रेगिस्तान की स्वतः उगी काचरी की यह विशेषता होती है कि वह शतप्रतिशत ऑर्गेनिक होती है। रेगिस्तान में वर्ष में प्रायः30 दिन ही नमी रहती है, शेष समय सूखा रहता है। इस भूमि में वर्ष में एक ही फसल होती हैं और वर्षा के अतिरिक्त कोई सिंचाई नहीं की जाती, ऐसी भूमि पर उगी काचरी बिल्कुल प्राकृतिक आस्वाद लिए होती है, जिसे मुँह में रखते ही चमत्कार जैसा अनुभव होता है। इसकी सुगंध अत्यंत मादक होती है।
यह ककड़ी वर्गीय लता है, जिसकी कई प्रजातियां होती हैं। इसकी जितनी छोटी साइज होती है, उतना ही खट्टापन ज्यादा होता है। बड़ी साइज की ककड़ी, जिसे चिभड़ी कहते हैं, मधुर और गूदेदार होती है। छोटी काचरी में छिलका और बीज ही होता है। पर इसका बीज भी गुणकारी, तैलीय, तीव्र पाचक और अम्लीय होता है।
इन्हें मेवे की तरह सुखाकर, वर्ष भर काम लेते हैं। आजकल जहां ट्यूबवेल या नहरी पानी से सिंचाई होती है, उस भूमि पर उगी चिभड़ी में वह स्वाद नहीं होता।
काचरी के साथ ग्वारफली, टिंडसी, मूंग, मोठ आदि की भी सब्ज़ियाँ बनती है। रेगिस्तान में रोटी के साथ छाछ, दही, मक्खन, घी और ये सब्ज़ियाँ खाई जाती हैं। इनका सामूहिक नाम ओलन है।
ओलन शब्द कहाँ से आया, मैं नहीं जानता, लेकिन यह अत्यंत आश्चर्य का विषय है कि केरल में भी भात के साथ जो मसालेदार रस परोसा जाता है, जिसके अभाव में भात खाया नहीं जा सकता, उसे भी ओलन ही कहते हैं। बिना ओलन के भोजन करने से टुम्पा आता है, ऐसी यहाँ उक्ति चलती है।
अब मैं आपको एक सरल राजस्थानी भोजन के बारे में बताता हूँ।
2-3 टुकड़े काचरी, 2-3 मथानिया लालमिर्च, 4-5 कली लहसुन, थोड़ा सा नमक और कड़ी पत्ता लेकर शिला पर पीस लीजिए। यदि शिला नहीं है तो गंगानगर की खरल में केर की लकड़ी से बने घोटे से भी इसे पीस सकते हैं।
इसमें थोड़ा सा पानी और नमक डालकर अच्छी तरह से पेस्ट बना लें।
अब, रोट बनाने के लिए, आटे को गूंथकर, एक ही रोटा बना लें। (एक kg आटे से, 9 इंच व्यास, और एक इंच चौड़ाई वाला रोट बनेगा, ) उपलों की आंच पर उसे पहले ऊपर से सेक लें, फिर उसी गर्म राख में एक घण्टे के लिए दबा दें।
एक लीटर पतली छाछ, बस हो गया भोजन।
इस भोजन में शून्य सिंथेटिक, शून्य कोलेस्ट्रॉल, शून्य शुगर और शून्य फैट है।
इसका स्वाद अवर्णनीय होता है। हर आयु वर्ग, को यह आसानी से खिलाया जा सकता है और कोई साइड इफ़ेक्ट नहीं।
पुराने समय से ही, घुमन्तु जन इसी भोजन को करते आये हैं।
जब रोट को तोड़ा जाता है, उसमें से गजब की गर्म महक आती है।
एक टुकड़ा चूर कर, गुड़ घी डाल कर चूरमा भी बनाया जा सकता है।
चटनी का लाल, तीखा रंग, राजसी सुगंध और छाछ की ठंडक, यह इंद्र के भोज जैसा अनुभव देता है।
घर से दूर गये लोग, पशुपालक, कृषक, परिव्राजक इसी भोजन को करते थे।
कोई बिजली नहीं, गैस भी नहीं, फ्रिज और मसालों का झंझट भी नहीं, जंगल में मंगल, चटनी घर से बनाकर ले जाओ, छाछ की बोतल भर दो, आटा तो कपड़े पर भी गूंथा जा सकता है।
काचरी का छोटा फल, बेल सहित तोड़कर रखने पर, यह होली तक भी सूखता नहीं है।
सितम्बर अक्टूबर में तो यह लगभग फ्री में मिल जाता है।
भारतीय व्यंजनों और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप विकसित, इन भोजन पद्धतियों से दूर जाकर, यंत्रीकरण में फँसकर, आज हम सिंथेटिक जहरीले षड्यंत्र में फंस चुके हैं और सोचते हैं, दवाओं से स्वस्थ हो जाएंगे, हास्यास्पद है।