त्रेता युग और हम

त्रेता… मानव इतिहास का द्वित्तीय युग… लंका का युद्ध क्षेत्र…

दोनों ओर से घनघोर युद्ध चल रहा था, धूल, चीख़, पुकार, रक्त रंजित धरती कांप उठी थी। यह पृथ्वी के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था।

पृथ्वी के दो महानतम योद्धा एक दूजे के सम्मुख थे। भगवान राम के अनुज लक्षमण और इंद्र को जीत लेने वाले, रावण के पुत्र मेघनाथ।

रावण की सेना निरंतर हार रही थी। लक्ष्मण ने अपने प्रताप से लंका की सेना में हाहाकार मचा दिया था।

ऐसे में मेघनाथ और लक्ष्मण का यह युद्ध इतिहास में अमर होने वाला था। मेघनाथ निरंतर तीरों की वर्षा करते, किंतु लक्ष्मण उन्हें निष्क्रिय कर देते। घंटों यह क्रम चलता रहा।

अंततः मेघनाथ को लक्ष्मण का प्रताप, युद्ध कौशल, देखते हुए उस अंतिम अस्त्र का उपयोग करना ही पड़ा जो इंद्रजीत ने सर्वाधिक कठिन योद्धा को परास्त करने रखा था।

शक्ति अस्त्र का कोई तोड़ पृथ्वी पर नहीं था। यह अस्त्र मात्र मेघनाथ के ही पास था।

भगवान राम की सेना में अचानक स्तब्धता आच्छादित हो गई थी। लक्षमण जी, मूर्छित थे।

भ्राता राम ने गोदी पर सर रख, शांत, संयत मन से कहा था हनुमान को – “जाओ हनुमन, लंका में ‘सुषेण वैद्य’ हैं, उन्हें लेकर आओ।”

वैद्य महाराज सो रहे थे, उन्हें खाट सहित हनुमान उठा लाये थे।

वैद्य महाराज की नींद खुलते ही उन्होंने देखा, युद्ध भूमि में सन्नाटा है तो उस ओर अट्टाहास।

तीर, कमान, तलवारें, रक्त, कटे सर बिखरे हुए थे।

मूर्छित लक्ष्मण का सर, गोद में रखे राम संयत थे। वानर सेना दुःखी मन से घेरा बनाये खड़ी थी।

तभी त्रेता युग में एक इक्कसवीं सदी का मानव पहुंचा दिया गया था। इस युद्ध क्षेत्र में। संजीवनी बूटी की खोज में, जिससे इक्कीसवीं सदी के मानव का उद्धार हो सके।

मानव, वानरों के बीच खड़ा था…

एक वानर के कान में खुसुर फुसुर कहता है… “देखो, वैद्य सो रहा था।”

वानर : “हे मानव, वैद्य महाराज को थोड़े न पता था लक्ष्मण मूर्छित हो जाएंगे।”

सुषेण वैद्य लक्ष्मण जी की नब्ज़ टटोल रहे थे… नब्ज़ और आंखों के परीक्षण के बाद बोले – “संजीवनी बूटी लानी होगी।”

भगवान राम ससम्मान कहते हुए : ” कहाँ मिलेगी, यह बूटी वैद्य महाराज।”

इस बीच मानव, वानर से : “लक्ष्मण मूर्छित हैं, ये कुछ कर क्यों नहीं रहा, ज़ल्दी, बेकार वैद्य है।”

वानर : “हे मानव, इतने अधीर क्यों, जांच करना भी तो कुछ करने का ही अंग है न? वे समझ जाएंगे कैसे ठीक होंगे। तब ही न आगे का इलाज करेंगे।”

वैद्य महाराज : “हे भगवन, इन्हें शक्ति अस्त्र लगा है, ऐसा दंश पहले कभी पृथ्वी पर नहीं देखा गया। अतः इसकी बूटी भी कोई वैद्य नहीं रखता। हाँ, द्रोण पर्वत पर यह प्राप्त की जा सकती है, किंतु वह समुद्र पार बहुत दूर है।”

भगवान राम ने अपने शांत, निश्छल नेत्र हनुमान की ओर मात्र उठाये थे और हनुमान समझ गए थे। घुटनों के बल आ कर प्रणाम कर उन्होंने कहा था, “अभी लाता हूँ भगवन।”

इस बीच मानव वानर से : “बताओ, इतनी दूर एक दवा लेने भेज रहा है, अवश्य इसका कोई प्रॉफिट होगा।”

वानर : “प्रॉफ़िट? ये क्या होता है मानव?”

