एक सभा में जाना हुआ, जहां मुख्य वक्ता श्री सी सुरेन्द्रनाथ ने, जो चेन्नई से आए थे, भारत में विदेशी फंडिंग से चलते NGO किस तरह काम करते हैं इसपर एक अच्छा प्रेजेंटेशन दिया।
वैसे इस मुद्दे पर काफी लिखा जा चुका है तो बहुत डिटेल्स में जाना आवश्यक नहीं है। दो तीन बातें जो विशेष नोट करने योग्य लगी वे ये हैं।
ये सारे NGO कुल मिलाकर chaos (केओस – अस्तव्यस्तता) मचाना चाहते हैं जिससे अराजक की स्थिति पैदा हो, फिर देखा जाएगा कौन सब पर हावी होगा। क्योंकि फंडिंग के स्रोत कई हैं।
उन्होने तीन देशों के उदाहरण दिये जहां विदेशी फंडिंग को लेकर बहुत कठोर नियम हैं। यू एस ए, रशिया और इस्राइल। अगर आप को विदेशी फंडिंग आती है तो आपको सरकारी एजेंसी के पास रजिस्टर करना होगा और वो फंडिंग आप को क्यों मिली है और उससे आप क्या कर रहे हैं इसका हिसाब देना होता है। आप पर नज़र रहती है और आप जो बोलते हैं, उस पर सवाल उठाए जा सकते हैं।
इस पर मैंने कहा कि ये तीनों, दूसरे देशों में यही तो करते हैं जो अपने देश में मनाही कर देते हैं। मने ‘लव जिहादियों की बहनें बिलकुल बुर्का हिजाब टाइट’ जैसा ही मामला। इसपर एक खिन्न हंसी के सिवा उनके पास कोई उत्तर नहीं था। समझ सकते हैं।
उन्होने एक अमेरिकन सेनाधिकारी Steven R Mann का नाम लिया जिसने रणनीति के तौर पर केओस का कैसे उपयोग किया जा सकता है, इस पर कुछ मौलिक संशोधन किया था।
Steven R Mann / Chaos सर्च कीजिये तो जिज्ञासुओं को मिल जाएगा। Chaos as Strategy सर्च करें तो औरों के भी लेख आदि मिलेंगे। अवश्य पढ़ें और अपनी सोच को प्रगल्भ करें। आप लोग भी इस पर लिखें। साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना।
यूरी बेज़्मेनोव का भी नाम लिया। इस व्यक्ति पर थोड़ा लिख चुका हूँ, बहुत है लिखने के लिए। अच्छा है जो और मित्र भी बेज़्मेनोव पर लिख रहे हैं। Yuri Bezmenov सर्च करें।
मुझे एक बात शूल की तरह चुभ गयी वो थी कि उन्होने कहा कि इन सब गतिविधियों पर यह अंदाज है कि दो बिलियन डॉलर खर्च किए जाते हैं। आइये, समझिए यह बात क्यों चुभ गयी।
हालांकि दो बिलियन डॉलर बहुत बड़ी रकम है, लेकिन भारत का GDP आज 2.848 ट्रिलियन डॉलर है। एक हजार बिलियन का एक ट्रिलियन होता है तो 2 बिलियन डॉलर, 2848 बिलियन डॉलर का कितना प्रतिशत हुआ? 0.0007%!
याने 0.0007% का निवेश 100% को तोड़ रहा है? वही बात है न, चिंगारी पूरा जंगल जला सकती है? ये दो बिलियन से क्या होता है? कुछ NGO चलानेवाले या उनके लिए मुखौटा या उनकी वकालत करनेवाले लोग करोड़पति बनते हैं और बाकी रोडपति लोगों को कुछ रोज़गार देकर हमारे देश का नुकसान करा रहे हैं।
एक उदाहरण देखिये – स्टरलाइट याद है? कितने लोग लगे होंगे? टीवी एंकरों को सरकार को कोसने के लिए क्या व्यवस्था की गयी होगी? पुलिस की गोलियों से जो निदर्शक मारे गए या घायल हुए उनके परिजनों को कितना दिया होगा?
लेकिन कितने लोगों के जॉब्स गए/ केवल कंपनी के कर्मचारी नहीं, कंपनी पर निर्भर ancillary यूनिट्स के कर्मचारियों के भी। कितने हज़ार लोग बेरोज़गार होकर परिवार समेत कितने लाखों के जीवन अस्तव्यस्त हुए? इस सब उथलपुथल की आर्थिक तथा पॉलिसी की तौर पर और पोलिटिकल कीमत कितनी है?
और तांबा अब महंगे दामों पर आयात करना होगा इसमें विदेशी मुद्रा की कितनी हानि होगी? तांबा जिनके लिए महत्व रखता है ऐसे कितने छोटे बड़े उद्यमों का क्या होगा? अगर वे बढ़ी कीमतें झेल न पाये और बंद हुए तो इससे कितने लोग प्रभावित होंगे?
और ये सब नुकसान और तांबा बेचनेवाले विदेशियों का फायदा, कितने में हुआ होगा?
वैसे मुझे ये पक्का लगता है कि ये दो बिलियन में जितने हज़ारों यह कुछ एक लाख लोग अगर रोजगार पा रहे हैं तो फिर भी एक बिलियन से अधिक रकम तो कुछ सौ या एक सौ से भी कम लोगों के पास जाती होगी। ये बड़े लाभार्थी तो धनी हो बैठे हैं, अगर इनको सज़ा भी हो तो उनके वर्कफोर्स का उपयोग हो सकता है और वह 0.0007% का भी आधा प्रतिशत हो सकता है। देश रक्षा में सस्ता सौदा कहलाना चाहिए।
एक दूसरे से जलन ही देश को जला रही है, बाकी ये समस्या लाइलाज नहीं है। हाँ, हो जाएगी अगर हम यूं ही एक दूसरे से जलते रहे, उद्यम की न सोचकर सरकारी नौकरी और बैठ कर सैलरी को हक़ कहकर आंदोलन करते रहे।