मन में यूं ही सवाल उठा कि, करुणा और निधि, संस्कृत के दो सारगर्भित शब्दों को अपने नाम में समेटे कोई व्यक्ति हिंदी का विरोधी कैसे हो सकता है?
जवाब आएगा, नाम है… नाम में क्या रखा है।
बात तो ठीक भी है, अब उनका बेटा स्टालिन, क्या अपने मात्र नाम से रूस का मान लिया जाएगा? नहीं, सवाल ही नहीं पैदा होता। अगर वो तानाशाह जैसा व्यवहार वाला हो तब भी इसे संयोग ही कहेंगे।
लेकिन “नाम में कुछ नहीं रखा है” यह कम से कम करूणानिधि नहीं बोल सकते थे। क्यों? क्योंकि उन्होंने शब्दों की ही तो राजनीति की थी।
किसी रेलवे स्टेशन का नाम हिंदी में लिख दिए जाने के कारण इतना बवाल किया था कि कई मर गए थे। सड़क किनारे मील के पत्थरों पर हिंदी में नहीं लिखा जाना चाहिए, इस किस्म की राजनीति को आधार बना कर जो व्यक्ति पांच दशक तक एक राज्य की सत्ता के शीर्ष पर रहे, उससे यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए था कि भाई आप अपने नाम में शुद्ध हिंदी क्यों ढो रहे हो।
उनसे हिंदी विरोध की राजनीति के संदर्भ में कभी किसी ने यह क्यों नहीं पूछा कि तमिल ने कई शब्द संस्कृत से क्यों लिए? इतने कि उनकी पहली पत्नी का नाम भी संस्कृत का शब्द पद्मावती था।
ये सब सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनकी भाषा की राजनीति कोई छोटी मोटी राजनीति नहीं बल्कि सिर्फ इसी को सीढ़ी बना कर वो कहाँ से कहाँ पहुंच गए।
करुणानिधि को तो यह बताया जाना चाहिए था कि उन्हें जितनी नफरत संस्कृत और हिंदी से है, उतना ही प्रेम तमिल भाषा को संस्कृत और हिंदी से रहा है।
मैं यहां भाषा का इतिहास इसलिए ले कर बैठ गया क्योंकि करूणानिधि का पूरा राजनीतिक इतिहास सिर्फ इसके इर्द गिर्द ही घूमता रहा। यह सवाल उनसे इसलिए भी अधिक संदर्भित है क्योंकि वे तमिल लेखक थे।
अब उनसे कोई कैसे पूछ सकता है? वे तो चले गए। मगर जो विरासत पीछे छोड़ गए वो भयावह है। क्या देश उसे जान रहा है? क्या उसके दूरगामी परिणामों का आंकलन हुआ है? नहीं।
वैसे सोशल मीडिया के युग में एक फायदा है, किसी का भी ऐसा पोस्टमार्टम होता है कि फिर उसके बारे में कुछ और कहीं पढ़ने जानने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
करूणानिधि के बारे में इतना कुछ लिख दिया गया कि यहां मेरे लिए कुछ लिखने की आवश्यकता ही नहीं रह गई। मगर एक बिंदु बार बार मेरे मन -मस्तिष्क में उभर रहा है कि शायद वे पहले ऐसे सफल राजनेता हैं जो मूलतः लेखक थे। अपनी भाषा के प्रसिद्ध लेखक। और जब राजनेता बने तो वो भी कोई छोटे-मोटे नहीं बल्कि तमिलनाडु पर उन्होंने राज किया।
बहरहाल आज उनकी अंतिम यात्रा पर उत्तर भारत के आमजन की तमाम प्रतिक्रियाओं का सारांश कोई मांगे तो कहा जा सकता है कि वे जितना हिंदी विरोधी और उत्तर भारत के भी विरोधी थे उतना ही उत्तर भारत वाले भी उन्हें नापसंद करते हैं।
करुणानिधि ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ आक्रोश भड़का कर राजनीति की जो फिर हिन्दू विरोध तक जा पहुंची थी। और वो वहीं नहीं रुकी थी बल्कि अनेक बार अपनी सीमा पार कर देश विरोध के निम्नतम स्तर पर भी पहुंची। यह सब कटु सत्य है।
हम इन बिंदुओं पर चाहे जितने कमेंट दें, अपना आक्रोश व्यक्त करें, उनका मज़ाक उड़ाएं, मगर इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते हैं कि वे राजनीति में सफल हुए थे। और अगर वे सफल हुए थे तो इसका मतलब ही है कि उनके साथ जनता थी। और ये जनता अर्थात हमारे ही भाई हैं।
अब इन्हें तो हम हलके में नहीं ले सकते। और अगर हम तमिलनाडु की जनता का भी मज़ाक उड़ा रहे हैं तो फिर हमारे सर्वनाश को कोई नहीं रोक सकता। और मेरा सोचना यहीं से शुरू होता है कि हमें यह समझना होगा कि करूणानिधि और उनके जैसे क्यों और कैसे सफल हुए? और अब भी हो रहे हैं?
