पिछले कुछ समय से राजनीतिक कारणों से किसानों और उनसे जुड़े मुद्दों के नाम पर खड़ा किया जाने वाला हर तथाकथित आंदोलन उस पर राजनीति शुरू होने से पहले ही खत्म हो जा रहा है।
भारतीय किसान यूनियन की अगुआई में शुरू हुआ किसान आंदोलन 02 और 03 अक्टूबर की मध्यरात्रि में बेहद शांतिपूर्ण तरीके से ख़त्म हो गया।
इसी के साथ किसानों के नाम पर राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के प्रयोजन से हो सकने वाले एक और नकारात्मक आंदोलन नामक दूल्हे की स्वाभाविक मौत से जल-जंगल-जमीन के नारों को बेचने वाली मांगे सूनी हो गयीं। देश-समाज, किसान-मजदूर-आदिवासी के नाम पर अपने राजनीतिक विरोध को गोद में खिलाने की हर्षित गिरोहों की कोख एक बार फिर न भर सकी।
ऐसा नहीं है कि इसका खतरा न था और आगे न होगा! किसानों के आंदोलन के मूलभूत कारणों को कहीं पीछे छोड़ कर आगामी चुनावों को देखते हुए सरकार विरोधी और उस पर पूर्वाग्रही मोदी विरोधी तबका इसे एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर सकता था।
दिल्ली-उत्तर प्रदेश बॉर्डर पर अराजकता खड़ी करने के शुरुआती प्रयास हुए भी। लेकिन इस सब से आगे जो बातें जो हो सकती थीं, वो नहीं हुई। इस सब न होने के पीछे कुछ ऐसे कारक, किरदार हैं जिन्होंने बेहद सूझबूझ से काम लिया।
केंद्र सरकार की तत्काल प्रतिक्रिया और किसानों से सीधे संवाद का असर यह रहा कि इस आंदोलन में नरमी आयी और वे संतुष्ट हुए। उसका आधार बना किसानों द्वारा उठाये गई कुछ तात्कालिक मांगों को मानना।
गृहमंत्री राजनाथ सिंह के आवास पर बैठक के बाद केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री सुरेश राणा और लक्ष्मी नारायण आंदोलन स्थल पर पहुंचे।
इनके जरिये केंद्र सरकार किसानों तक यह संदेश पहुंचाने और चार सालों के अपने कार्यकाल के किसान हित के कामों की ज़मीन पर भरोसा दिलाने में सफल रही कि अपनी मांगों के दीर्घकालिक हल के लिए जिस स्वामीनाथन कमीशन को किसान लागू करने की मांग करते आ रहे हैं, वह केंद्र सरकार के अंतिम लक्ष्य के रूप में है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी किसानों और उनके मुद्दों को नजरअंदाज न करते हुए 01 अक्टूबर की रात में ही किसानों के प्रतिनिधि मंडल से हिंडन एयरबेस पर मुलाक़ात की।
इस निर्णय से योगी आदित्यनाथ यह सन्देश देने में सफल रहे कि सरकार को किसानों की चिंता है और उनसे बात करना उनकी समस्याओं को सुनना और समझना चाहती है। उस रात किसानों ने अपना मांग पत्र मुख्यमंत्री के सामने रखा और किसानों की समस्या के बारे में अवगत कराया।
जिस वक्त किसान गाज़ियाबाद में आंदोलन कर रहे थे और दिल्ली की तरफ को कूच कर रहे थे उसी वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हिंडन एयर बेस से लखनऊ के लिए उड़ान भरनी थी।
तभी गाजियाबाद प्रशासन के बड़े अधिकारियों को सूचना दी गयी कि मुख्यमंत्री किसानों के प्रतिनिधिमंडल से मिलना चाहते हैं। कुछ ही देर में जिला प्रशासन ने किसानों से बात की और करीब 15 लोगों को मुख्यमंत्री से मिलवाने के लिए हिंडन एयरबेस ले गए।
भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) के अध्यक्ष नरेश टिकैत भी एक सकारात्मक भूमिका में रहे। उन्होंने इस आंदोलन को एंटी सरकार या मोदी विरोधी तत्वों का हथकंडा नहीं बनने दिया। अंततः एक सकारात्मक माहौल में किसान घाट पर पुष्पांजलि के साथ किसान यात्रा को ख़त्म करने के निर्णय पर अमल किया गया।
मंगलवार रात हजारों किसान अपने ट्रैक्टर पर सवार होकर किसान घाट पहुंचे और किसान नेता एवं पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह की समाधि पर फूल चढ़ाकर इस यात्रा को खत्म कर दिया गया।
इस सबके बीच दिल्ली पुलिस ने कुशल रणनीति, जिम्मेदारी दिखाते हुए सुबह से ही किसानों को दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर रोके रखा। सबसे अच्छा कदम यह रहा कि आधी रात के बाद किसानों को किसान घाट जाने की अनुमति दे दी गयी।
दिल्ली पुलिस के इस कदम से किसान नेताओं को भड़कने का मौका भी नहीं मिला और बड़ी बात यह कि 03 अक्टूबर का दिन शुरू होने से पहले ही आंदोलन को ख़त्म किये जाने की दिशा में बड़ा कदम उठाया गया।
