ऐसे मुसलमान अच्छे या हिन्दू नामधारी वामी!

मैंने भागवत जी के भाषण पूरे नहीं सुने हैं, लेकिन जितना भी अंश टीवी और फेसबुक से सामने आया है मुझे नहीं लगता कि उसमें कहीं भी कोई बात ऐसी कही गयी है जो कि संघ की 93 वर्ष की विचारधारा या कार्यपद्धति में किंचित भी बदलाव या किसी नए मूड का कोई संकेत देती हो।

सबसे पहले दिन भागवत जी ने काँग्रेस के कुछ अच्छे कार्यों का उल्लेख किया था…

तो संघ के बारे में जानकारी रखने वाले बखूबी जानते हैं कि संघ का सिद्धांत कहिये या विशेषता, कि संघ हमेशा हर समय केवल ‘रचनात्मक’ पहलू पर ही केन्द्रित रहता है।

आपस में कोई भी कैसी भी गलत या झूठ कुछ भी बात कह रहा हो तब संघ से जुड़े विचारवान लोग उससे कहते है_

“आपकी बात तो सही है/ सही हो सकती है… लेकिन हमारी जानकारी के अनुसार ये बात ऐसे है…”

सामने वाले के अच्छे गुण संघ वाले हमेशा अपने ध्यान में रखते हैं, और संगठन और समाज की हित के लिए दुश्मन के भी अच्छे गुणों का यथासंभव लाभ उठाने का प्रयास हर समय जारी रहता है।

इमरजेंसी से पहले के स्वयंसेवक तो मुझे लगता नहीं मूल काँग्रेस के नेताओं से किंचित भी घृणा करते होंगे… जब किसी व्यक्ति के निगेटिव पहलू पर संघ अनावश्यक तौर पर ध्यान देता ही नहीं, तो क्या ही तो काँग्रेस के अच्छे लोगों को बेमतलब गलत बताएगा और क्यों ही काँग्रेस को देशद्रोही बताने लगा।

मैं स्वयं 1973 से स्वयंसेवक हूँ, मैंने तो काँग्रेस के किसी भी नेता के प्रति कोई दुराग्रह कभी देखा नहीं…

इमरजेंसी की पूरी लड़ाई संघ ने लड़ी… और इंदिरा जी का पूरा दमन चक्र संघ के स्वयंसेवकों ने झेला… फिर भी तत्कालीन सर संघचालक देवरस जी द्वारा इंदिरा जी को जेल से पत्र लिख कर संघ के बारे में उनका पूर्वाग्रह समाप्त करने और ज़रूरत पड़ने पर राष्ट्र निर्माण के किसी भी कार्य के लिए उनको सहयोग करने का भी प्रस्ताव दिया था।

संघ के तमाम स्वयंसेवकों तक ‘इंदिरा जी के नाम तीन पत्र’ के नाम से छोटे पत्रक के रूप में वे पत्र इमरजेंसी काल में ही चोरी चुपके से पहुँच गये।

लेकिन संघ की मेहनत से 1977 में सत्ता पाए तमाम सोशलिस्ट व जातिवादी नेताओं को जब वो सत्ता नहीं पची तो उन्होंने उन पत्रों को इंदिरा जी से माफीनामे के रूप में प्रचारित करने का ही कुत्सित प्रयास कर डाला…

हाँ, ये बात ज़रूर है उस समय हम कम आयु के अपरिपक्व स्वयंसेवकों को हमेशा कोफ़्त होती थी कि ये काँग्रेस हमारे ऊपर हमेशा हमलावर और जनता के बीच हमारे लिए झूठ परोसने को तत्पर रहती है, लेकिन संघ नेतृत्व की सदाशयता ही खत्म नहीं होती।

अब आज एक विषय जो बड़े तेवर-प्रतिक्रिया दे रहा है, वो है भागवत जी का मुसलमानों से सम्बन्धित बयान…

यहाँ जानना होगा कि डॉ हेडगेवार जी, गुरूजी, देवरस जी से लेकर भागवत जी तक के 93 सालों में संघ ने तो हमेशा केवल यही कहा है –

“हम ना तो मुस्लिम विरोधी है, ना ही हम इसाई विरोधी… हम केवल हिन्दू समर्थक हैं”।

‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा पर संघ हमेशा से चलता आया है।

‘अनेकता में एकता, हिन्दू की विशेषता’ संघ शाखाओं पर हमेशा से गाया जाता है।

साथ ही संघ द्वारा की गयी परिभाषा के अनुसार ‘भारत भूमि की सीमाओं के अन्दर और बाहर निवास करने वाला वो हर व्यक्ति हिन्दू है जो इस भूखंड, यहाँ की जीवनपद्धति, यहाँ की परम्पराओं, यहाँ की संस्कृति, यहाँ के महापुरुषों, यहाँ के पूर्वजों, यहाँ की जलवायु, यहाँ के आचार विचार में आस्था विश्वास और सम्मान रखता हो…

उपासना पद्धति को संघ ने कभी भी महत्व नहीं दिया… और ना ही इसको हिंदुत्व का कोई अनिवार्य तत्व ही माना।

वो बात अलग है कि इसाई और मुसलमान उपरोक्त में से कुछ या सम्पूर्ण शर्तों को पूरा नहीं करने की वजह से गैर हिन्दू माने जाते रहे हैं…

डॉक्टर हिदायतुल्ला खां… आरिफ बेग… सिकन्दर बख्त… एपीजे अब्दुल कलाम… मुख्तार अब्बास नकवी… शाहनवाज़ हुसैन जैसे मुसलमानों से भला किसी हिन्दू राष्ट्रवादी को कोई एतराज क्यों होने लगा…

और भारत के मुसलमान कट्टरता और कठमुल्लापन त्याग कर इनके जैसा या इंडोनेशिया के मुसलमानों जैसा ही व्यवहार करें… भारतमाता की जय बोलें… वन्दे मातरम कहें तो वे मुसलमान अच्छे या हिन्दू नामधारी वामी!

वैसे ये कहना भी गलत नहीं होगा कि सोशल मीडिया पर भागवत जी के विचारों पर जो तीव्र प्रतिक्रिया है उसका उत्तरदायित्व भी केवल और केवल संघ का ही है।

दरअसल संघ ने अपना कोई प्रचार तंत्र तो यहाँ विकसित किया नहीं है… नए नए प्रचारकों ने अपनी ट्वीटर हैंडल या फेसबुक अकाउंट तो बना लिए हैं… इस पर वे अपने फोटो डालते हैं… लेकिन वे कभी भी इसका कोई भी प्रयोग संघ के बारे में फैले भ्रम को दूर करने के लिए नहीं करते…

अब वो भ्रम चाहे संघ के बारे में मिथ्या कुप्रचार हो या फिर नाहक ही मिलने वाली अति और अनाधिकृत प्रशंसा!

हिन्दू के पतन का ज़िम्मेदार हिन्दू स्वयं

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