बँटवारे के समय गांधीजी ने ये शर्तें दिल्ली के हिंदुओं और सिक्खों पर लादी थी। मौलाना आज़ाद ने अपने India Wins Freedom में यह प्रसंग लिखा है, उसके वे साक्षी ही नहीं, बल्कि गांधी जी के दूत भी थे। संलग्न PDF (लिंक लेख के अंत में) में पृष्ठ 186-187 देखिये।
मौलाना लिखते हैं – “तदुपरान्त गांधीजी ने अनशन त्यागने के लिए अपनी शर्तें बताई। वे इस प्रकार थीं –
1. हिंदुओं और सिक्खों को मुसलमानों पर होते हुए हमलों को तुरंत रोकना होगा और मुसलमानों को आश्वस्त करना होगा कि आइंदा हम भाई बनकर रहेंगे।
2. हिंदुओं और सिक्खों को हर कोशिश करनी होगी कि जान माल के खतरे के कारण कोई भी मुसलमान भारत छोड़कर न जाये।
3. (पाकिस्तान जाती) चलती ट्रेनों में मुसलमानों पर जो भी हमले हो रहे थे वे तुरंत रुकने चाहिए और जो भी हिन्दू और सिक्ख उन हमलों में हिस्सा ले रहे हो, उन्हें रोका जाना चाहिए ।
4. निज़ामुद्दीन औलिया, कुतुबुद्दीन बख्तियार और नसीरुद्दीन चिराग दहलवी की मज़ारों के करीब रहनेवाले लोगों ने जो अपने घर त्यागे थे उन्हें वापस लाकर उनका पुनर्वसन करना चाहिए।
5. कुतुबुद्दीन बख़्तियार की दरगाह को कुछ क्षति पहुंची थी। सरकार उसकी मरम्मत करने को तैयार थी लेकिन गांधी जी उससे संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि इसकी मरम्मत और बहाली हिंदुओं और सिक्खों को बतौर पश्चाताप करनी चाहिए।
6. सब से महत्व की बात थी हृदयपरिवर्तन। उसके सामने बाकी मांगें महत्व नहीं रखती थी। हिदुओं और सिक्खों के नेताओं को उन्हें आश्वासन दिलाना था कि इस मुद्दे पर अनशन करने की उन्हें दुबारा जरूरत नहीं पड़ेगी।
“ये मेरा आखरी अनशन हो”, उन्होने कहा।
मैंने उनको आश्वासन दिया कि उनकी मांगें पूरी होंगी। मैं दो बजे की सभा में पहुंचा और ये शर्तें सब के सामने रखीं। मैंने उनसे कहा कि हम गांधीजी से मिले थे और उनको आश्वस्ति दिलाई थी कि वे अनशन छोड़ दें, लेकिन वे निरे वादों से माननेवाले नहीं थे। अगर दिल्ली के लोगों को उनकी जान बचानी हो तो उनकी शर्तें मनानी होंगी। क्या दिल्ली के लोग उनको यह आश्वासन देंगे? मैं यही जानने आया हूँ।
सभा में लगभग 50,000 स्त्री-पुरुष उपस्थित थे। एक आवाज़ से उन्होंने कहा कि हम उनके हर शब्द पर अमल करेंगे। हम अपने जान और दिलों की सौगंध लेकर कहते हैं कि हम उन्हें कोई कष्ट नहीं होने देंगे।
मैं बोल ही रहा था उतने में कई लोगों ने शर्तों की नकल उतारी और सभा में हाज़िर लोगों से दस्तखत लेने में लग गए। मीटिंग समाप्त होने से पहले हज़ारों ने साइन किया था। दिल्ली के डिप्टी कमिश्नर ने हिन्दू और सिक्ख नेताओं को साथ लिया और वे ख्वाजा कुतुबुद्दीन की मज़ार की मरम्मत करने के लिए चले गए।
साथ साथ दिल्ली में कार्यरत कई सोसायटीज़ ने सार्वजनिक शपथ ली कि वे अपने परिचय के लोगों में गांधीजी की शर्तों को पूरा करने के लिए काम करेंगी। उन्होने तो यह जिम्मा उठा लिया। शाम तक दिल्ली के हर क्षेत्र से सभी पार्टियों और गुटों के प्रतिनिधि मण्डल मुझे मिलने और आश्वस्त करने आए थे कि उन्हें गांधी जी की शर्तें स्वीकार थीं और मैं गांधीजी को अनशन तोड़ने की विनती करूँ।”
India Wins Freedom – Maulana Abul Kalam Azad, पृष्ठ 186 – 187, लिंक यह रहा – http://www.sanipanhwar.com/India%20Wins%20Freedom%20-%20Maulana%20Abul%20Kalam%20Azad.pdf
गौर करने की बात यह भी है कि गांधी जी ने मुसलमानों से ऐसी कोई आश्वस्ति नहीं मांगी, और ना ही आज़ाद ने इस मामले में कोई पहल की।
आप की प्रतिक्रिया नहीं पूछ रहा हूँ, लेकिन मैं अगर तब होता तो गांधी जी के पास एक अर्थी और मटका लेकर पहुंचता और उनसे कहता – बैठ जाइए आमरण अनशन पर, मैं आप पर नज़र रखने आया हूँ, यही रहूँगा। आप उपोषण करते रहिए, मैं मस्त खाना खाऊँगा आप के सामने। आप का साथ दूंगा आखिर तक, मटका पकड़कर श्मशान तक भी आऊँगा, देश की यह पनौती गई या नहीं यह सुनिश्चित करने!
लेकिन उन लोगों को क्या कहा जाए जिन्होंने ऐसी शर्तें मान ली?
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