इससे भला कोई कैसे इंकार कर सकता है कि वे भ्रष्ट राजनीति के समर्थक थे और उन्होंने वंशवाद को दक्षिण में बढ़ावा दिया। इसमें भी कोई शक नहीं कि व्यक्तित्व और चरित्र के मामले में भी, उन्हें कम से कम कोई आदर्श तो नहीं कह सकता।
यह भी कटु सत्य है कि उन्होंने भी अन्य समाजवादी और वामपंथियों की तरह असल में गरीब व पिछड़ों का शोषण किया। कहते हैं कि उनका असेंबली क्षेत्र इतना पिछड़ा हुआ है कि देखकर कोई भी हैरान हो जाता है।
आज यह सवाल ज्यादा मायने रखते हैं और उनका विश्लेषण अधिक महत्वपूर्ण है कि यह भारत में कैसे अब तक राजनेताओं द्वारा किया जाता रहा है। आखिर किस मानसिकता के कारण इन जैसों को निरंतर वोट मिलता है?
अगर आप इसे सिर्फ दक्षिण का मानकर हलके में उड़ा देते हैं तो आप ज़मीनी हकीकत से परिचित नहीं। अगर आप सिर्फ दक्षिण को व्यक्तिवादी पूजक मानते हैं तो आपका विश्लेषण निष्पक्ष नहीं।
क्या आप यह नहीं मानते कि पहले वंशवाद और व्यक्तिपूजा को दिल्ली में 1947 में ही गांधी ने स्थापित कर दिया था। हम अब तक कितने बड़े व्यक्तिपूजक रहे हैं कोई अमेठी और रायबरेली की जनता से पूछे। करूणानिधि तो कल के थे, ज़रा उत्तरप्रदेश के उस हिस्से में जाइये जहाँ से नेहरू और उनके परिवार ने सत्तर साल राज किया।
दक्षिण भारत की फिल्मों को दोष देने वाले बॉलीवुड के हाल से अपरिचित लगते हैं। हाँ, हमारा पागलपन थोड़ा छुपा हुआ रहता है। सच कहें तो व्यक्तिपूजा हमारा राष्ट्रीय-चरित्र है। उत्तर और दक्षिण में बस 19 और 20 का ही अंतर होगा।
बहरहाल इसके विस्तार में जाना विषयांतर होगा। सवाल मेरा वही बरकरार है कि करूणानिधि क्यों और कैसे सफल होते हैं? ध्यान रहे, करूणानिधि पूरे भारत में भिन्न भिन्न नाम और रूप में मिल जाएंगे।
कोई कह सकता है कि उन्होंने मुफ्त में सामान बांटने की प्रथा प्रारम्भ की। यह सत्य है और साथ ही यह भी मान लिया जाना चाहिए कि इसके लिए जनता का गरीब होना जरूरी है और ये राजनेता अपने नागरिको को भिखमंगा बना कर रखते हैं जिससे टुकड़ा फेंकते ही वोट लिए जा सके।
यह भी हमारी राष्ट्रीय रणनीति है जो अमूमन सभी दलों द्वारा अब तक अपनाई गई। मैं इसमें भाजपा और विशेष रूप से मोदी को अलग रखूंगा। और इस कथन के समर्थन में प्रमाण भी दिए जा सकते हैं जो इस लेख का मकसद नहीं।
यहां सवाल उठता है कि क्या मोदी तमिलनाडु की राजनीति में घुस पाएंगे? वैसे इससे अधिक सही वक्त कोई और नहीं हो सकता। राज्य के दोनों बड़े सितारे, जयललिता और करूणानिधि, मैदान में नहीं हैं। दोनों की दुनिया से विदाई तकरीबन एक ही समय हुई।
यह भी प्रकृति का संयोग कहा जा सकता है या महादेव की योजना। कहीं ब्रह्मा तंग आकर राज्य की आगे की व्यवस्था स्वयं तो नहीं कर रहे? हो सकता है, क्योंकि मोदी के अतिरिक्त अब सिर्फ रजनीकांत ही एक और संभावना बचते हैं।
