मेरा एक तमिल नाडु का दोस्त है। कट्टर संघी। उसके पिता, चाचा, दादा सब संघी।
छोटे से कस्बे में डीएमके की द्रविड़ियन राजनीति में लड़ते भिड़ते, संघर्ष करते, उनके चाचाओं के व्यापार वहां से डीएमके और चर्च पोषित गुंडों ने कई बार बर्बाद कर दिए, क़स्बा छोड़ने को दबाव डाला गया, पर ये डिगे नहीं, अड़े रहे, संघर्ष करते रहे।
मोदी जी के सत्ता में आने के बाद उन्हें अपनी विचारधारा के प्रति और विश्वास पैदा हुआ, आत्म बल भी मिला, चौराहे पर सीना चौड़ा कर चलने लगे।
राजनीति उनके लिए कूटनीति, रणनीति, चाणक्य नीति नहीं है, बहुत पवित्र बंधन है, विश्वास है, कर्तव्य है, जिम्मेदारी है, जिसे उनका परिवार दशकों से निभा रहा है।
कल उससे बात हुई। बहुत गुस्सा था, दुखी भी था। कह रहा था करूणानिधि राक्षस था राक्षस, सिर्फ हिन्दु नफरत में सराबोर ही नहीं बल्कि देश के खिलाफ भी एक विघटनकारी, देश को तोड़ने का सपना देखने वाला।
हिंदी विरोधी आंदोलन में तिरंगा जलाने वाला, रामसेतु तोड़ने का षड्यंत्र करने वाला (राम सेतु अगर सुब्रमणियम स्वामी नहीं बचाते तो इस आदमी ने उसे अब तक ध्वस्त करवा दिया होता और भाजपा का एक नेता चूं ना करता)।
अगर ऐसे आदमी के लिए राष्ट्रीय शोक हो सकता है और राष्ट्रध्वज नीचे हो सकता है तो फिर आज़ाद मैदान के उस लड़के का भी सम्मान होना चाहिए जिसने अमर जवान ज्योति को ध्वस्त किया था।
मेरा दोस्त तो बेंगलुरु में है, पर कह रहा था पिता और चाचा आज चौराहे पर जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे, जिन राक्षसों के खिलाफ हमने लड़ाई लड़ी वे उनका मज़ाक ना बनायें कहीं, जिस मोदी के लिए सब से लड़ भिड़ लिए उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी।
और राष्ट्रीय शोक भी बिना कोई मांग, बिना किसी दबाव के दे दिया? Ignore भी तो कर सकते थे? ये कैसा बड़प्पन दिखाने का और सबसे अच्छा, सबसे महान बनने का सिंड्रोम है?
देश के लाखों करोड़ों समर्थकों और कार्यकर्ताओं के लिए विचारधारा एक पवित्र चीज़ है, राजनीति एक पवित्र धारा है, वे ये पल पल की वोट कबाडू कूटनीति न समझते हैं, ना समझना चाहते हैं, ये बात क्यों हमारे नेताओं को समझ नहीं आती?
अगर ये चार कट्टर समर्थक टूट गए और उनके बदले 8 दलबदलू जुड़ गए और इनके सहारे आप आप सत्ता में आ गए तो आप कर क्या लेंगें? आखिर किस विचार को वास्तविकता में बदलने के लिए सत्ता चाहिए आपको? या सिर्फ सत्ता के लिए सत्ता चाहिए?
