समय समय पर विश्व मे ऐसी बड़ी परियोजनायें आती रही हैं जिनने न सिर्फ उस काल के इतिहास को बदला है बल्कि कई बार राष्ट्रों के शक्ति समीकरणों व उनके भूगोल को भी बदल डाला है।
वह चाहे ग्रेट वाल ऑफ चाइना हो या मेडिटेरेनियन सागर को लाल सागर से जोड़ने वाली मिस्र की स्वेज़ नहर हो या अटलांटिक व पैसेफिक सागर को जोड़ती पनामा नहर या ट्रांस साइबेरियन रेलवे या इंग्लैंड फ्रांस को समुद्र के नीचे से जोड़ने वाली चैनल टनल या फिर अमेरिका का हूवर डैम ही क्यों न हो।
लेकिन आज के काल मे जिस परियोजना पर सबकी नजर है वो इन सब पर भारी है। यह परियोजना, चीन के शिनजियांग प्रान्त से पाकिस्तान के बलूचिस्तान स्थित ग्वादर बंदरगाह तक जाने वाले हाइवे और उसके चारों तरफ बनने वाला इंडस्ट्रियल कॉरिडोर है।
इसे चीन पाकिस्तान इंडस्ट्रियल कॉरिडोर (CPEC/ सीपेक) के नाम से जाना जाता है। पाकिस्तान में बन रही इस परियोजना पर चीन 62 बिलियन डॉलर निवेश कर रहा है।
इस सीपेक को लेकर भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर में जितनी चर्चा, चिंता व आकांक्षाएं है उसकी पृष्ठभूमि में जहां चीन की विस्तारवादी नीति की छत्रछाया में पाकिस्तान पर 60 बिलियन का चीनी ऋण है, वहीं बलूचिस्तान में स्वतंत्रता के लिये रक्तिम संघर्ष व चीन का प्रवेश द्वार गिलगित बाल्टिस्तान भी है, जिस पर भारत का दावा भी है और आधिकारिक रूप से विरोध भी दर्ज किया है।
भारत समेत अमेरिका इस परियोजना की सफलता व असफलता में एक तरफ पाकिस्तान के भविष्य की गति देख रहा है, वहीं दूसरी तरफ चीन की विस्तारवादी नीति के प्रसार व उसके सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाने के खतरे के साथ, उसके राष्ट्रपति जिनपिंग के उत्थान व पतन को भी देख रहा है।
यह सीपेक, जिनपिंग की अतिमहत्वाकांक्षी आर्थिक रणनीति व योजना ‘वन बेल्ट वन रोड’ का ही एक भाग है और इसी रणनीति के क्रियान्वयन के कारण आज, जिनपिंग चीन के अनिश्चितकाल तक के लिये राष्ट्रपति बन गये हैं।
आज मैंने पहले सोच रखा था कि सीपेक को लेकर किये गये एक चित्तरजंक अध्ययन पर लिखूंगा, लेकिन एक समाचार ने विषय को बदल दिया है। मुझे लगता है कि आज जब पाकिस्तान में नई सरकार आ गयी है और पाकिस्तान अपनी आर्थिक विषमताओं में फंसा है, तब सीपेक पर एक नए दृष्टिकोण से चर्चा व उसके भविष्य पर आंकलन करना बड़ा आवश्यक हो गया है।
आज से तीन वर्ष पूर्व जब मैंने सीपेक को लेकर अपना अध्ययन बढ़ाया था तब मेरा मानना था कि चीन अपनी पूर्व की सफल नीति का अनुसरण करते हुये, पाकिस्तान पर इतना कर्ज़ लाद देगा कि अंततोगत्वा पाकिस्तान को चीन की शर्तों पर अपने एक बड़े भूभाग को लीज़ पर देना पड़ेगा और अगले 2-3 दशक में वह उसका उपनिवेश बन जायेगा। लेकिन अब नई परिस्थितियों में इसका फिर से विश्लेषण करना आवश्यक है। विशेषकर, भारत में लोगों को इसको लेकर आगे की संभावनाओं को नये प्रकाश में देखना व समझना ज़रूरी है।
इमरान खान जब से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने हैं, वे चुनाव पूर्व सीपेक को लेकर उनके द्वारा की गई आलोचना पर अब भी खड़े है। चुनाव के दौरान अपने भाषणों में इमरान खान यह बात बराबर कहते रहे हैं कि सीपेक में चीन व चीन की कम्पनियों से जो अनुबंध किये गये है वे न पारदर्शी हैं और न ही व्यवसायिक रूप से पाकिस्तान के लिये आर्थिक रूप से लाभकारी हैं। इस पर पाकिस्तान ने शुरुआती हिचक के बाद काम करना शुरू भी कर दिया है।
इसके पहले संकेत सऊदी अरब से आ रहे हैं। हालांकि यह संकेत पाकिस्तान की तरफ से ही आये हैं। इमरान खान ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के रूप में अभी अपना पहला विदेशी दौरा सऊदी अरब से शुरू किया है।
