आप ‘राष्ट्र’ का क्या अर्थ समझते हैं? कभी सोचा भी है क्या इस बारे में?
अगर नहीं सोचा तो ऐसे सोचिये – भारत के प्रधानमंत्री अमेरिका जाते हैं और वहां भारी प्रवासी भारतीय और भारतवंशियों की भीड़ उनके नारे लगा रही होती है!
चलिए प्रवासियों पर तो शायद असर होता होगा, लेकिन भारतवंशी को किसी के भारत का प्रधानमंत्री हो जाने, या ना होने से क्या फर्क पड़ेगा? उसके नाते रिश्ते तो दशकों पहले छूट गए।
वो ना भारत आता-जाता है, ना ही जिन लोगों ने प्रधानमंत्री चुना, उनके जीवन से उसका कोई लेना-देना है। फिर वो खुश क्यों हो रहा है? कौन सी डोर उसे बांधती है?
सवाल इतने पर ही ख़त्म नहीं होता, अभी दिल्ली के किले तक सीमित हो चुके मुग़ल साम्राज्य के शासक बहादुर शाह जफ़र पर चिपकाया जाने वाला शेर भी याद कीजिये –
गाज़ियों में जब तलक बू रहेगी ईमान की,
तख्ते-लंदन तक चलेगी शमशीर हिन्दुस्तान की।
इसके साथ याद कीजिये कि जलियांवाला बाग़ के नरपिशाच को लन्दन में जाकर कुत्ते की मौत मारा गया था।
एक आदमी के वहां होने से भारत का वहां होना, अगर ऐसे समझने में दिक्कत होती हो तो इस तर्क को उल्टा कर लीजिये।
जो भारत में ही कहीं “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह” के नारे लगा रहा था वो कौन था? भारतीय था या कोई बाहर का था? सीमाओं के हिसाब से राष्ट्र होता तो वो भारत में, भारत का था।
सीमाओं के हिसाब से राष्ट्र तय नहीं होता। ये किसी एक भाषा, किसी एक धर्म, किसी एक जाति, कबीले, वंश से भी तय नहीं होता।
इन सब से अलग राष्ट्र सिर्फ एक सोच है। ये विचार जहाँ होगा, राष्ट्र उस हर जगह होगा। फिर चाहे वो सोच भौगोलिक सीमाओं के अन्दर हो, या फिर इनके बाहर। इसे समझने में दिक्कत इसलिए है क्योंकि इस विषय पर सोचने कभी किसी ने कहा ही नहीं।
शहरी नक्सलों की धड़पकड़ ने इस सवाल को जिन्दा कर दिया है। वो प्रोफेसरों, लेखकों, पत्रकारों और क्रांतिकारियों के वेश में आपके बच्चों को बरगलाकर ले जा रहे हैं। आपके बच्चों को बचाने क्या आपके पड़ोसी आने वाले हैं? नहीं आ रहे तो कम से कम खुद तो सोचकर देखिये कि राष्ट्र क्या है?
अगली पीढ़ी को अपने धर्म के बारे में बताने के लिए आपके घर में कौन सी किताबें हैं?