प्रेरणा से ही मानव सभ्यता आगे बढ़ी है। पुराने अविष्कारों को बेहतर कर नए समाज की रचना हुई और इसी परंपरा को हम विकास कहते हैं।
ऩ्यूटन और आंइस्टीन के सिद्धांतों से विज्ञान आज बहुत आगे की खोजों में लगा है। जो बात हिग्स सिर्फ थ्योरेटिकली कहते थे आज विज्ञान क्वांटम के उन सिद्धांतों को प्रायोगिक रूप से सामने रखने का प्रयास कर रहा है।
अब ज़रा सोचिए हमें जहां न्यूटन या आइंस्टीन ने छोड़ा था हम उसी के इर्द गिर्द थोड़ी बहुत उठा पटक करके उन्हीं के शोध को सामने रखते रहते तो क्या होता? ज़ाहिर तौर पर हम कहीं नहीं जाते, वहीं खड़े रहते।
आज भारत में विज्ञान की हालत कुछ ऐसी ही है। इसकी बड़ी वजह है मूल शोधों का नितांत अभाव।
हम सिर्फ यही कहते दिखते हैं कि किसी ज़माने में हमारा विज्ञान बहुत समृद्ध था, लेकिन आज हम सिर्फ और सिर्फ नकल करने तक क्यूं सीमित हो गए हैं, इस पर कोई विचार नहीं करता। हमारे पास चुनौतियों की तो लंबी लिस्ट होती है लेकिन उनसे निपटने के लिए प्लान की हमेशा कमी रहती है।
उदाहरण के लिए सिंगापुर एक ऐसा देश है जिसके पास पानी का नितांत अभाव है। कोई प्राकृतिक स्त्रोत नहीं होने की वजह से वो वर्षा के जल पर ही पूरी तरह निर्भर रहता है। ऐसे में सिंगापुर ने अपनी इस चुनौती से निपटने के लिए काफी मेहनत और रिसर्च की।
पानी को लेकर स्कूली शिक्षा से ही जागरुकता लाने के साथ साथ सिंगापुर ने अपने इन्वेस्टमेंट का बड़ा हिस्सा पानी बचाने और री-यूज़ करने की तकनीकों पर ही किया है। चाहे वो न्यू वॉटर हो या सिंगापुर का वॉटर रिसरवायर सिस्टम।
कुछ दिन पहले नीति आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की है, जो बेहद डरावनी है। देश में जलसंकट की हैरान करने वाली तस्वीर ये है कि तकरीबन 60 करोड़ लोग पानी की भयंकर कमी से जूझ रहे हैं। 75 प्रतिशत घरों में पीने के पानी का स्त्रोत नहीं है।
इसमें सबसे अहम आंकड़ा ये है कि 70 फीसदी पानी पीने लायक नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में हम कई अन्य देशों के मुकाबले काफी समृद्ध हैं लेकिन संसाधनों का सही इस्तेमाल और रखरखाव हमें आता ही नहीं।
मूल विषय है दुनिया भर के देशों की तकनीकों की नकल करते रहना। चाहे हमारा एजुकेशन सिस्टम हो, चाहे हमारी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री हो या फिर हमारा रहन सहन ही क्यूं न हो, हम दुनिया के अन्य देशों से न सिर्फ प्रभावित हैं बल्कि पूरी तरह उनके पीछे पीछे चल रहे हैं।
हमने जेनरिक दवाओं के मामले में अपनी जगह बनाई है। इसके पीछे भी रिवर्स इंजीनियरिंग को ही माना जाता है। यानि कहीं और बनी दवाओं के कंपोनेंट्स को तोड़ कर सस्ती दवाएं बनाने का फार्मूला ईजाद करना।
हाल के दिनों में विज्ञान के क्षेत्र में यदि भारत का बोल बाला है तो वो अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में। पहले चंद्रयान, फिर मंगलयान भारत की बड़ी सफलताएं हैं। इसके बावजूद हम अन्य क्षेत्रों में रिसर्च के मामले में बहुत पिछड़ हुए हैं।
कहने के लिए तो हमारे पास बेहतरीन इंस्टीट्यूट्स हैं लेकिन यहां से अंतर्राष्ट्रीय स्तर के रिसर्च पेपर क्यूं नहीं पब्लिश होते? यहां तक कि आईआईटी जैसे संस्थानों पर Plagiarism (साहित्यिक चोरी/ बौद्धिक चोरी/ ग्रंथ-चोरी) के आरोप आए दिन लगते रहे हैं। मैं यहां उन मामलों को रखना नहीं चाहता, लेकिन नकल करने की बीमारी को समझने के लिए हमें अपने इन उत्कृष्ट संस्थानों की स्थिति को भी देखना समझना होगा।
