अतिराष्ट्रवाद वर्तमान सरकार की सबसे कमजोर पक्षों में रही है। बीते सवा चार वर्षों में ऐसे कई मौके आए जब ऐसा लगा कि सरकार एंटीबायोटिक की तरह देशभक्ति का डोज जबरदस्ती देना चाहती है। यूजीसी द्वारा विश्वविद्यालयों को ‘सर्जिकल स्ट्राइक डे’ मनाने संबंधी सर्कुलर इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है। ऐसा करने के तमाम नुकसानों में एक यह भी है कि ऐसा करके वो जनता पर अविश्वास जता रहे होते हैं। जैसे देश का जनमानस नैसर्गिक रूप से राष्ट्रभक्त नहीं है।
हर बात में नुक्स निकालने की हम भारतीयों की आदत तो वैसे भी है। नकारात्मक पक्षों पर ध्यान देते वक्त उसके सकारात्मक सिरे को हम अक्सर छोड़ जाते हैं। हमने बचपन से ही भारतीय समाज के उत्सवधर्मिता के विषय में पढ़ा हूं। करीब-करीब तभी से हम पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू के उस तस्वीर को देखते आए हैं जिसके विषय में कहा जाता है कि नेहरू ने दुनिया के सामने भारत की सपेरों वाली छवि पेश की थी। ठीक ही तो किया था। हम सपेरों के देश ही तो हैं। हम औघरों के, अक्खड़ों के, पीरों के देश ही तो हैं। आप मानिए या नहीं लेकिन वो सपेरे, नट, जोगी, सारंगी वाले हमारी परंपराओं के अभिन्न अंग हैं।
दुर्भाग्य से उन्हें देखने वाले हम आखिरी पीढ़ी थे। दुर्भाग्य इसलिए क्योंकि उसके बाद भारत के गांवों में शहर की ओर भागने की होड़ लगी और फिर उन सपेरों, जोगियों, ढोलकियों ने अपने परंपरा के ऊपर शहर जाकर मजदूरी करने को वरीयता दी।
भारतीय अर्थव्यवस्था परंपरागत रूप से किसानी पर आश्रित कही जाती है, लेकिन उसी भारत की सबसे बड़ी विडंबना ये है कि शहर तो दूर गाँव मे रहने वाले बच्चे भी आज धान और गेहूँ के पौधे का अंतर नहीं बता सकते। उनके लिए आलू फैक्ट्री में बनती है। उसना चावल पर नाक सिकोड़ते हैं लेकिन उसी को दूसरे नाम वाले पैकेट में सैकड़ो रुपए किलो खरीदते हैं। वो मक्के के पौधे को नहीं पहचानते, मक्के और जनेरे का अंतर तो खैर छोड़ ही दीजिए। सावन के महीने में वो भांग कहने पड़ ‘कांग्रेस घास’ तोड़ के ले आते हैं। कई सामान्य रूप से पाए जाने वाले पेड़ों को मैं भी नहीं पहचान पाता।
हम श्रमजीवी थे, पिछले कुछ दशकों के विकास ने हमसे हमारी वो पहचान छीन ली थी। हमारे श्रमजीवी उपेक्षित हो चले थे। इसमें दोष किसका था वो अलग प्रसंग है लेकिन हमारा सच बस इतना था कि हमने अपने पहचान को त्याग दिया था। जरा कुछ साल पीछे का समय याद करिए, दरवाजे पर आए सपेरे या जोगी के प्रति आपका रवैया कैसा होता था? शादियों में ढोल बजाने वालो के विषय में आप क्या सोचते थे? फिर ऐसे में उनका अपने मूल को छोड़कर पलायन कर जाना तो स्वाभाविक था ही।
मगर बीते कुछ सालों में उन्हें उनका सम्मान वापस दिलाने के दिशा में जबरदस्त काम हुआ है। भारत सरकार के कामकाज की समीक्षा करते हुए टॉप परफॉर्मर्स का जिक्र करते वक़्त हमारे विशेषज्ञ हमेशा एक ऐसे मंत्रालय को भूल जाते हैं जहाँ शानदार काम हुआ है। कई बार अच्छी चीजें अनजाने में घट जाती हैं मगर। दिल्ली आने के बाद सड़क पर बेवजह टहलने की हमारी आदत लगभग खत्म सी हो गई है। यहाँ कभी अगर टहलने का मन हुआ तो हम राजपथ चले जाते हैं। वहाँ के शोर में एक अलग शांति होती है। परसो रविवार होने के कारण हमें ये मौका मिल गया था। घूमते हुए ही पता चला कि राजपथ पर पर्यटन पर्व का आयोजन हो रहा है।
इन सालों में संस्कृति मंत्रालय ने भारत के ‘देस’ की पहचान को पुनर्स्थापित करने के दिशा में शानदार काम किया है। इसके पहले सांस्कृतिक आयोजनों के नाम पर हमारे पास सैफई महोत्सव जैसे उदाहरण होते थे। आप कभी सोच भी सकते थे कि बिहार के गाँवो में जो ‘झिझिया’ विलुप्त सी हो चुकी है उसके कलाकारों को करोड़ो के मंच पर अपनी कला के प्रस्तुति का मौका मिलेगा? आप सोच सकते थे कि तमिलनाडु के जिस ‘ढोलूकुनिता’ के कलाकारों को हिन्दी की एक शब्द भी नही आती वो भदेस हिन्दी प्रदेश के कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे और हज़ारों की भीड़ उन्हें देखेगी।
