हमें शिकायत का अधिकार ही नहीं कि बहुसंख्य हो कर भी हमारी नहीं चलती!

मैं जब भी सार्वजनिक तौर पर धर्म के बारे में लिखता हूँ तो विशुद्ध सामाजिक दृष्टिकोण से लिखता हूँ।

आज हम देख रहे हैं कि विधर्मी सारे अपने अपने खेमों में लामबंद है। उनके अपने धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संस्थान हैं और उनके प्रति निष्ठा या तो आस्था के प्रभाव में, या सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक प्रभाव में सुनिश्चित की जाती है।

ध्यान रहे कि विभिन्न संस्थानों में उनके अपने गुणवत्ता के और संचालन के तौर-तरीके के हिसाब से आस्था रखना स्वाभाविक है। पर विधर्मी उनमें चयन धर्म के हिसाब से करते हैं।

अब बोहरा समाज को देखिए – उनकी अपनी मस्जिदें, उनके अपने धार्मिक नेता हैं, धार्मिक और सामाजिक सम्मेलन होते हैं, और तो और, अपने स्वतंत्र बैंक और आर्थिक संस्थान हैं जो उस समुदाय के आर्थिक गतिविधियों को उनके सदस्यों के हित में नियंत्रित करने के काम आते हैं।

कुल मिलाकर सारे विधर्मी अपने अपने एकात्म, सुसंगठित दबाव गुट बना कर चलते हैं, जिससे उनके हितों की रक्षा सुलभ हो जाती है।

इसके विपरीत हिंदू समाज आज भी विभिन्न जातियों में विभाजित हुआ पड़ा है। कुछ हद तक इन जातियों की गतिविधियाँ एक स्वतंत्र धर्म के समकक्ष होती है, विशेष कर धार्मिक और सामाजिक स्तर पर।

आजकल राजनीतिक दलों में भी जातिगत निष्ठा के हिसाब से विभिन्न दल किसी न किसी जाति से जुडे पाए जाते हैं। पर अपनी अपनी सामूहिक शक्ति के बल पर इन सारे गुटों की हैसियत सत्ता संपादन और अपने हितों की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं होती।

इसलिए कई बार ऐसी जातिगत हितों की रक्षा करने वाली पार्टियाँ सत्ता पाती तो है, पर अपने समूह सदस्यों के हितों की स्थायी रक्षा नहीं कर पाती।

धर्म के आधार पर देखा जाए तो सब जातियाँ हिन्दू भगवे ध्वज के तले ही एकत्रित हैं, पर उन में एकत्र होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता।

अब कोई कहता है कि बलि प्रथा बंद करो, कोई कहता है यह तो मेरा निजी आस्था का मामला है। बस दोनों में ठन जाती है, और किसी भी मुद्दे पर वे एक-दूसरे का समर्थन नहीं करते है। उस के ठीक विपरीत दोनों एक-दूसरे को परास्त करने के लिए एक-दूसरे के विरोध में विधर्मियों को समर्थन देते पाए जाएंगे!

शबरीमला के बारे में यहीं हुआ – हिन्दू एक छड़ी के सहारे भेड़ों की तरह चलने वाले तो है नहीं, कि एक फतवा दो और सामंजस्य प्रस्थापित करो। पर फतवे उन्हें दो-फाड़ करने में बड़े यशस्वी होते हैं। वही हुआ – सर्वोच्च न्यायालय ने एक फ़तवा जारी किया, और हम लगे लड़ने!

हमें निजी आस्थाओं को अपने घर छोड़ आना चाहिए, जब बात सामुदायिक, सामाजिक एकता की हो! जब हम यह कर सकेंगे, तब हमारी शक्ति बढ़ेगी! और जब शक्ति बढ़ेगी, तब हम अपनी बातें मनवा भी सकेंगे।

जब तक हम अपने धार्मिक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थान अपने धर्म के ध्वज तले हमारी एकात्मिक सामूहिक इच्छा के अनुरूप नहीं चला सकेंगे, तब तक किसी विभाजनकारी मुद्दे पर शक्ति का अपव्यय नहीं करना चाहिए – यदि हम ऐसा नहीं करते है तब हमें कोई शिकायत का अधिकार नहीं कि हमारे देश में बहुसंख्य हो कर भी हमारी बिलकुल नहीं चलती!

चलेगी कैसे, जब हम बाल्टी में भरे केंकड़ों की तरह एक-दूसरे की टांग खींचने में व्यस्त हैं?

पहले सामंजस्य से एकत्र हो जाओ, तो शक्ति बनेगी! एकाध प्रथा पर प्रहार पड़ने से एक-दूसरे की खोपड़ी तोड़ोगे, तो कल को खोपड़ी तुड़वाने तक पहुंचोगे, लक्ष्य कहीं दूर खिन्न-सा खड़ा प्रतीक्षारत होगा!

अतः सावधान मित्रो! जय श्रीराम!

ऐसे ही रौंदे जाएंगे, अपने अस्तित्व और आस्था की रक्षा के लिए उठ खड़े नहीं होने वाले

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