वर्ष 2007 में अपनी प्रथम बद्रीनाथ यात्रा के दौरान एक ऐसा अनुभव किया था जिससे उत्तराखंड के देवभूमि होने का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया था. हम पांच दोस्त जो सभी 25-26 वर्ष की आयु के युवा थे, एक कार में श्री बद्रीनाथ धाम की यात्रा कर रहे थे।
सुदूर पहाड़ी मार्गों पर किशोरवय या कहिये युवावस्था की दहलीज़ पर खड़ी छात्राओं के स्कूल से लौटते हुए कई समूहों द्वारा लिफ्ट के लिए हाथ देकर हमारी कार को रुकने के कई संकेतों ने हम जैसे उत्तर प्रदेश जैसे “शांतिप्रिय समुदाय” बहुल इलाके से गये लड़कों के मन में उन छात्राओं के चरित्र पर सवाल उठना स्वाभाविक था क्योंकि हमारे इलाकों में इस तरह अनजान लोगों की गाड़ी को किसी युवा लड़की द्वारा हाथ देकर लिफ्ट मांगना किसी आठवें अजूबे और लड़की के चरित्रहीन होने के सर्टिफिकेट से कम कुछ भी नहीं होता।
ख़ैर, इसी असमंजस को दिल में लेकर जब हम एक चाय की दुकान पर रुके तो वहां से भी कुछ युवा छात्राओं का एक समूह गुज़र रहा था जिसने हमसे कुछ दूर तक लिफ्ट मांगी परंतु हम अपनी कार में जगह न होने के कारण उन्हें लिफ्ट न दे सके परंतु अब जिज्ञासा या कुतूहल इतना बढ़ गया था कि चायवाले से पूछ ही बैठे कि “भाई ये लड़कियां किसी भी आने जाने वाली गाड़ी से इस तरह लिफ्ट क्यों और कैसे मांग सकती हैं?”
चाय वाले के जवाब ने न केवल हमे स्तब्ध कर दिया अपितु हम संस्कृतिविलुप्त हिन्दू युवाओं को अपनी संस्कृति के उस पहलू से भी परिचित कराया जिससे हिन्दू पीढ़ियाँ सैकड़ों वर्षों के मुस्लिम, अंग्रेज़ी और कम्युनिस्ट शासन और शिक्षा के कारण सर्वथा अनभिज्ञ हो गयी हैं।
उसने हमें बताया कि ये पहाड़ी गाँवों की वो लड़कियां हैं जो रोज़ कई कई किलोमीटर की पैदल यात्रा कर अपने विद्यालयों को जाती हैं और इस तरह ही बिना किसी डर, संशय और संकोच के आने जाने वाले किसी भी वाहन से लिफ्ट लेकर अपना रास्ता तय कर लेती हैं.. इसमें भी ज़रूरी नहीं कि कोई वाहन स्वामी लड़कियों के एक पूरे समूह को लिफ्ट दे ही पाए. ऐसी स्थिति में समूह की वो लड़की जिसे लिफ्ट की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, उस वाहन में बैठकर अपना सफर तय कर लेती है, बाकी सहेलियां किसी अन्य वाहन या पैदल ही अपना रास्ता तय कर लेती हैं।
चायवाले ने हमारे मन के संशय और आश्चर्य को भांपकर स्वयं ही हमें बताया कि ऐसा हमेशा से होता आ रहा है और आज तक किसी भी लड़की के साथ कोई अनहोनी नहीं हुई। ये एक ऐसा प्रमाण था जो स्वयं ही उत्तराखंड को देवभूमि सिद्ध करता है।
चार दिन पहले माँ गंगा के उद्गम स्थल गंगोत्री के प्रवेश द्वार उत्तरकाशी के एक गाँव में अपने बधिर बाप और मानसिक रूप से अर्धविक्षिप्त मां के साथ सोती हुई ग्यारह वर्ष की बच्ची को रात में उसके घर से सात “शांतिप्रिय”दरिंदों ने अगवा कर उसका गैंगरेप किया.
दरिंदगी का आलम यह कि उस ग़रीब, फूल जैसी बच्ची के शरीर को दांतों से बेतहाशा काटा और नोंचा गया और आख़िरकार उसकी गला घोंटकर हत्या कर दी गयी. एक बाप जो बधिर होने के कारण घर के पास ही हैवानियत की शिकार हो रही अपनी बच्ची की चीखें भी ना सुन सका. एक माँ जो विक्षिप्त होने के कारण अपनी बच्ची के शव को देखकर भी शायद उसके नींद में होने का भ्रम पाले उसे निहार रही हो.
क्या होगा अगर वो वहशी पकड़े भी जाएंगे, क्या होगा अगर उन पर मुक़द्दमा हो भी जाएगा, क्या होगा अगर उन्हें सज़ा हो भी जाएगी? क्या मेरी देवभूमि की बद्री, केदार, गंगोत्री, यमुनोत्री की घाटियों से उस बिटिया की चीखों की गूंज कभी कम हो पाएगी? क्या पहाड़ की वो बेटियाँ अब भी उसी निश्छल भाव से किसी अनजान वाहन से लिफ्ट मांगने का साहस कर पाएंगी?
पिछले कुछ वर्षों में उत्तराखंड में शांतिप्रिय समुदाय की कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ती आबादी से मेरे मन में जो आशंका थी वो सच साबित हुई….
मेरी देवभूमि अपनी ही देवियों के ख़ून से नहाये असुरों द्वारा पददलित हो चुकी है….
– अमित मोहन
याद रखो, तुम जीतोगे, क्योंकि तुम उन हरामज़ादों से बेहतर इंसान हो…