ऐसे मामलों में वामपंथी नेता ज़मीनी लोगों की भावना का अटूट सम्मान करते हैं, कभी नहीं देखा है उन्हें किसी राष्ट्रवादी, संघी नेता के देहावसान पर शोक व्यक्त करते। (हालाँकि ऐसी कटुता का भी मैं पक्षधर नहीं, पर अगर मेरे ज़मीनी लोग इससे खुश रहते हैं तो मैं जरूर ऐसा करूंगा)।
मैं ये मानता हूँ कि राजनीति में ऐसे दांव कभी कभार चलना पड़ते हैं ताकि दूसरों के वोट बैंक टूटे, लेकिन सिर्फ ‘कभी कभार’, कुछ crucial moments में, जैसे आप चुनाव में गुंडे, बदमाशों, बलात्कारियों को टिकट दे देते हैं, कोई विवादित बयान दे देते हैं जो विचारधारा के विपरीत हो।
क्यों? क्योंकि सीट आनी चाहिए कैसे भी, जीत चाहिए कैसे भी… समझ आता है क्योंकि अंत में ये विश्वास होता है कि broadly, holistically आपके वैचारिक हितों के साथ समझौता नहीं हो रहा।
पर जब धीरे धीरे पता चले कि सत्ता होते हुए भी धारा 370 के मुद्दे को रद्दी के टोकरे में फेंक दिया गया, भ्रष्टों को सज़ा तो दूर कनिमोझी और अमर सिंह जैसों को गोद में बिठा लिया गया, अरबपति चोर देश छोड़ के भाग रहे हैं, नागरिकता ले रहे हैं।
एक भ्रष्टाचारी जेल नहीं गया चार साल में, वोटबैंक की राजनीति का घिनौना उदाहरण प्रस्तुत कर एक बहुत बड़े सामान्य वर्ग को प्रताड़ित करता sc /st वाला काला कानून वापस ले आये। रोहिंग्या आकर बस गए तब हम जागे वो भी अनमने से, आँख मसलते हुए।
तब लगने लगता है कि आपके विचारिक हितों के जहाज़ में भी एक बहुत बड़ा छेद तो हो ही गया है, पानी भर रहा है, सबसे नीचे तल में काम करने वाले ज़मीनी कार्यकर्त्ता भाग रहे हैं, डूब रहे हैं, जान बचाने में लगे हैं।
ऊपर तलों के बेखबर लोग अभी भी पार्टी कर रहे हैं, उन ऊपर वाले रईसों को शैम्पेन सर्व करते कुछ दलाल टाइप लोग उन्हें हसीन ख्वाब दिखाने में लगे हैं, और नीचे वाला कोई मज़दूर उन्हें कहे कि भाई जहाज़ में छेद हो गया है, तो उन्हें चाणक्यनीति की 11 रूपए की किताब भी ऐसे लोग थमाने में लगे हैं।
इससे भी अलग एक बात और है, और जो मुझे लगता है कि सामान्यतः हर शीर्ष भाजपा नेता के साथ जुड़ा एक सिंड्रोम है, बीमारी है, compulsive approval seeking, सब hostile लोगों के बीच अपने आप को accept करवाने का सिंड्रोम।
शुरू के तीन साल लुटियंस के दलाल पत्रकारों, मीडिया घरानों को भी इसी सिंड्रोम के तहत पटाने की मुहिम चली जो औंधे मुँह गिरी, जबकि इनका इलाज ट्रम्प साहब जैसा कुछ होना था। करूणानिधि को महानतम नेता का सम्मान दिलवाना, वोट के गणित को भूल भी जाएँ तो, इस सिंड्रोम का नतीजा भी हो सकता है।
इसका एक और उदाहरण देखने को मिला जब प्रणव मुखर्जी संघ के कार्यक्रम में नागपुर में शामिल हुए। एक लगभग सौ साल पुराने करोड़ों सदस्यों के संगठन को, उनके अनुषांगिक संगठनों को ऐसा खुश होते, गदगद होते, फूल कर कुप्पा होते मैंने कभी नहीं देखा। अन्यथा एक hostile विचारधारा के रिटायर्ड आदमी के अप्रूवल के भूखे हम लोग, कितनी लाचारी और बेचारगी है भाईएक प्रणव आ गए तो हमने हमारी ही नज़रों में सेल्फ रेस्पेक्ट पा ली?
ऐसी कई घटनाएं है। जब मुझे अपना एक पुराना लेख याद आता है कि, पिताजी को कंघियाँ इकट्ठी करने का शौक है पर गंजे पिताजी इन कंघियों का करेंगे क्या?
अच्छा कल्पना कीजिये कि साहेब ऐसे gimmics खेल खेल कर तमिलनाडु में सत्ता में आ गए तो क्या वहां की राजनीति को रिमोट से चलाने वाली मिशनरियों के नेटवर्क को ध्वस्त कर पाएंगे?
अपने दिल पर हाथ रखिये और सोचिये क्या ये हो सकेगा? अगर नहीं तो रद्दी में फेंकिए ये कूटनीति की सस्ती किताब और वही कीजिये जो वैचारिक रूप से सही हो, सैद्धांतिक हो और नैतिक हो।