केरल पर भाषण झाड़ने वाली नारीवादियों को कभी मालूम करना चाहिए कि आम जीवन में वहां स्त्रियों की क्या स्थिति है। किसी भी दूसरे राज्य से बेहतर स्थिति में हैं वहां की स्त्रियां। उन्हें संपत्ति में भी बराबर का अधिकार है। पूर्णतः मातृसत्तात्मक समाज है।
बिना कुछ जाने बकवास करने से दूर रहें। यह पूर्ण रूप से एक समुदाय विशेष का धार्मिक विधान है। जिसका पूरा सम्मान होना चाहिए। फालतू दिमाग लगाकर तर्कशास्त्री बनने से कुतर्कशास्त्री बनने का ही रास्ता बनता है।
वहां के कई मंदिरों में केवल नारियों का ही प्रवेश होता है। उसका क्या करें? एक मंदिर (चक्कुलतु कवु) में नारीपूजा होती है। महिलाएं दस दिन का व्रत रखती हैं और फिर मुख्य पुजारी उनके पांव धोकर पूजा करता है।
मन्नारसाला मंदिर की मुख्य पुजारिन महिला है। ये दोनों मंदिर सैकड़ों वर्ष पुराने हैं और लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं। अब क्या करें! यहां लैंगिक समानता नहीं चलेगी?
मेरा साला (श्रीधर अय्यर) सबरीमला की तीर्थयात्रा पर गया था। आज से दो वर्ष पहले मैंने उसे इस यात्रा की तैयारी करते हुए देखा था। यात्रा के चालीस दिन पहले उसने लगभग गृहस्थ संन्यास ले लिया था। जमीन पर दरी बिछाकर सोता था। पत्नी से पूरी तरह दूर रहता था। केश और नाखून भी उसने नहीं काटे थे। भोजन के नाम पर एक वक्त खाता था, बाक़ी फलाहार करता था।
अगर कभी गए नहीं। ना ही जाना और देखा है तो बकवास करना बंद कर दो। यह स्त्रीविरोध नहीं भारतीय अध्यात्म की विशिष्ट परंपराओं का विरोध है। सबरीमला की यात्रा कठोर धर्मानुशासन का पालन करने वाले ही करते हैं। पहले थोड़ा पढ़ो, देखो, जानो, आत्मसात करो फिर मुंह खोलो। उचक्का टाइप से बकर करने से साख गिरती है।
मेरे निम्नलिखित वक्तव्य पर कुछ विदुषी स्त्रीवादियों ने अयप्पा के ब्रह्मचर्य से लेकर पूरे विधान का उपहास किया। अज्ञान सबसे भयावह अंधकार है ऊपर से सबकुछ जान लेने का भ्रम तो जानलेवा ही समझिए.!
सबरीमला के भगवान अयप्पा स्वयं को नैस्तिक ब्रह्मचर्य कहते हैं। नैस्तिक ब्रह्मचर्य यानी रजस्वला स्त्री की छाया से भी दूर रहना। यह उनका अपना निर्णय है। उस निर्णय को हिन्दुओं ने स्वीकार किया। दस से पचास वर्ष की महिलाओं का प्रवेश वहां वर्जित रहा।
उसी केरल में ऐसे मंदिर भी हैं जहां विशेष अवसरों पर सिर्फ़ स्त्रियां ही जा सकती हैं। यहां तक कि मंदिर को जाती हुई गली में पुरुषों का प्रवेश मना हो जाता है। परंतु, इसके बारे में चर्चा कौन करे… क्यों करे… वहां लैंगिक समानता का प्रश्न कहां है?
वकील जे साईं दीपक ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अकाट्य तर्क रखे। उन्हें बताया कि हिन्दू पूजा पाठ और कर्मकांड की इस विविधता को बचाए रखना अधिक आवश्यक है। उसे बंगाली पुनर्जागरण वाले अंदाज़ में खत्म करना घातक होगा।
परंतु, संविधान के मर्मज्ञ कहां सुनते हैं! वैसे यह संविधान हमारे मंदिरों पर भी लागू है या इस संविधान से हजारों साल पुराना हिन्दू आस्था का कोई विधान है? क्या सबकुछ अदालत तय करेगी? क्या वह नैतिक और धार्मिक मूल्यों को नियंत्रित करने वाली सर्वोच्च संस्था है? क्या वह हमें यह बताने को अधिकृत है कि इस ऊंचाई तक ही दही हांडी फोड़ो! इतने रंग बहाओ.. इतनी फुलझड़ियां चलाओ!
अब कल कोई नारीवादी कह सकती है कि हनुमान ब्रह्मचारी नहीं थे। मकरध्वज उनका पुत्र था! ज़रा हनुमान की पत्नी का पता लगाओ! क्या पता अदालत हनुमान जी को फटकार लगाते हुए उन्हें पुरुषवादी कह दे! जैसे हमारे प्रभु श्रीराम शोध और प्रयोग के पुरुष बनाए जा रहे हैं। महान दार्शनिक लिख कर चला जाता है, O man, he left his wife!
सबरीमला को लैंगिक समानता से जोड़कर दिया गया निर्णय ऐतिहासिक रूप से निम्न स्तर का है जो न सिर्फ हिन्दुओं की आस्था में अनावश्यक घुसपैठ करता है बल्कि एक पारंपरिक पश्चिमी शैली में समानता का बेबुनियाद ज्ञानोपदेश भी देता है। यह हमारी सदियों की धार्मिक स्वतंत्रता को विच्छिन्न कर हमें अपराध बोध से भरने का षड़यंत्र है। हमें यह बताने की कोशिश है कि तुम हिन्दू पतनशील, अधोगामी और भेदभावमूलक हो!
इस देश में लाखों मंदिर हैं। सैकड़ों पूजा पद्धतियां हैं। सब पर टीका टिप्पणी शुरू हो जाय तो श्रेयस्कर! क्यों हाकिम साहब, सारा संविधान, सारी प्रश्नाकुलताएं, सारे समानता के अधिकार और सारे उपदेश, रद्दोबदल तो हिन्दुओं के तीर्थ में ही होगा न साहब! बाक़ी जगहों पर सबकुछ आधुनिक, समानतावादी और महान ही है !!!