सात सौ छियासी?
ग़र वो ख़ास इंसान ये सब न होकर “गायक” हुआ, “क़व्वाल” हुआ, तो क्या कहेगा?
सोचिए!
वो कहेगा, दोस्तो, ऊपरवाला पाँच सौ दिन से मेरी आवाज़ को तराशने लग रहा था!
यही शैली थी उनके बात करने की। ठीक यही, सुनाने लग रहा हूँ, गाने लग रहा हूँ, रियाज़ करने लग रहा हूँ।
वे ठीक इसी शैली में बात करते थे!
बड़ी बात ये नहीं कि उनका नाम “नुसरत” था!
ना ही ये बात मायने रखती है कि “सरनेम” के कॉलम में “फ़तह अली ख़ान” लिखते थे वे!
और वैसा चिंतन तो कभी किया ही नहीं, कि जन्म से ही “परवेज़” नाम था उनका।
बड़ी बात ये है कि जब उन्हें सुनते हैं तो सामान्य ज्ञान कमज़ोर पड़ जाता है। चिंतन शून्य हो जाता है।
तो जनाब, बात हो रही है बीती सदी के शहंशाह-ए-क़व्वाली नुसरत फ़तह अली ख़ान के बारे में!
पाकिस्तान में जन्मे, मुसलमाँ थे, ताज़िंदगी मुसलमाँ रहे। यानि कि उनसे दूर होने के पर्याप्त कारण हमारे पास मौजूद हैं, मगर हम हैं कि उनसे दूर नहीं हो पाते।
आज भी उनका गाना आए बिना, शादी ब्याह का गीत संगीत अधूरा लगता है। वही गाना : “दूल्हे का सेहरा सुहाना लगता है, दुल्हन का तो दिल दीवाना लगता है।”
उनको सुनना किसी मुसलमाँ को सुनना नहीं है। और अगर है भी तो उनका वो कलाम सुनिए, “साँसों की माला पे सिमरूँ मैं, पी का नाम।”
पूरा सुनिएगा, मुसलमाँ को सुनने का और मन ही मन सराहने का अपराधबोध कम होगा!
कितनी इज़्ज़त से “राधाकृष्ण” का नाम लिया है उन्होंने। मानो, खुदा को ही उचारा हो!
“नुसरत” कहते हैं : “जबसे राधा श्याम के नैन हुए हैं चार / श्याम बने हैं राधिका और राधा बन गयीं श्याम।”
भई, इस पंक्ति के बाद मैं तो मर मिटा था उनके कहन पर, उनके गायन पर!
“नुसरत” के बारे में कहा जाता है : “उन्होंने ख़ूब खाया और ख़ूब गाया।”
और मुझे अफ़सोस है कि उनसे ज्यादह जिया नहीं गया। केवल उनचास की अवस्था में चल बसे।
जिस गले के तरन्नुम का साथ, दुनिया के हर दिल की धड़कन देना चाहती थी। उसका साथ उसी के ख़ुद के दिल ने छोड़ दिया।
उनका दिल धड़कना बंद कर गया। ये मनहूस जगह थी, दुनिया का दिल “लंदन”।
फ़ादर कामिल बुल्के के लिए “निराला” ने लिखा था : “जिस इंसान में मानव जाति के लिए अमृत भरा हो, उसे ज़हरबाद से नहीं मरना चाहिए था।”
वैसे ही, “नुसरत” के लिए अनुराग लिखें : “जो करोडों दिलों में बसता हो, वो कम से कम अपने दिल से धोखा न खाए।”
भले, उनका दिल आज बंद हो। उनका गला ख़ामोश हो। मगर वे धड़केंगे हमेशा, दुनियाभर के संगीत प्रेमियों के दिलों में। वे गूंजेंगे, किसी न किसी आवाज़ से, हर बरस, हर रोज़, हर पल!
अस्तु।
[ पुनश्च : “नुसरत” दुनिया में आना और जाना, भारतीयों के साथ जुड़ाव में रहा। वे अकेले नहीं, जो तेरह अक्टूबर को जन्मे। बल्कि प्रसिद्ध अभिनेता और किशोर कुमार के बड़े भाई श्री अशोक कुमार “दादामुनि” भी इसी दिन जन्मे। बस आयु का अंतर रहा। ठीक वैसे ही, “नुसरत” का जाना भी एकल नहीं। दुर्भाग्य से, श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी भी सोलह अगस्त को ही गये। दुखद, किंतु दिलचस्प। ]