क्या होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है, मगर कुछ ज़रूर होगा, यह तय है। तमिल जनता के लिए भी यह एक सुनहरा मौका है कि वे देश की मुख्य धारा में आयें। उनके लिए भी यह समय आत्मविश्लेषण का है कि आखिर उन्हें मिला क्या।
जो राज्य की राजनीति में प्रवेश करने की योजना बना रहे हैं, उन्हें यह तो समझना ही होगा कि अब तक तमिल की राजनीति का मूल क्या था? द्रविड़ आंदोलन। आखिर यह भाव आया कहाँ से? ध्यान देने पर हम सब जानते हैं कि यह झूठ अंग्रेज़ों की देन है। जिसे करूणानिधि जैसे चालाक और धूर्त राजनेताओं ने खूब भुनाया।
राजनीति भावनाओं और परसेप्शन का खेल है। सच कहें तो दक्षिण के सभी राजनेताओं ने राजनीति की उसी ज़मीन पर पौधे रोपे जिसको अंग्रेज़ समतल कर तैयार कर गए थे। इन्होंने तो उसमें समय समय पर खाद ही डाला। मगर यह रासायनिक खाद की तरह हानिकारक निकला।
तमिल वालों को जानबूझ कर कभी भाषा, कभी संस्कृति, कभी सभ्यता के भेद में उलझाया गया। किसी ने कभी इन्हें सनातन सच बताकर राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने की सोची भी नहीं। वे क्यों सोचेंगे, जब उनका खेल धारा से दूर ले जाने पर सफलतापूर्वक चल रहा है।
सवाल उठता है कि किसी ने भी इसे बौद्धिक स्तर पर काउंटर करने की भी कोई योजना क्यों नहीं बनाई? सब फ़ास्ट फ़ूड की तर्ज़ पर ट्वेंटी ट्वेंटी मैच खेलते रहे। जबकि यह आर्य-द्रविड़ का विभाजन कितना झूठ और कमजोर तर्क पर टिका है, आसानी से देखा जा सकता है।
शायद आप भी इसे ना मानें। चलिए मैं आप को चेन्नई के मरीना बीच, जहां सभी तथाकथित द्रविड़ आंदोलन के नेताओं की आत्मा बसी है, उससे कोई मात्र 100 किलोमीटर दक्षिण में महाबलिपुरम लिए चलता हूँ।
चेन्नई में चाहे जिसकी प्रतिमाएं लगी हों मगर पता है यहां किसकी हैं? यहां पांडवों की हैं। ये पाँचों आर्यपुत्र यहां नायकों के समान हर पत्थर पर उकेरे गए हैं। और इन्हें बनवाने वाले सभी दक्षिण के राजा थे।
अगर आर्य और द्रविड़ के बीच इतनी ही नफरत होती तो श्रीकृष्ण यहां विराजमान नहीं होते। चेन्नई से थोड़ी ही दूर गोविंदा गोविंदा का जयकारा लगाने वाले भक्त नहीं होते। बालाजी कहाँ हैं, किस रूप में हैं, किसका अवतार हैं, बताने की आवश्यकता नहीं।
अगर दक्षिण में इतनी ही उत्तर भारत के प्रति नफरत होती तो तिरुपति दुनिया का सबसे धनी मदिर नहीं बनता। कौन जाता है वहां? अधिकांश दक्षिण के लोग होते हैं।
जितने सुन्दर और भव्य मंदिर दक्षिण में हैं उतने उत्तर भारत में भी नहीं। कहते हैं कि दक्षिण के लोगों के बीच काशी और प्रयागराज को लेकर विशेष आध्यात्मिक प्रेम रहा है। इस आस्था को बड़े षड्यंत्रपूर्वक तरीके से धीरे धीरे तोड़ा गया है। यह अभी पूरी तरह से टूटा नहीं है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस विषय पर राष्ट्रीय संस्थाओं के स्तर पर क्या हुआ? वो जो करेंगे, करें… मगर मेरा तो सवाल है कि बौद्धिक लोगों द्वारा विशेषकर धर्मगुरुओं द्वारा क्या प्रयास किये गए?
