मेरे राम और सीता निर्वासन

“गजानन” का पखवाड़ा है, गणपति का, गणेश का। यों ही नहीं अनुराग आजकल “गजचिंतन” कर रहे हैं।

“गजचिंतन” अनवरत चलेगा, किंतु आज का विषय “गजोद्धरण” हेतु, अर्थात् गज का उद्धार करने वाले मेरे राम!

वैसे भी प्रभु के सहस्रों नाम हैं। “गजोद्धरण” नाम पर विमर्श करें तो यह नाम सर्वप्रथम “गर्ग” मुनि ने अपनी गर्ग संहिता के अश्वमेध खंड में प्रयोग किया है।

इस विषय पर तर्क वितर्क करना अकारथ ही है, कि क्यों राम ने सीता को निर्वासित किया। ये तथ्य रामायण के आदि स्वरूप वाल्मीकि रामायण में है ही नहीं।

ये तथ्य ही पूर्णतया असत्य है। अतएव, हमें इस बिंदु पर पहुँचने में कोई कठिनाई नहीं कि सीता निर्वासन हुआ ही नहीं था।

अब चर्चा इस बिंदु पर होगी कि ये प्रसंग आया कहाँ से, और जनमानस के भीतर इतने गहरे पैठ गया। लगभग शत प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि सीता का निर्वासन हुआ था।

और उसके बाद वे राम के बचाव हेतु तर्क के भवन का निर्माण करते हैं। भला असत्य को असत्य सिद्ध करने हेतु तर्क का क्या प्रायोजन?

आप तो बस इतना जानिए कि ये तथ्य ही निराधार है।

अब आप “सीता निर्वासन” की समस्त असत्य कथाओं को सुनिए। जो अधिकतम डेढ़ हज़ार वर्ष पूर्व लिखी गयी हैं।

“अंत्योदय” भाषा का प्रयोग कर रहा हूँ, ताकि अंतिम व्यक्ति को भी ये बात पहुँचे कि वास्तव में सीता निर्वासन हुआ ही नहीं था। ये पूरा प्रसंग ही असत्य है।

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प्रसंग का आरंभ, जैन राम कथाओं से होता है।

जैनों में रामकथा लिखने का प्रथम प्रयास “विमल सूरि” ने किया। इनका काल तीन सौ से चार सौ ईसवी के मध्य का है। भिन्न मत से संबद्ध होने के पश्चात् भी श्री विमल को रामकथा ने क्यों लुभाया, ये तो “जिन्” ही जानें।

श्री विमल अपने ग्रंथ “पउम चरिउ” में लिखते हैं :

“अयोध्या के नागरिकों ने राजा राम से भेंट की और सीता के चरित्र पर संदेह किया। तिस पर राजा ने अपने अनुज लक्ष्मण को आज्ञा दी कि सीता को वन में छोड़ आएँ। लक्ष्मण ने आदेश मानने से इनकार कर दिया, अवज्ञा की। राजा ने कार्य सेनापति से करवाया।”

श्री विमल ने यहाँ एक तीर से कई निशाने सिद्ध किए। अव्वल तो “रामराज” की लोकमान्यताओं को धूमिल करने का प्रयास किया, कि राजा ने दूसरा ने पक्ष सुने बिना निर्णय दिया। और दूसरा “राम-लखन” के युगल की छवि को विरूपित किया कि अनुज के लिए अग्रज की अवज्ञा करना कितना सरल है।

अवश्य ही श्री विमल का आधारग्रंथ वाल्मीकि रामायण रही होगी। जो उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है ही नहीं, उसका समावेश करने का अधिकार किसने दिया उन्हें?

बहरहाल, उस समय की जनता भी रामभक्त थी। श्री विमल के कृत्य को सिरे नकार दिया गया। जनता का प्रश्न था : “नागरिकों के समूह के पास क्या साक्ष्य था, कि राजा राम ने इतना कठोर निर्णय किया?”

फिर छः सौ ईसवी में श्री हरिभद्र आए और उन्होंने सीता द्वारा रावण के चित्र निर्माण द्वार श्री विमल के ग्रंथ को बल प्रदान किया।

श्री हरिभद्र अपने “उपदेश-पद” में लिखते हैं :

“सीता की सौतनों, अर्थात् राम की अन्य पत्नियाँ, सीता से रावण का चित्र निर्मित करने को कहा। चित्र निर्मित हुआ तो राम को सविस्तार कहा गया। राम ने उपेक्षा की, तिस पर सौतनों ने दासियों की सहायता से जनता में प्रचारित किया। जब राम अपने राज्य का निरीक्षण गुप्त वेश में कर रहे थे, तब उन्हें सीता के कलंक के विषय में ज्ञात हुआ। और उन्होंने सेनापति द्वारा सीता को निर्वासित कर दिया।”

श्री हेमचंद्र ने भी इसी कथा का अनुसरण किया। उन्होंने सीता से इतर राम की तीन और पत्नियों का उल्लेख किया। फिर से भूल गये जैनी कवि, कि “राम की अन्य पत्नियाँ भी हो सकती हैं”, इस बात पर जनता विश्वास नहीं करेगी।

अंततोगत्वा, श्री हरिभद्र और श्री हेमचंद्र का प्रयास भी विफल हुआ!

