एक गंभीर सामाजिक बीमारी है यह, कभी देखी ही होगी, आज पहचान भी लीजिये।
पाब्लो पिकासो (Pablo Picasso : 1881 – 1973) का नाम अगर आप ने सुना न हो तो बता दूँ, मॉडर्न आर्ट के एक बहुत कीमती नाम हैं। आज उनकी कोई भी कलाकृति लाखों क्या, करोड़ों के दामों में बिकती है। इतना ही नहीं, उनकी कलाकृतियों के प्रिंट्स भी अम्माजान की दुकान में दो सौ से नौ सौ तक बिकती है।
यहाँ मुझे उनकी पेंटिंग का विश्लेषण नहीं करना, उनसे जुड़ा हुआ एक किस्सा सुनाना है। सत्य है या नहीं, पता नहीं, लेकिन उसका जो संदेश है वह परमसत्य है। सादर प्रस्तुत है :
तो हुआ यूं कि पिकासो महाशय एक रेस्ट्रां में गए थे। उनके ज़िंदगी के सफल समय की बात है। उन्हें पहचान कर एक बड़े घर की महिला उनके पास आई और उनसे पूछा कि क्या आप मेरे लिए कोई अनूठा चित्र बना सकते हैं? पिकासो ने हामी भरी और वहीं रखा हुआ एक डिनर नैपकिन टेबल पर फैला दिया, महिला से पूछा, दो-एक लिपस्टिक तो होंगी आप के पास?
महिला ने पर्स में हाथ डाला, मुट्ठीभर लिपस्टिक उनके सामने रखी। पिकासो ने फटाफट कोई आकृति बनाई, उसमें उन लिपस्टिक्स से रंग भरे और नीचे अपनी जगप्रसिद्ध सिग्नेचर कर दी (जी, उनकी सिग्नेचर वाकई फेमस है, आप सर्च कर सकते हैं) और नाटकीय अदा से वो डिनर नैपकिन उस महिला को पेश करते बोले – इसके दस हज़ार डॉलर्स हो गए मैडम।
महिला सकपका गयी। ऐसा नहीं था कि हैसियत न थी, लेकिन शायद तारीफ से मुफ्त में ऐंठना चाहती होंगी। बोली – दस हज़ार डॉलर्स! लेकिन आप को इसे बनाने में तीस सेकंड भी नहीं लगे!
पिकासो ने वह नैपकिन अपनी तरफ कर लिया और ठंडी आवाज़ में उत्तर दिया – नहीं मैडम, पूरे चालीस साल लगे हैं।
पिकासो से जुड़े इस किस्सा या किंवदंती का परम सत्य तो आप समझ गए ही होंगे। कीमत उनके नाम की थी जिसे कमाने में उनको चालीस साल लगे थे। तो अब इस मुद्दे पर आते हैं।
अक्सर देखता हूँ कि हिन्दू युवाओं को ‘शॉर्टकटायटिस’ की गंभीर बीमारी है। फटाफट बड़ी कमाई चाहिए, और इतना ही नहीं, अगर रिजेक्ट हुए तो आत्मपरीक्षण नहीं करेंगे बल्कि जिसने रिजेक्ट किया उसपर जो मन करे वो आरोप लगा देंगे। विक्टिम कार्ड खेलकर रोना-धोना मचाएंगे लेकिन यह नहीं सोचेंगे कि जिसे पैसे देने हैं उसको भी अपने मापदंड निर्धारित करने का हक़ है।
बहुत अनुभव हैं ऐसे जिन्हें यहाँ लिखूँ तो विपर्यास कर के चर्चा भटकाने वालों की कमी नहीं, इसलिए दो बिलकुल अलग किस्म के उदाहरण देता हूँ।
कोई म्यूजिकल टैलंट शो था जिसमें तब इस्माइल दरबार जज थे। यहाँ मैं मेरे देखे हुए दो एपिसोड्स की बात करूंगा। एक लड़का था जिसको सुनना और देखना खुद पर अत्याचार था। दरबार साहब ने उसको ज़रा सुना दिया। और एक युवा था जिसे साफ कह दिया कि कुछ और व्यवसाय करो, भला होगा, जवानी के साल गाने के पीछे व्यर्थ न गँवाओ, तुम में एक गायक के लिए जो चाहिए वो बात है ही नहीं।
वो लड़का रो पड़ा और उसकी माँ ने दरबार साहब को ले कर कड़वी टिप्पणियाँ की, हॉल के बाहर। दूसरा युवा भी अपनी कड़वाहट छुपा न सका। शो के ही कैमरा वाले, उनके पास क्यों जाते हैं, पता नहीं लेकिन उस प्रतियोगिता के बाद दरबार साहब फिर कहीं जज नहीं दिखे।
‘शॉर्टकटायटिस’ से बचें, और एक व्यावहारिक विचार करें कि आप क्या कर सकते हैं ना कि आप क्या करना चाहते हैं। हो सकता है दोनों एक ही निकले तो सोने पे सुहागा होगा, अन्यथा कड़वाहट से निकलना मुश्किल होता है और आपके फ्रस्ट्रेशन का लाभ उठाने कई लोग तैयार बैठे होते हैं। अगर आप एक युवती हैं तो… आगे की बात आपकी समझदारी पर छोड़ते हैं।