जननायक अटल जी के महाप्रयाण के पश्चात अनेक बंधुओं ने भावातिरेक में यह मांग करनी शुरू कर दी है कि अब अटल जी को, गांधी जी की जगह राष्ट्रपिता घोषित कर दिया जाना चाहिए। यह उस मानसिकता से कत्तई अलग नहीं है जिसके चलते गांधी जी को राष्ट्रपिता घोषित किया गया।
भारत राष्ट्र एक अत्यंत पुरातन राष्ट्र है जिसकी स्थापना कब हुई, इसकी थाह आज तक कोई न ले सका है। भगवान राम के अस्तित्व को नकारते हुए राम सेतु को भी एक राजनीतिक दल के वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है जिस राम सेतु की आयु लाख वर्ष मानी गयी है। श्री कृष्ण की नगरी द्वारका के अवशेष भी समुद्र तले मिल चुके हैं जिसकी आयु भी न्यूनतम 9000 वर्ष मानी जा रही है। हड़प्पा संस्कृति 5000 से भी अधिक वर्षों पूर्व की है, यह मानने को वामपंथी इतिहासकार भी विवश हुए हैं।
यह राष्ट्रपिता की अवधारणा पश्चिम से आयातित है जहाँ के देशों का इतिहास 2-2500 वर्षों का ही है । ये नवजात देश हैं जो भारत की तुलना में शैशवावस्था में ही हैं। अतः कोई महापुरुष उनके इतिहास में हुआ तो उसे सम्मानस्वरूप राष्ट्रपिता का दर्ज़ा दे दिया गया।
तो ऐसा राष्ट्र जिसका न आदि है न अंत है, उस का राष्ट्रपिता कौन हो सकता है। चलो लाखों न सही, हजारों ही सही, इतने लंबे कालखण्ड में सहस्त्रों ऋषि-मुनि, चक्रवर्ती सम्राट इस पावन धरती पर हुए किन्तु उनमें से कोई राष्ट्रपिता हो, ऐसा तो इस राष्ट्र के समाज जीवन को दिशा देने वाले प्रज्ञावान मनीषियों ने कभी विचार ही नहीं किया बल्कि विचार करने योग्य प्रश्न ही नहीं माना गया।
1947 में भारत को विभाजन की त्रासदी के साथ स्वतंत्रता प्राप्त हुई। एक नया देश वैयक्तिक, राजनीतिक, जनसांख्यिक कारणों से अस्तित्व में आ गया। पश्चिमी अवधारणाओं के मापदंडों से नवास्तित्व में आये देश को अपने नागरिकों को सन्देश देने के दृष्टिकोण से अथवा इतर कारणों से राष्ट्रपिता घोषित करने की इच्छा या विवशता समझी जा सकती हैं।
वहीं दूसरी ओर भारत जैसे अर्वाचीन राष्ट्र में जो पश्चिमी अथवा वामपंथी इतिहासकारों की दृष्टि से भी देखें तो 9000 वर्ष पुराना राष्ट्र जो 700 वर्षों तक आंशिक व 90 वर्षों तक लगभग पूर्ण पराधीनता के पश्चात अंगड़ाई लेकर फिर से उठा तो इस राष्ट्र का पिता कौन हो सकता है …? क्या कभी किसी ने विचार किया..? जिस राष्ट्र को वहां का जनमानस अपनी माता के रूप में देखता हो, स्तुति करता हो और स्वयं को उसका पुत्र मानता हो, उस राष्ट्र के पिता के रूप में किसी का आकल्पन ही कल्पनातीत है।
गांधी जी की हत्या के पश्चात राजनीतिक कारणों से तत्कालीन सत्तारूढ़ दल ने गांधी जी को राष्ट्रपिता घोषित कर दिया, मानो भारत राष्ट्र का जन्म ही 1947 में हुआ हो। कोई देश राजनीतिक कारणों से रातों-रात अस्तित्व में आ सकता है किंतु एक देश को राष्ट्र बनने में हजारों वर्ष लगते हैं। राष्ट्र की प्राचीनता, इसका इतिहास, यहाँ के धरतीपुत्रों का इस माटी के साथ सम्बन्धों की भावात्मक भूमि जैसे विचारणीय विषयों को चर्चा योग्य ही नहीं माना गया।
एक अर्वाचीन राष्ट्र होने के नाते इस राष्ट्र का कोई भी राष्ट्रपिता नहीं हो सकता। न गांधी जी, न अटल जी। देश के सहस्त्रों महान व्यक्तित्वों में से किसी को राष्ट्रपुत्र की संज्ञा दी जा सकती है या फिर राष्ट्रपुरुष की और इन सबसे ऊपर सर्वोच्च स्थान पर किसी का आकल्पन करना है तो उसे संज्ञा दी जा सकती है “राष्ट्राराध्य” की।
तो कौन हो सकता है आदिकाल से चलती आयी इस महान संस्कृति के वाहक सनातन राष्ट्र का आराध्य..?
इस राष्ट्र में यदि कोई राष्ट्रआराध्य हो सकता है तो केवल और केवल भगवान राम हो सकते हैं जो यहाँ के कण-कण में और जन-जन के हृदय में समाए हुए हैं। ये धरती राम की है, यहाँ का कण-कण राममय है। जनजीवन का आधार राम है, यहाँ तक कि मरणोपरांत भी अंतिम यात्रा में राम नाम ही सहारा बनता है। संसार में कहीं भी किसी भी मत में आराध्य को अभिवादन का माध्यम नहीं बनाया गया है जबकि इस पावन धरती पर दो अनजान व्यक्ति भी मिलते हैं तो वार्ता का प्रारम्भ ही ‘राम-राम’ से होता है और अंत भी अर्थात सम्पूर्ण जनजीवन राम-मय है।
‘राम’ प्रतीक हैं, पर्याय हैं आदर्श के, भले ही पुत्र की भूमिका हो अथवा भाई की, पति की हो अथवा सखा की, शिष्य की हो अथवा गुरु की, शत्रु की हो अथवा मित्र की, शासक की हो अथवा साधारण प्रजा की, योद्धा की हो अथवा संन्यासी की, सेनापति की हो अथवा संगठक की, उन्होंने हर भूमिका में आदर्श व्यवहार के मापदंड स्थापित किये जिसके उदाहरण दैनन्दिन जीवन में आज भी जनसाधारण उद्धृत करता है। क्यों…? क्योंकि वो हृदय में इस तरह से समाए हुए हैं कि जीवन का अवलम्बन हैं।
“राम” असाधारण समाज संगठक एवं नेतृत्वकर्त्ता थे जिन्होंने उत्तर से सुदूर दक्षिण तक पदयात्रा कर समूचे मानव समाज को अथवा यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि प्राणिमात्र को, संगठित किया, एक अधर्मी पर विजय प्राप्त करने का लक्ष्य देकर ताकि समाज अपनी संगठित शक्ति को पहचान सके और स्वाभिमान से ओत-प्रोत हो जाए अन्यथा रावण तो उनके सामर्थ्य के समक्ष तुच्छ प्राणी था। ऐसे राम के रहते और भला कौन हो सकता है इस आदि राष्ट्र का राष्ट्र आराध्य..?
और तो और “राम” को तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी संवैधानिक पुरुष का दर्ज़ा यह कहते हुए दिया कि देश के संविधान में भगवान श्री राम का चित्र उकेरा गया है जिससे वे भारत के संविधान का भी अटूट हिस्सा हो गए हैं।
– रमन कुमार सूद