अब तीसरा प्रयास प्रसिद्ध “आनंद रामायण” ग्रंथ के रूप में हुआ। इसमें सीता की सौतनों का उल्लेख नहीं किया गया। यहाँ रावण का चित्र बनाने का आग्रह “कैकेयी” ने किया। शेष कथा लगभग समान रही।

[ हालाँकि दंड के रूप में राम ने सीता की दायीं भुजा काटने का आदेश लक्ष्मण को दिया, उसी भुजा से रावण का चित्र निर्मित करने हेतु। ]

यहाँ जनता की “कैकेयी” के प्रति घृणा का प्रयोग किया गया है। जो स्त्री राम के वनवास हेतु कार्ज बनी, उसी ने सीता के निर्वासन का बीज बोया!

“आनंद रामायण” के बाद जैन ग्रंथकार किसी भी प्रकार के संदेह हेतु कोई स्थान नहीं छोड़ना चाहते थे। अतः उन्होंने सीता और रावण के मध्य “तिनका” की व्याप्ति का भी ध्यान रखा। ग्रंथ में सीता ने रावण का चित्र नहीं, बल्कि रावण के अंगूठे का चित्र बनाया है।

और फिर इसकी स्वीकार्यता के बाद बांग्ला भाषा में श्री कृत्तिवासी और श्री चंद्रावती ने रामायण लिखी। जिसमें सखियों के कहने पर सीता ने रावण का चित्र बनाया और दूजे ग्रंथ में कैकेयी की पुत्री “कुकुआ” के कहने पर।

माडिया गौड़ीय आदिवासियों की कथा में भी ननद के आग्रह पर गोबर से चित्र निर्मित किया जाता है।

मलेशिया की रामकथा “सेरी-राम” में ननद को सुमित्रा की पुत्री “कीकबी” बताया गया है।

कश्मीर की रामकथा में भी ननद ही निर्वासन का आधार बनती है। किंतु यहाँ लक्ष्मण सीता को अकेला वन म सोता छोड़ आते हैं, उनके निकट एक लोटा जल रख कर।

जावा देश की रामकथा “सेरत-कांड” में कैकेयी स्वयं रावण का चित्र निर्मित करती हैं और सोती हुयी सीता के वक्ष पर रख देती हैं।

उक्त सभी उदाहरणों में, भारत के प्रचलित सौतेली सास-बहू और सौतेली ननद-भाभी विवाद को भुनाने का पूरा नाट्य रचा गया है।

अन्य प्रसंगों की बात करें तो, श्रीलंका की सिंहली रामकथा में सखी “उमा” केले के पत्ते पर सीता से रावण के चित्र निर्माण का आग्रह करती हैं। चित्र बन जाने पर, उस पत्ते को राम के शयन कक्ष में शैय्या पर छुपा देती हैं। रात आते हैं और उस पत्ते की खरखराहट से रहस्य खुल जाता है।

थाईलैंड की रामकथा में शूर्पनखा की पुत्री सीता से चित्र निर्माण करवाती हैं। चित्र में सशरीर प्रविष्ट होकर राम को पूरा रहस्य बताती हैं।

कम्बोडिया की रामकथा में भी यही होता है। लाओस, ब्रह्मदेश और चीन की भी एक एक रामकथा में सीता द्वारा रावण का चित्र बनाए जाने का प्रसंग मिलता है।

गुरु गोविंद जी की रामायण में सखियाँ सीता से चित्र बनाने का आग्रह करती हैं। जब दीवार पर बने चित्रा का रहस्य प्रकट होता है तो राम के सम्मुख ही सीता भूमि में समा जाती हैं। गुरु श्री ने निर्वासन का कोई उल्लेख नहीं किया है।

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धोबी प्रसंग की बात करें तो यह प्रसंग भी वाल्मीकि रामायण में नहीं है। इसकी परिकल्पना अभी डेढ़ दो हज़ार वर्ष में ही की गयी है।

श्रीमद्भागवतपुराण और कथासरितसागर में इससे मिलते जुलते प्रसंग हैं। जैसे, गुणाढ्य की बृहत्कथा। ऐसे ही प्रसंग जैमिनि-अश्वमेध और पद्मपुराण में मिलते हैं। किंतु वैसे सभी प्रसंग राम-सीता के लिए नहीं, अन्य दंपतियों के चरित्र वर्णन में हैं।

“तारा-शाप” का उल्लेख वाल्मीकि रामायण के गौड़ीय भाष्य और पाश्चात्य भाष्य में मिलता है। असमिया और औडिया रामायण में भी शाप के प्रसंग हैं। बांग्ला रामायण में तारा शाप के साथ साथ मंदोदरी शाप भी वर्णित है।

वह शाप है : “हे राम! आप भी सीता के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत न कर सकोगे। आपका भी विछोह हो जाएगा।”

बेहद दुःख के साथ कहना पड़ रहा है, कि आनंद रामायण में राम को गर्भवती सीता के प्रति काम भावना से पीड़ित वर्णित किया गया। इसी कारण से सीता स्वयं भी वनवास करना चाहती थीं!

ये स्तर है इन सब असत्य कथाओं का, ये स्तर है इन प्राच्य वामीजनों का। इस तरह की प्रजननशील भ्रांतियों को जनमानस में प्रचलित कर, श्री राम के कांतिमान चरित्र को दूषित करने का दुष्प्रयास मात्र हैं ये।

इति।

सिया के राम

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