पाकिस्तान में एक विचार दृढ़ता पाता जा रहा है कि उसे अपने आर्थिक संकट से निपटने के लिये अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) से ऋण नहीं लेना चाहिये क्योंकि एक तरफ अमेरिका की तरफ से यह शर्त रखी गयी है कि इस ऋण से, पाकिस्तान किसी भी चीनी ऋण को नहीं उतार सकता है और दूसरा यह कि आईएमएफ की तरफ से जो आर्थिक सुधार लगाने होंगे, वो लगाना राजनैतिक रूप से आत्महत्याकारी होगा और पाकिस्तान आर्थिक दलदल में फंस जाएगा।
ऐसी हालत में, पाकिस्तान के पास एक ही रास्ता रह गया है कि वो अपने मित्र राष्ट्र सऊदी अरेबिया और चीन से लम्बी रकम उधार में लेकर अपना काम चलाये। लेकिन इसमें भी एक दिक्कत यह है कि पाकिस्तान की ज़रूरत बहुत बड़ी है… अगले बारह महीनों में 16 बिलियन डॉलर से लेकर 26 बिलियन तक, जो फिलहाल व्यवाहरिक नहीं लग रहा है।
इसी क्रम में संकेत मिले हैं कि सऊदी अरब सीपेक के अंर्तगत ग्वादर में ‘ऑइल सिटी’ के लिये 10 बिलियन डॉलर का निवेश करेगा और चीन ने भी इसके लिये हरी झंडी दे दी है। यदि यह 10 बिलियन डॉलर का सऊदी निवेश होता है तो इसका अर्थ यह है कि चीन जो इतना बड़ा निवेश कर के फंसता दिख रहा था, उसको एक सहारा मिल जायेगा और परियोजना के सफल हो जाने की संभावना भी बढ़ जायेगी।
दूसरा संकेत खुद पाकिस्तान के अंदर आये एक समाचार से आया है कि सीपेक के अंर्तगत बनने वाले पेशावर कराची रेलवे ट्रैक (मेन लाइन 1) जिसके लिये पाकिस्तान को 8.2 बिलियन डॉलर का चीनी ऋण मिल रहा था, उस प्रोजेक्ट में 2 बिलियन डॉलर की कटौती कर दी है, अब यह 6.2 डॉलर का प्रोजेक्ट हो गया है।
यही नही पाकिस्तान के रेलवे मंत्री शेख रशीद का कहना है कि वो इस प्रोजेक्ट में और कटौती कर के 4.2 बिलियन डॉलर तक लायेंगे जिससे कम ऋण लेना पड़े क्योंकि पाकिस्तान एक गरीब देश है और वह बड़े ऋण लेने की स्थिति में नही है।
यह इस बात का संकेत है कि पाकिस्तानी नेतृत्व यह समझता है कि सीपेक के अंर्तगत लिये जाने वाले ऋण कल उनके लिये मुसीबत बन सकते हैं। इसलिये वो अपनी भागीदारी के निवेश को या तो कम करेगा या फिर सऊदी अरब जैसे मित्र राष्ट्रों को इस परियोजना में शामिल करेगा ताकि उसकी बचत हो सके।
मैं समझता हूँ कि चीन ने पाकिस्तान को ऋण के जाल में फांसा ज़रूर है लेकिन पाकिस्तान ने दिवालिया हो जाने की स्थिति में खुद चीन को भी फंसा दिया है। चीन ने सीपेक में न सिर्फ बहुत बड़ा निवेश किया हुआ है बल्कि उसके साथ चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा व राजनैतिक भविष्य को भी दांव पर लगा दिया है।
यदि पाकिस्तान ने अपने मोहरों को ठीक से चला तो वो न सिर्फ सीपेक के अंर्तगत आने वाली योजनाओं का पुनर्मूल्यांकन कर उनकी कीमत कम करा सकता है बल्कि चीन पर रियायती दर पर ऋण देने का सफल दबाव भी बना सकता है।
इस सब के बीच सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सीपेक का सफल होना जहां पाकिस्तान के भविष्य के लिये आवश्यक है, वहीं स्वयं चीन व उसके राष्ट्रपति जिनपिंग के लिये विश्व प्रभुत्व की राह में भी जीवन मरण का प्रश्न है।
अब यह तो हो गयी पाकिस्तान व चीन की बात, लेकिन इस सबका जो प्रभाव भारत और अमेरिका की सामरिक नीतियों व मध्य पूर्व एशिया की राजनीति पर पड़ेगा व उनकी ओर से प्रत्युत्तर में जो कदम उठेंगे, उसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
आज जो संकेत मिले उसके आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि यह सीपेक वैश्विक पटल पर चूहे बिल्ली का खेल बन गया है जहां भूमंडलीकरण व चीन का विश्व का नेतृत्व करने की अभिलाषा ही दांव पर लग चुकी है।
मेरा आंकलन है कि सीपेक की स्थिरता, अमेरिका-चीन के बीच वाणिज्य व आर्थिक युद्ध को तीव्रता देगी। इसी के साथ इसकी संभावना भी बहुत बढ गयी है कि अमेरिका, कनाडा और मेक्सिको के बीच हुये ‘फ्री एंड फेयर ट्रेड एग्रीमेंट’ की तर्ज़ पर अमेरिका और भारत में ‘फ्री एंड फेयर ट्रेड’ समझौता हो जायेगा।
बाकी अभी तो परिणामों को समझने का नहीं बल्कि सिर्फ मोहरों की चालों को देखने व अगली 10वीं चाल को समझने का समय है।