मानव : “अरे वही,… प्रॉफिट मतलब… लाभ… भूल ही जाता हूँ त्रेता में आया हूँ।”

वानर : “हे मानव, बड़े संदेही प्रतीत होते होते हो। मानव, मानव पर संदेह करेगा तो कैसे जी पायेगा।”

हनुमान इस बीच जड़ी का आकार, प्रकार, रंग रूप समझ उड़ चले थे।

किंतु अनेकों बाधाएं राह में आती रहीं। कालनेमि राक्षस से कहीं लड़ना पड़ा, तो कहीं भरत का तीर आसमान में लग गया।

किसी तरह जब द्रोण पर्वत श्रृंखला में पंहुचे तो राक्षसी तप से सारी पत्तियां, एक सी दिखने लगीं।

जब संजीवनी बूटी सुषेण वैद्य के बताए अनुसार नहीं मिल पाई तो हनुमान जी ने सम्पूर्ण पर्वत हाथों में उठा लिया।

यहां, समय बीतता जा रहा था। वातावरण में दुःख था, संवेदना थी लेकिन अधीरता नहीं थी।

मानव, वानर से : “इतनी दूर भेजा है कि कुछ हो ही नहीं सकता। अस्पताल नहीं है आप लोगों के पास।”

वानर : “ये शब्द कुछ सुना सा लगता है,… वैसे क्या है ये।”

मानव सर पीटकर, “ऐसे तो वे न बच पाएंगे। चिकित्सक बदल दो। किसी और शहर ले जाओ। अरे कम से कम सेकंड ओपिनियन तो करवाओ।”

आख़िरकार, हनुमानजी सम्पूर्ण पहाड़ ले आते हैं। वैद्य कुछ पत्तियां पीसकर लक्ष्मण जी के मुंह में रस टपकाते हैं। और भगवान राम से कहते हैं, “भगवन कुछ देर प्रतीक्षा कीजिये और, मुझे आशा है वे मूर्छा से वापस आ जाएंगे।”

मानव, वानर से : “झूठ बोल रहा है ये, वापस न आये तो, इसे यहीं तीर से भेद देना।”

वानर: “कैसी बात कर रहे हैं मानव आप, वे हमारी सहायता के लिए आये हैं। लक्ष्मण हमें जान से अधिक प्यारे हैं। लेकिन लाभ न होने पर अपने ही सहायक को तीर से भेद देना?…

भगवान राम कहते हैं, हिंसा का उपयोग मात्र हिंसा पर नियंत्रण पाने किया जाना जाना चाहिए। वैसे तो हमें आशा है वैद्य महाराज सही होंगे।

देखो भगवान राम की आंखों में आत्मविश्वास है। फ़िर भी वे मूर्छा से वापस न आ पाए तो भी भगवान राम वैद्य महाराज को ससम्मान युद्ध भूमि से बाहर घर तक पहुंचाएँगे।”

मानव मन में सोचते हुए : कितने emotional fool हैं ये लोग।

किंतु कुछ समय बाद, लक्ष्मण जी की मूर्छा समाप्त हो गई थी। ख़ुशी की लहर वानरों में बहे जा रही थी। भगवान राम तब भी संयत थे। हल्की मुस्कुराहट के साथ।

वैद्य महाराज की जय के उद्घोष के साथ उन्हें कंधे पर बैठा, घर तक छोड़ा गया था।

मानव, वैद्य के पीछे पीछे भागता गया था। इसके पहले ज़ल्दी ज़ल्दी उसने पर्वत पर लगी अलग अलग बूटी तोड़ कर पेंट के जेब में रख लीं थीं।

वैद्य के घर में मानव : “हे वैद्य महाराज इनमें से कौन सी संजीवनी बूटी है, मुझे बता दो। मुझे अपना क्लिनिक, अपना अस्पताल खोलना है।”

वैद्य : “हे मानव, जिस जड़ी बूटी का ज़िक्र तुम कर रहे हो वह यह जड़ी नहीं है।”

मानव : “किंतु, महाराज, मैं तो उसी पर्वत से इसे तोड़ कर लाया हूँ। देखो यही तो शायद आपने लक्ष्मण जी को दी थी।”

वैद्य : “मैंने जिस जड़ी का उपयोग किया था, वह था समय। लक्ष्मण एक बलिष्ठ योद्धा हैं, जिनके साथ भगवान राम के आशीष हैं। वे नागपाश से समय निकलने के साथ साथ निकलते जाएंगे। स्वयं उनका शरीर इसमें सक्षम है वत्स।

अतः मैंने हनुमान को सुदूर भेज, उस समय को संयत होकर निकल जाने दिया। इस समय के बाद तुम भी कोई भी जड़ी दे देते तब भी वह स्वस्थ हो जाते। विश्वास और समय मिलकर ही संजीवनी बूटी बनते हैं।

यह चिरनिरंतर काल तक चलता रहेगा। वैद्य का काम, बुद्धि, अनुभव यह जानने में है कि समय और विश्वास मिलकर कितना समय लेंगे किसी को स्वस्थ करने में। अधिकांश बीमारियां यूँ ही ठीक होती रहेंगी।”

मानव, जड़ी लेकर लौट आया था। समय और विश्वास की। उसने तय किया था, न वह किसी का विश्वास तोड़ेगा, न ही किसी पर संदेह करेगा।

क्या IMA जैसी चिकित्सकीय संस्थाएं ऐसे फर्ज़ी दावे करने वालों को जानबूझ कर खुला छोड़ देती हैं?

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