स्कूल एजूकेशन को लेकर तो हमारे यहां पहले से ही एक लंबी बहस चलती रही है। बच्चों के स्कूलों में टैक्स्ट बुक्स फॉलो करने तक सीमित रखा जाता है। जो शिक्षक उन्हें पढ़ा रहे हैं वो भी ज्यादातर उसी लीक के हैं जहां कॉपी पेस्ट ही पढ़ाई माना जाता है। हमारे यहां कहा तो जाता है कि पढ़े लिखे बेरोजगार है लेकिन ये क्या सचमुच पढ़े लिखे हैं इस पर गौर करने की ज़रूरत है।
स्टार्टअप इंडिया की शुरूआत को मैं एक बेहतरीन पहल मानता हूं। ये एक ऐसी योजना है जहां युवाओं की डिग्री से ज्यादा उनके इनोवेशन पर ध्यान दिया जाता है। इनक्यूबेटर्स की स्थापना की जा रही है ताकि वो व्यवसाय संबंधी चुनौतियों से निपटने के लिए इन स्टार्ट अप्स की मदद कर रहे हैं।
अब परेशान करने वाली बात ये है कि यहां भी धीरे धीरे वही ढर्रा हावी होता जा रहा है जो हमेशा से चलता रहा है। इनोवेशन के नाम पर युवाओं ने विदेशी तकनीकों में कुछ मॉडिफिकेशन किए और उन्हें अपने इनोवेशन के तौर पर सामने रख दिया। ज्यादातर इनोवेशन तो ऐसे रहे हैं जिन्हें इनोवेशन कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ये तो परंपरागत व्यवसाय को बस स्टार्ट अप इंडिया जैसी योजनाओं का फायदा दिलाने का प्रयास भर लगती है।
अभी तक जो बातें कहीं गई वो आलोचना के मकसद से नहीं, बल्कि परेशानी को समझने के मकसद से कही गई हैं। देश में योग्य छात्रों या शोधकर्ताओं की कमी नहीं है बल्कि उन्हें सही अवसर देने की कमी है। यही वजह है कि हमारे देश का युवा जब शोध के योग्य होता है तो वो विदेशों का रुख करता है क्योंकि वो जानता है कि वहां उसे शोध के बेहतर अवसर मिलेंगे। इन अवसरों को यहीं पैदा करना जरूरी है।
देश में इन क्षेत्रों पर काम करने की आवश्यकता है। बेहतर भविष्य के लिए हमें इन क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान, ऊर्जा और धन लगाने की आवश्यकता है।
1. वेस्ट मैनेजमेंट –
प्रदूषण से प्राकृतिक संसाधनों का खत्म होना सबसे बड़ा खतरा है। खास तौर पर हवा और पानी को हम तेज़ी से बर्बाद कर रहे हैं। सिर्फ पोस्टर लगाने या अभियान चलाने से कुछ नहीं होने वाला। आम लोगों में जागरूकता लाना आगे की बात है, पहले सरकार को इसके प्रति गंभीरता दिखानी चाहिए।
स्वच्छ शहर अभियान इसका एक बढ़िया उदाहरण है। आज इंदौर स्वच्छता सर्वेक्षण में नंबर वन है तो वहां के लोगों में स्वच्छता को लेकर जागरुकता अपने आप जागी है लेकिन पहले उन्हें इसका आधार वहां के स्थानीय प्रशासन द्वारा मुहैया करवाया गया। जो एक शहर में हो सकता है वो हर शहर में क्यूं नहीं? इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है।
कहने को तो जल प्रदूषण रोकने के लिए पॉल्युशन कंट्रोल बोर्ड ने नोटिस जारी किए हैं कि इंडस्ट्रीयल वॉटर-वेस्ट ट्रीट होकर ही रिलीज़ किया जाए, लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? क्या स्थानीय प्रशासन इसके कठोरता से पालन के लिए कोई कदम उठाता है? ज़ाहिर तौर पर नहीं, इसीलिए हालात बद से बदतर हुए हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात ये कि हम अपनी ज़रुरत के हिसाब से नई तकनीक को प्रमोट करने की कोशिश भी नहीं कर रहे हैं। जबकि ऐसी कई तकनीकें मौजूद हैं जो वेस्ट वॉटर ट्रीटमेंट के क्षेत्र में हमें आत्मनिर्भर देश बना सकती हैं।
2. एजुकेशन मैनेजमेंट –
यहां मैं स्कूल एजुकेशन की बहस में नहीं पड़ना चाहता या जो ब्रिटिश काल की एजुकेशन आदि की भी बहस चलती है वो भी बेमानी मालूम पड़ती है। सबसे पहले तो एजुकेशन का मतलब समझने की जरूरत है।
