बीती 28 अगस्त को पुणे पुलिस ने माओवादियों से कथित संबंधों को लेकर कथित अर्बन नक्सल (शहरी नक्सली) कवि वरवरा राव, अधिवक्ता सुधा भारद्वाज, सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा, गौतम नवलखा और वर्णनन गोंजाल्विस को गिरफ़्तार किया था।
गिरफ्तारियों के बाद महाराष्ट्र के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) परमवीर सिंह ने पुणे पुलिस के साथ मिलकर बीते 31 मई को इस मामले पर मीडिया से बातचीत की थी।
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र पुलिस द्वारा इन लोगों के ख़िलाफ़ दर्ज मामले पर संवाददाता सम्मेलन करने को लेकर सोमवार को सवाल उठाए।
मामले की सुनवाई कर रही पीठ की जस्टिस भाटकर ने कहा, ‘पुलिस ऐसा कैसे कर सकती है? मामला विचाराधीन है। उच्चतम न्यायालय मामले पर विचार कर रहा है। ऐसे में मामले से संबंधित सूचनाओं का खुलासा करना गलत है।’
इस पर सुश्री स्वाति तोरसेकर ने अंग्रेज़ी में वाजिब प्रश्न उठाती एक फेसबुक पोस्ट लिखी, जिसका हिन्दी अनुवाद मैंने किया है। प्रस्तुत है –
(अर्बन नक्सलियों का) मामला जब न्यायालय के विचाराधीन है तब महाराष्ट्र पुलिस ने प्रैस कॉन्फ्रेंस कैसे बुलाई – ऐसा प्रश्न आज बॉम्बे हाई कोर्ट ने किया ऐसा मीडिया बता रही है।
किस धारा के अनुसार ऐसी प्रैस कॉन्फ्रेंस बुलाना मना है, इस पर न्यायालय ने कुछ कहा हो तो मेरी नज़र में नहीं आया।
अगर ऐसा ही है तो न्यायालयीन प्रक्रिया की रिपोर्टिंग भी किस कानून के तहत सम्मत है, यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए।
पुलिस अगर जनता के सामने सबूत रखे तो किसे असुविधा होती है, यह भी स्पष्ट हो जाये।
क्या कोई यह प्रतिपादन करना चाहता है कि जनता के सामने आए हुए ऐसे सबूतों का कोई अस्तित्व ही नहीं था?
अगर ऐसा है तो उन व्यक्तियों द्वारा ऐसे सबूत अब भविष्य में नष्ट करने की स्वतन्त्रता या इजाज़त किसी को नहीं रहेगी – न पुलिस अब उन्हें नष्ट कर सकेगी और न अभियुक्त – आखिर किसके लिए यह बात असुविधाजनक है?

अपने देश में ज्यूरी व्यवस्था नहीं है। जनमत के दबाव से न्याय पलट दिया जाएगा यह अपेक्षा नहीं, क्योंकि यहाँ यह अपेक्षा है कि निर्णय, कानून के अर्थ को समझकर उसके अनुसार दिया जाएगा।
क्या क़ानून के ऐसे विवेचन (interpretation of statutes) में जनमत का दबाव अवरोध बन सकता है?
न्यायालय क्या बताना चाहता है?
प्रैस कॉन्फ्रेंस से उन पर दबाव आयेगा ऐसा सूचित कर रहा है या स्वीकार कर रहा है?
अगर ऐसा ही है तो इसके पहले जनता के सामने जो भी इस तरह के मामलात आए और जो बातें रखी गई, क्या जनता यह मान ले कि उन मामलात में भी भारत के न्यायालयों ने दबाव में आकर फैसले सुनाये थे?
मेरे सामने ये ये प्रश्न खड़े हैं।
इस देश में संविधान के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अपना हक है ऐसे मानने वाली – स्वाति तोरसेकर
अंग्रेज़ी में मूल पोस्ट पढने के लिए लिंक को क्लिक करें – https://www.facebook.com/erpswati/posts/10156794985858324
बुद्धिजीवियों का चोला ओढ़े शहरी नक्सलियों को तो हम पहचानते ही नहीं थे!