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि एक बार सनातन को बचाने वाले शंकराचार्य दक्षिण से ही आते हैं। हमारे कोई प्रयास ना करने के कारण ही हमें बांटने वाली शक्तियां हम पर राज करती आ रही हैं। हम अब भी नहीं जाग रहे, जिसका भुगतान भी फिर हम ही कर रहे हैं। यही कारण है जो करूणानिधि सफल होते रहे हैं।
क्या बस यही कारण है? नहीं, कुछ और भी है। और भी कुछ है जिसके दोषी हम सब हैं।
आम हिन्दुओं के भीतर आक्रोश है। हम जाति के संघर्ष में फंसते चले जा रहे हैं। जिसका फायदा ये राजेनता उठा रहे हैं। लेकिन अगर कोई हमें भिड़ा ले जाये तो सारा दोष उस पर तो नहीं डाला जा सकता। ऐसा क्या है जो हमारी जातियों में संघर्ष बढ़ता जा रहा है?
अपने अब तक के अध्ययन से यह तो कह ही सकता हूँ कि वैदिक काल में अनेक समस्याएं थीं मगर आपस में वर्गसंघर्ष नहीं था। ऐसा कम से कम कोई उदाहरण नज़र नहीं आता। असुर-सुर विवाद था, राक्षस-देवता के युद्ध होते रहते थे, राजा भी आपस में लड़ते रहते थे, मगर समाज के भीतर ही इस तरह के नफरत भरे भाव हों, दिखाई नहीं दिए।
मगर जो अब सोशल मीडिया या ज़मीन पर दिखाई दे रहा है वो हैरान-परेशान करने वाला है, यह दुखी करता है, सोचने पर मजबूर करता है। यकीनन यह सब बाद की कहानी है। मगर सारा दोष सिर्फ मुगलों और फिर अंग्रेज़ों पर डाल कर हम दोषमुक्त नहीं हो सकते। क्या हमारी कोई जिम्मेवारी नहीं। हम भी अपने कर्मफल से बंधे हैं।
ताली एक हाथ से नहीं बजती। हमें अपने पक्ष को देखना चाहिए। जिस तरह की शब्दावली हम अपने ही भाइयों के लिए खुले में करते हैं उसका बुरा प्रभाव कितना और क्या पड़ता होगा, इससे शायद हम पूरी तरह अनजान हैं। हम नादान तो नहीं लेकिन हमारा व्यवहार किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य भी नहीं। एक एक शब्द कैसे किसी को घायल कर सकता है इसका हमें अनुमान नहीं और अनुभव भी नहीं। तभी तो हम इनका प्रयोग बार बार करते रहते हैं।
कुछ तो है जो हम से भी गलत हुआ है और हो रहा हैं। जिसका आत्मावलोकन ज़रूरी है। हमें आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। हमे आत्मचिंतन, आत्मविश्लेषण, आत्मपरीक्षण करने की ज़रूरत है। समस्या हमारी है इसलिए प्रयास भी हमारे ही होने चाहिए। वरना श्री राम जैसे आदर्श युगपुरुष को ना मानने वाले करूणानिधि बार बार जन्म लेंगे।