नकारात्मक संवाद की रचना ही करता है गलत मंच से उठा सामाजिक मुद्दा

गलत स्टेज से निकला समाज का मुद्दा औंधे मुंह ही गिरता है या नकारात्मक संवाद की रचना करता है।

बॉलीवुड में क्या आदर्श हैं या कोई वहां क्या ढूंढ रहा है, ये समझ से परे है। #MeToo हो, te too हो, po po हो, कुछ हो। मेरा तो विश्वास रत्ती मात्र नहीं है।

वे लोग नेम फेम की इंडस्ट्री वाले हैं, हायरार्की पूरी चलती है। ब्लैक मार्केट का पैसा तक लगने का आरोप चलता आया है। माफिया लोगों के साथ तक फोटो आदि हैं। कहानियों से भरे हैं।

सेक्स, हिंसा, म्यूचुअल बेनिफिट्स पर चलने वाली इंडस्ट्री, आपको लगता है आप इस स्ट्रक्चर में कुछ खोज भी पाएंगे? ज़ीरो उम्मीद है।

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दर्शक कोई आदर्शवादी नहीं होता, मज़े लेने जाता है। ‘लड़की के मन में भी रहता है, बस हाँ नहीं बोलती है’, ये धारणा लेकर दर्शक बाहर निकलता है। फिर अगले दस बीस साल तक Me Too के कई केस का प्लेटफॉर्म तैयार वैसे ही हो जाता है।

दूसरी तरफ नन बिशप का केस दब जाता है। ये और विचित्र बात है।

असली बात तो हो ही नहीं पाती। रेडलाइट से लेकर बैंकाक की बातें सबको पता है, गाहे बगाहे जोक्स, पोस्ट्स आते रहते हैं, पता सबकुछ रहता है, पर बात नहीं स्वीकार करते।

मेरी कुछ सोशल मीडिया मित्रों ने अपने ही साथ की घटना बताई। जबकि पुरुष अपनी पत्नी के ही साथ था। तब भी हाथ डाल रहा था। वहीं इतना दुःसाहस है तो, और तो न जाने क्या क्या होता होगा।

मुझे भी पता नहीं था, यूरोप आने के बाद ही इसकी तीव्रता का एहसास हुआ है। भारत में इस विषय पर बात नहीं होती, तो पता चलता भी कैसे? जब मेरे जैसे का ये हाल है तो और तो बात सोच सकता हूँ।

फेमिनिस्ट क्यों कहती हैं कि स्त्री पुरुष समानता चाहिए? उनका कहना भी सही लगता है। दस साल पहले अपने को परोस दिया, छिनाल आदि का टैग लग जायेगा। सीधे तौर पर सही बात लगती है। पर, शोषक पुरुष के बारे में बात नहीं होती है। ये महान आश्चर्य की बात होती है। उसे रंडीबाज़ नहीं कहा जाता या उसे कमीना नहीं कहा जाता कि विश्वास में लेकर उसने कोई गलत काम किया है। लांछन स्त्री पर ही लगता है।

ऐसा नहीं है कि सब दूध से धुले हैं। प्रपोर्शन की बात देखी जाए तब ही कहा जा सकता है कि स्त्री पक्ष सही में पीछे है। मेरा तो मानना है।

स्त्री पक्ष को आगे क्यों आना चाहिए, उसका कारण भी वही है कि कई समस्याएं, जिनके बारे में बहुत बार बात होता है, वो फट से समाधान को प्राप्त अनायास ही हो सकती हैं। और काफी वक्त लगेगा। जिनको ज़िंदगी ने सिखा दिया है वो तो अलग ही हैं। पर जो रूटीन लाइफ के घेरे में हैं, उनको वक्त लगेगा ही लगेगा।

पर बॉलीवुड कोई मानक मेरे लिए नहीं है। कुछेक सोचने वाले वहां हो सकते हैं, पर हायरार्की का पावर गेम वहां निश्चित रूप से है। बोलना भी मोल तोल के उनको आता है, सो, बातें तो कर लेंगे, पर अपना रास्ता भी निकाल ही लेंगे। आप बॉलीवुड के चक्कर में हाथ मलते न रह जाना। फिलहाल अपेक्षा करना बेकार ही है।

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