इसका नतीजा यह हुआ कि आंदोलन में किसानों के नाम पर घुस कर, शामिल हो… उत्पाती प्रवृत्ति के तत्वों के मंसूबों पर मनोवैज्ञानिक तरीके से काबू पाने में सफलता मिली।
विपक्षी दल और गिरोह जब तक राजनीति के तहत कुछ करते उससे पहले ही केंद्र सरकार की सूझबूझ ने इस आंदोलन को न्यूट्रल करने में कामयाबी पा ली। 3 अक्टूबर की सुबह से दिल्ली को हिलाने के ख्वाबों में डूबे गिरोहों को नींद खुलते ही झटका लगा, जब दिल्ली के काम-काज पर निकलने से पहले ही दिल्ली शांत और सुकून में दिखी।
यह कोई पहला मौका नहीं था जब देश में किसानों को राजनीतिक उद्देश्यों से आंदोलित करने की साजिश की गई। इसी साल मार्च में महाराष्ट्र में सीधे-सीधे लेफ्ट पार्टियों के लाल झंडों में लिपटे और मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (माकपा) की किसान शाखा अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) द्वारा चलाये गए तथाकथित किसान मार्च को प्रायोजित ढंग से बढ़ाने की कोशिशों नाकाम हुई।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और वास्तविक किसानों के बीच सहज और सीधे संवाद के जरिये किसानों ने अपना आंदोलन खत्म कर दिया। और तो और… बिना किसी ठोस कारणों के किसानों को 180 किलोमीटर पैदल मार्च कराने की लेफ्ट की अराजक हरकत के सामने महाराष्ट्र सरकार की पहल पर केंद्र सरकार ने मुंबई से किसानों की वापसी के लिए ने दो स्पेशल ट्रेनों की मानवीय व्यवस्था की।
इसके पहले जून 2017 में भी सीपीएम की इसी एआईकेएस ने किसानों के ही नाम पर महाराष्ट्र में अराजक रेल रोको आन्दोलन चलाने का असफल प्रयास किया था, जिसे किसानों का ही कोई समर्थन न मिला।
दिल्ली के जंतर-मंतर पर डिज़ाइनर किसानों के तमाशे को देश अभी भूला नहीं है। बोतलबंद पानी पीकर, दावतें उड़ाते अधनंगे फैन्सी ड्रेस के प्रतिभागी और हवाई जहाज से उनकी धरनास्थल से वापसी… देश ने संभवतः किसान आंदोलन के नाम पर इतना बड़ा फ्रॉड पहली बार देखा।
इन्हीं कुछ सालों में मध्यप्रदेश, झारखंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि प्रदेशों में भी किसानों के आंदोलनों के नाम पर अराजक, हिंसक साज़िशों को देश ने नंगा होते देखा। आगजनी से लेकर सड़कों पर दूध आदि बहाने के कांग्रेस प्रायोजित खेल सबके सामने हुए।
सवाल यह उठता है कि इतने सारे राजनैतिक प्रयासों, प्रयोजनों के बाद भी देश का किसान सरकार विरोधी क्यों नहीं हो रहा? विपक्ष के हर ऐसे मार्च, रैली, धरना, प्रदर्शन को असल पक्षकार… यानी किसानों का साथ क्यों नहीं मिल रहा?
वह भी तब जब ऐसे सभी प्रायोजित, रचित आंदोलन केवल और केवल भाजपा शासित प्रदेशों में खड़े करने के प्रयास हुए, जिनके जरिये अन्ततः केंद्र सरकार के खिलाफ माहौल बनाना अंतिम उद्देश्य रहा।
इसका उत्तर किसान बहुत अच्छे से जानता है जिसने एनडीए सरकार के दौरान 2003-04 में किसानों के समस्याओं के दीर्घकालिक निदान के लिए गठित रंगनाथन कमेटी की 2006-07 में सौंपे सुझावों को पढ़ा है और उसके बारे में जानता है।
उसे पता है कि पिछले चार सालों के दौरान कृषि और किसानों को केंद्र में रख कर वर्तमान केंद्र सरकार 2004 से इस इरादे को जी रही है। स्वामीनाथन कमेटी ने सिफारिश की थी कि किसानों को बनियादी सुविधाएं सुनिश्चित की जानी चाहिए। इन बुनियादी संसाधनों में भूमि, पानी, बायोरिसोर्स, जमा और बीमा, टेक्नोलॉजी व नॉलेज मैनेजमेंट व बाज़ार शामिल है।
वर्तमान केंद्र सरकार इन्हीं सुझावों को ज़मीन पर उतारने को संकल्पित है, इस सत्य को पिछले चार सालों में कर्म के अखाड़े में… जय-किसान के जवान होते इस उम्मीद को भरोसे के रूप में देख, समझ और संभाल लिया है देश के किसान ने।
यही कारण हैं कि किसानों से लगायत दलित, मजदूर, आदिवासियों के नाम पर प्रायोजित सर्कस लगाने के खेल तो खूब होते रहे, हो रहे हैं और चुनावी साल में होंगे भी। लेकिन सत्य यह है कि देश का विपक्ष, कार्यकाल के अंतिम साल में चल रही केंद्र सरकार के विरुद्ध कोई भी सार्थक विरोध, जिसे जनसमर्थन भी हासिल हो, खड़ा न कर सका।
सेना एक नौकरी है और उसमें लोग रुपये कमाने जाते हैं! भूले तो न होंगे ये कलंकी शब्द