नमामि गंगे : प्रेम से भरा मन तो हो…

स्वतंत्रता संघर्ष के लिए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े क्रांतिकारियों में एक नाम महान देशभक्त राजगुरु का भी था । हुतात्मा चंद्रशेखर आज़ाद की अगुआई में क्रांतिकारी संघर्ष कर रहे थे । चंद्रशेखर आज़ाद की प्रकृति भिन्न थी । वे ब्रह्मचर्य को जीवन आदर्श बनाकर इस युद्ध में उतरे थे । परंतु, देशप्रेम से ओतप्रोत दूसरे क्रांतिकारियों का युवा मन सहज प्रेम के कोमल भावों से कटा हुआ नहीं था ।

राजगुरु ने एक बार अपने कमरे की दीवार पर कुछ सुंदर लड़़कियों के चित्र चिपका दिए । अगले दिन चंद्रशेखऱ आजाद ने जब उन चित्रों को देखा तो कड़क उठे।
उन्होंने फौरन चित्रों को फाड़कर फेंक डाला और गरज कर पूछा कि ये चित्र किसने लगाए थे?
राजगुरु ने आगे बढकर कहा.. मैंने ।
आजाद ने पूछा, क्यों.. हम देश की आजादी के लिए लड़ रहे हैं या सुंदर स्त्रियों के चित्र लगाने के लिए जुटे हैं?
राजगुरु कुछ देर तक गुम रहे । फिर उन्होंने कहा कि पंडित जी सुंदरता कोई निकृष्ट भाव नहीं है ! अगर मैंने सुंदर स्त्रियों के चित्र लगाए भी तो क्या…

आज़ाद ने उन्हें खारिज कर दिया और अपनी बात पर अड़े रहे । उन्होंने कहा कि यहां किसी स्त्री की तस्वीरें नहीं लगाई जाएंगी । हम मातृभूमि को आजाद कराने के लिए युद्ध कर रहे हैं!

राजगुरु ने पूछा, तो क्या इस युद्ध में लड़ते हुए जितनी सुंदर वस्तुएं और इमारतें हैं, उन्हें गिरा देंगे नष्ट कर देंगे?

चंद्रशेखऱ आजाद और तैश में आ गए । उन्होंने उत्तर दिया.. हां गिरा देंगे! राजगुरु कुछ देर तक चुप रहे और फिर बुदाबुदाते हुए कहा.. सुंदर दुनिया बसाने चले हैं और सुंदर वस्तुओं को नष्ट करते हैं !!

आज़ाद दिव्यात्मा थे परंतु राजगुरु का मन कितना कोमल था और एक पंक्ति में कितनी विलक्षण बात उऩ्होंने कह दी थी। आश्चर्य तो यह कि फूल की पंखुरियों सा मृदुल जिनकी आत्मा थी, उनमें वज्र को झेलने का ताप भी था। जिसका प्रमाण स्वयं राजगुरु ने आगे दिया।

एक बार चंद्रशेखर आज़ाद सो रहे थे, तभी उन्हें किसी के कराहने की आवाज़ सुनाई पड़ी। वे उठ कर देखने लगे तो पता चला कि राजगुरु कष्ट में हैं । वे उनके पास गए और पूछा कि क्या तकलीफ है। परंतु राजगुरु चुप थे। आजाद ने उनकी देह पर हाथ रखा तो वे तड़प उठे। आजाद ने उनकी कमीज़ उठाई। राजगुरु की देह देखकर वे दंग रह गए। उनकी रूह कांप उठी। जिस्म उनका जगह-जगह से दागा हुआ था।

एक क्षण को अत्यंत विचलित हुए आज़ाद ने पूछा,यह कैसे हुआ, क्योंकि राजगुरु तब तक स्वतंत्र ही थे। अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें पकड़ा नहीं था। बहुत कुरेदने पर राजगुरु ने उत्तर दिया कि उन्होंने खुद ही स्वयं को दागा है। आज़ाद के पाँव तले ज़मीन खिसक गई। उन्होंने पूछा भला क्यों.. राजगुरु बोले, देखना चाहता था, दमन और यातना का कितना ताप झेल सकता हूं.. कहीं गोरों ने पकड़ लिया तो दबाव में मुंह न खोल दूं! आजा़द की आंखें छलछला उठीं। कैसा उत्कट प्रेम था देश के लिए राजगुरु के मन में..! जो स्वयं को दाग कर देख रहे थे…। ये वही राजगुरु थे जो सुंदर स्त्रियों के चित्र देखकर खुश होते थे।

कल जब महान आत्मा स्वामी सानंद ने गंगा के लिए अपने प्राण त्यागे तो उनकी एक चिट्ठी प्रिय अनुज अम्बुज पांडे ने मेरी वॉल पर पोस्ट की। जिसमें लिखा था कि मां गंगा की मुक्ति से पहले भला मैं अपने जीवन की मुक्ति क्यों चाहूं! यह प्रेम पवित्र आत्माओं का आभूषण है। यह प्रेम वीरों का अभिमान है। यही प्रेम कभी महान राणा में, कभी बाज़ीराव में और कभी साक्षात देवी की प्रतिमूर्ति रानी लक्ष्मीबाई में छलकता है और आज भी हमारे कई मित्रों, साथियों, वीर सैनिकों की आत्मा में प्राणों के पाल खोल कर तिरता है… यह प्रेम रहे तो देश भी रहेगा… गंगा भी रहेगी । किसी न किसी दिन तो अवश्य उद्धार होगा….!!

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