‘पर गमन’ से पतन होता है, पर-स्त्री का कोई सवाल नहीं

प्रश्न : शास्त्रों और संतों का कहना है कि परस्त्रीगमन करने से साधक का पतन होता है और साधना में उसकी गति नहीं होती। इस मूलभूत विषय पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करें?

ओशो –
पूछा है फिर दौलतराम खोजी ने। वे बड़ी गहरी बात खोज कर लाते हैं! खोजी हैं!

इसको मूलभूत विषय बता रहे हैं! अब इससे ज्यादा कूड़ा कर्कट का और कोई विषय नहीं।

जिस शास्त्र में लिखा हो वह भी किसी बड़े ज्ञानी ने न लिखा होगा, किसी टुटपुंजे ने लिखा होगा।

ज्ञानी, और इसका हिसाब रखे कि कौन किसकी स्त्री के साथ गमन कर रहा है! तो ये ज्ञानी न हुए, पुलिस के दरोगा!

और तुम कहते हो, संतों का कहना है?

संत ऐसी बात बोलें तो सिर्फ इससे इतना ही पता चलता है, अभी संतत्व का जन्म नहीं हुआ। अभी दूर है; अभी बहुत दूर है मंजिल।

पहली तो बात यह कि परस्त्री कौन?

तुमने सात चक्कर लगा लिए, बस स्त्री तुम्हारी हो गई?

इतना सस्ता मामला! मगर इस देश में इस तरह की मूढ़ता रही है। स्त्री को स्त्री—धन कहते हैं; उस पर मालकियत कर लेते हैं।

कौन किसका है यहां?
कौन अपना, कौन पराया?
ज्ञानी तो यही कहते हैं, न कोई अपना न कोई पराया। संत तो यही कहते हैं, अपना पराया छोड़ो।

यह तो तुमने खूब होशियारी की बात बताई : कि परस्त्री गमन से साधक का पतन होता है। और अपनी स्त्री के गमन से नहीं होता?
और अपना कौन है??
जिसको कुछ मूढ़ जनों ने खड़े होकर और ताली बजा कर और तुम्हें चक्कर लगवा दिए वह अपना है?

अगर संतों से तुम पूछो तो वे कहेंगे,
“पर गमन” से पतन होता है। स्त्री इत्यादि का कोई सवाल नहीं;
पर-गमन,
दूसरे में जाने से,
दूसरे के साथ संबंध जोड्ने से,
दूसरे को अपना पराया मानने से,
दूसरे को महत्वपूर्ण मानने से पतन होता है।

“स्व” महत्वपूर्ण है, “पर” पतन है। तो स्वात्माराम बनो। अपनी आत्मा में लीन हो जाओ।

संत तो ऐसा कहेंगे। और जिन्होंने परस्त्री इत्यादि का हिसाब लगाया हो वे संत नहीं हैं।
संत तो इतना ही कहेंगे,
पर गमन से पतन होता है इसलिए “स्व गमन” करो। बाहर जाने से पतन होता है, भीतर आओ।

दूसरे के साथ संबंध जोड़ने से तुम अपने से टूटते हो तो संबंध मत जोड़ो। रहो सबके बीच, अकेले रहो, बिना जुड़े रहो। रहो भीड़ में लेकिन एकांत खंडित न हो पाए। दूसरा मौजूद हो, दूसरा पास भी हो तो भी तुम्हारे स्व पर उसकी छाया न पड़ पाए, उसका रंग न पड़ पाए। तुम्हारा स्व मुक्त रहे।

संत तो विद्रोही होते हैं। संत कुछ ऐसे लीक के अनुयायी नहीं होते; लकीर के फकीर नहीं होते।

संत तो कुछ निश्चित ही मूलभूत बात कहते हैं। यह कोई मूलभूत बात है ???

मैं तुमसे इतना ही कहना चाहता हूं : पर-गमन पतन है। स्त्री पुरुष का कोई सवाल नहीं है।
अपने से हटना पतन है।
स्व में लीन होना,
स्वात्माराम होना,
स्व में ऐसे तल्लीन होना कि स्व ही सब संसार हो गया तुम्हारा;
स्व के बाहर कुछ भी नहीं।

वही तुम्हारा संगीत,
वही तुम्हारा सुख।
स्व तुम्हारा सर्वस्व हो गया,
फिर कोई पतन नहीं

अष्‍टावक्र महागीता , प्रवचन-66

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