आपने दिल्ली मेट्रो में अगर यात्रा की है तो प्लेटफार्म पर उस ‘निर्देश’ पर ध्यान अवश्य गया होगा जिसमें लिखा है कि 95% यात्री पीली लाइन के पीछे खड़े होते हैं।
कभी आपने सोचा है कि क्यों वह निर्देश सीधे-सीधे यह नहीं कहता है कि पीली लाइन को पार मत कीजिये या उसके बाहर मत खड़े होइए?
अर्थशास्त्री ऐसा मानते थे कि मनुष्य अपने व्यवहार में विवेक का प्रयोग करते हैं। लेकिन एक अन्य अर्थशास्त्री रिचर्ड थेलर ने सोचा कि अगर यह सत्य है तो लोग क्यों पीली लाइन पार करके आती हुई ट्रैन के निकट खड़े हो जाते है? क्या उन्हें अपनी जान का खतरा नहीं है? क्यों नहीं लोग पब्लिक निर्देशों का पालन करते है?
थेलर का यह मानना था कि मनुष्य एक अतार्किक जीव है। उन्होंने यह स्थापित किया कि लोग तर्कपूर्ण निर्णयों से सिलसिलेवार तरीके से दूर भागते है जिससे कि उनके व्यवहार को पहले से ही समझा जा सकता है और उसके अनुसार पब्लिक पॉलिसी बनाई जा सकती है।
अगर दिल्ली मेट्रो आपको कहे कि पीली लाइन पार मत करिये, तो आप अवश्य उस निर्देश की अवहेलना करेंगे। लेकिन अगर वह आपको बतलाये कि 95% यात्री पीली लाइन के पीछे खड़े होते है, तो आप उन 95% यात्रियों में शामिल होना चाहेंगे, ना कि पांच प्रतिशत लोगों के साथ खड़े होना चाहेंगे। यही मानव मनोविज्ञान है।
उनका मानना था कि मानव, बाज़ार में न्यायसंगत व्यवहार (fairness) की अपेक्षा करता है। दूसरे शब्दों में, वह व्यापारियों, एम्प्लायर, मकानमालिक, सरकार, कॉर्पोरेट जगत, सबसे यह आशा करता है कि वह उसे – कस्टमर और कर्मचारियों को – उनकी निगाह में नुकसान का सौदा या व्यवहार नहीं देगा। लेकिन अगर वह व्यापारी या सरकार अपने ‘हक़’ या entitlement को बचाने के लिए नुकसान पहुँचाता है, तो कस्टमर उसे स्वीकार कर लेगा।
उदाहरण के लिए, अगर भारी वर्षा के समय दुकानदार छाते का दाम दुगना कर दे, तो अधिकतर कस्टमर को भीगना मंजूर होगा, लेकिन वह जेब में पैसा होते हुए भी छाता नहीं खरीदेंगे।
एक दूसरा उदहारण लीजिये। किसी दुकान में एक कर्मचारी को 500 रुपये प्रतिदिन का वेतन मिलता है। निकट ही एक बड़ी फैक्ट्री बंद हो जाने से लोग 400 रुपये में काम करने को तैयार हैं। उस दुकान के मालिक ने अपने कर्मचारी का वेतन घटा कर 400 रुपये कर दिया।
जब कई लोगों से एक प्रयोग के समय पूछा गया कि सौ रुपये वेतन कम करना उचित था या अनुचित, तो 83% लोगों ने इसे अनुचित बताया, भले ही दुकानदार को घाटा हो जाए। लेकिन फिर उस अर्थशास्त्री ने प्रश्न थोड़ा सा बदल दिया और कहा कि उस दुकानदार ने दुकान बेच दी और नए दुकानदार ने कर्मचारी को 400 रुपये वेतन पर रख लिया। अब 73 % लोगो को यह व्यवहार स्वीकार्य था।
रिचर्ड थेलर को पिछले वर्ष अर्थशास्त्र का नोबेल प्राइज़ मिला था।
अतः, किसी भी राजनीतिज्ञ के लिए यह जानना आवश्यक है कि जनता को कौन सी कार्रवाई स्वीकार्य है और कौन सी नहीं। किसी भी कठिन निर्णय को स्वीकार करने के पहले जनता यह देखेगी कि वह निर्णय न्यायसंगत या fair है कि नहीं।
प्रधानमंत्री मोदी जी के नोटबंदी, GST, आधार लागू करना, आयुष्मान भारत, उज्जवला, जन धन योजना, राफेल खरीदने के निर्णय को बहुसंख्या जनता fair या न्यायसंगत मानती है। वह 500 रुपये के बजाय 400 रुपये में काम करने को तैयार है, यानि कि कुछ कष्ट सहने को तैयार है क्योकि ‘दुकानदार’ नया है और भ्रष्टाचार की फैक्ट्री बंद हो गयी है जिससे कई लोग बेरोज़गार हो गए हैं।
उसे पता है कि स्वतंत्रता के बाद नेहरू राजवंश की कृपा से जमे हुए अभिजात्य वर्ग का प्रधानमंत्री मोदी रचनात्मक विनाश कर रहे हैं। विपक्ष और पत्रकार कितने भी कुतर्क विरोध में दें, उनका कोई असर नहीं पड़ने वाला।