बहरहाल वहाँ पहुँचते ही हम डेढ़ साल पीछे लौट चुके थे। बनारस का राष्ट्रीय संस्कृति महोत्सव मेरे आँखों से गुजरने लगा था। ऐसा नही है कि अब से पहले ऐसे आयोजन नही होते थे, लेकिन मार्केटिंग में पैकेजिंग और रिपैकेजिंग का बड़ा महत्व होता है। नेहरू की तस्वीर में जो फटा-पुराना सपेरा था, अब उसकी तस्वीर बदल चुकी है। अब उसे लोग बीन-जोगी के नाम से जानते हैं। अब जहाँ वो धुनि रमाता है तो देखने को हज़ारों के तादाद में लोग पहुंचते हैं। विदेशी पर्यटक उसकी तस्वीर लेते हुए हर्ष के पारावार पर होते हैं। हुआ कुछ नहीं है, बस तरीका बदल गया है। अब से पहले जो कार्यक्रम बंद ऑडिटोरियम में चुने हुए लोगों के सामने होते थे, उन्हें शासन ने सड़कों पर ला दिया है। लोक की कला को लोक के हवाले कर दिया है।
सोचिए जरा कि एक मंच हो, उस पर कश्मीर हो, मणिपुर हो, अरुणाचल हो, असम हो, पंजाब हो तमिलनाडु हो, राजस्थान हो, बिहार भी हो और ब्रज, मथुरा, काशी भी। वहाँ जो कलाकार हों वो हमारे-आपके बीच के गाँव के वो लोग हो जिन्हें मंच से उतरने के बाद इस बात की चिंता भी हो कि अभी जब वो दिल्ली में हैं, तब कहीं भारी बारिश ने गांव के उनके खेत के धान के पौधे को बहा तो नही दिया होगा! उन्हें बाढ़-सुखाड़ सबकी चिंता हो।
मगर जब वो मंच पर हों तो उनमें एकसाथ पूरा भारत झलक रहा हो। छुपे हुए भारत को ढूंढ कर यूँ सम्मानित करने के इस प्रयास की सराहना तो होनी ही चाहिए। वर्ना जो अपनी पहचान को भूलकर पलायन कर बैठे थे उन्हें इसकी उम्मीद क्या कल्पना भी नही थी। भारत और भारतीयता के प्रति हमारे भीतर जो भावशून्यता सी विकसित हो रही थी उसे तोड़ने के दिशा में ये बड़ा कदम सिद्ध होगा।
राष्ट्रीय संस्कृति महोत्सव से जुड़ने के बाद मैंने इन कलाकारों के साथ-साथ मंत्रालय के अधिकारियों के लगन को भी देखा था। यकीन मानिए कि कार्य के प्रति श्रद्धा हो तो सब सम्भव हैं। वो सच मे सामान्य लोग हैं। वो सुदूर भारत के अनपढ़ लोग इस सम्मान से अभिभूत हो जाते हैं। उनके लिए ये बहुत बड़ी चीज होती है। पर्यटन पर्व में हमें तब के कुछ कलाकार मिल गए थे। उनकी खुशी देखने लायक थी।
राजस्थान के बनवारी लाल जी लोगों के साथ सेल्फी में आना छोड़ हम से बात करने लगें थे। भावुक होकर कहानियां बताने लगे थे। उनके शब्द थे, ‘बहुत अच्छी भेंट हो गई सर जी। आपलोग बहुत बड़े अफसर बनना और हमलोगों को याद रखना।’ हम उन्हें बमुश्किल जानते थे, लेकिन सब हमारे साथ घर-परिवार और बनारस के मित्रों का हाल पूछ रहे थे। यही भारत के संस्कार हैं। इससे जुड़े उन अधिकारियों को भी मेरा आभार कि एक हफ्ते के उस छोटे साथ को इतना वक़्त बीत जाने के बाद भी उन्हें हमारे नाम और चेहरे तक याद रहें।
इसके अलावा वहाँ राज्य सरकारों ने भी अपने स्टॉल लगा रखे हैं जहां से आप उनके राज्य और पर्यटन के विषय मे जानकारी ले सकते हैं। क्या नागालैंड और क्या कश्मीर सब हैं वहाँ। हालांकि तमाम संभावनाओं वाले उड़ीसा, छतीसगढ़ और गोआ जैसे राज्यों की नामौजूदगी खटक रही थी। अगर आप भारत के व्यंजनों और आर्ट-क्राफ्ट के शौकीन हैं तो निराश नही होंगे। अगर आप दिल्ली में हैं तो समय निकाल कर अगले दो दिनों में राजपथ हो आइए। इतने कम समय और पैसों में इंडिया घूमने का मौका सच मे न नहीं मिलेगा। हाँ साथ में एक छाता और बैग रख लीजिएगा। मौसम सुहावना हुआ पड़ा है, इसलिए मेरी तरह जूते पहन के जाने की गलती मत कर बैठिएगा।
अपनी संस्कृति में अगाध निष्ठा ही राष्ट्र तथा राज्य-सत्ता का आधार हो सकती है