आज हमारे देश में कई बेहतरीन इंस्टीट्यूट्स हैं लेकिन फिर भी ये तादाद न के बराबर है। प्रतिभाओं को विकसित करने के लिए सिर्फ कॉलेज और इंस्टीट्यूट्स की तादाद बढ़ाने से बात नहीं बनेगी। वहां क्या पढ़ाया जा रहा है और किस तरह की प्रयोगशालाएं बनाई गईं हैं इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है।
ये बात संक्षेप में समेटना मुश्किल है लेकिन हम जब तक एजुकेशन क्वालिटी को अपनी प्राथमिकता नहीं बनाएंगे, देश स्वयं के इनोवेशन के लिए आगे नहीं बढ़ पाएगा। ये बात छात्रों की व्यक्तिगत कामयाबी की नहीं हैं, ये पूरे देश में इनोवेशन को लेकर उनके भीतर जागरुकता लाने और उसके लिए जरूरी संसाधन मुहैया करवाने की है।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है पढ़ाने वालों की। कहने के लिए तो हमारे देश में शिक्षा संस्थानों की तादाद बढ़ती जा रही है लेकिन अब भी इनोवेटिव दिमाग शिक्षण को अपना करियर बनाने से बचते दिखते हैं। सरकार को शिक्षकों की गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है।
इंस्टीट्यूट्स की तादाद बढ़ाने या इन इंस्टीट्यूट्स से बड़ी तादाद में डिग्रीधारी निकालकर किसी का भला नहीं होगा। न तो इन स्टूडेंट्स का, न ही देश का; हां शिक्षण संस्थान पूरी तरह व्यवसाय का केंद्र बन जाएंगे जो हो भी रहा है।
हमारी दुविधा ये है कि जो पढ़ाते हैं वो कभी रिसर्च में इन्वॉल्व नहीं होते हैं और जो रिसर्चर है वो कभी पढ़ाने में दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं। हालांकि दुनिया के विकसित देशों में और वहां की शिक्षा प्रणाली में ये बात एकदम उलट दिखाई पड़ती है।
3. विज्ञान के आदर्शों का मैनेजमेंट –
भारत में दो ऐसे करियर हैं जिनके लिए ज्यादातर युवा लालायित दिखाई पड़ते हैं। एक है क्रिकेट का मैदान और दूसरी है फिल्मों की चकाचौंध। इन दोनों ही क्षेत्रों में कोई खराबी नहीं है और ये किसी को भी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवा सकते हैं।
लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि विज्ञान या इनोवेशन के प्रति हमारे देश में युवा कितना सोचता है? क्या हमारे देश में समाज को विकसित करने वाली इस सबसे महत्वपूर्ण विधा के प्रति आज देश का युवा लालायित है? स्पष्ट तौर पर जवाब नहीं ही आएगा क्योंकि विज्ञान को लेकर ऐसी कोई क्रांति नहीं दिखती।
ये बात तो क्रिकेट के मुकाबले अन्य खेलों के प्रति कम रुझान के बारे में भी कही जाती थी। लेकिन फिर कुछ बेहतरीन खिलाड़ियों के प्रदर्शन और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति ने कुश्ती, बॉक्सिंग, बैडमिंटन और शूटिंग जैसे खेलों के प्रति भी युवाओं का रुझान बढ़ाया। यही वजह है कि बहुत ज्यादा नहीं लेकिन पहले से बेहतर स्थिति अन्य खेलों में भी दिखाई पड़ती है।
Plagiarism की जहां तक बात है उसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल तो हमारी सिनेमा इंडस्ट्री में ही होता है और आज से नहीं, जब से इसकी शुरूआत भारत में हुई है तभी से हम दुनिया भर की कहानियों, म्यूज़िक, डांस और लगभग फिल्मों के हर हिस्से को अन्य लोगों से ही लेकर उसका देसी वर्ज़न बनाते रहे हैं।
ये उदाहरण समझना इसीलिए जरूरी है क्योंकि ये अब हमारी आदत सा बना चुका है। हम विज्ञान के क्षेत्र में भी वैश्विक खोजों और अविष्कारों का देसीकरण करते हैं और उसे जुगाड़ का नाम दे देते हैं।
यही जुगाड़ फिल्मों में भी है लेकिन वहां हम आदर्श प्रस्तुत कर पा रहे हैं, क्रिकेट में भी हम आदर्श दे पा रहे हैं, राजनीति में तो हम सबसे विरले हैं ही लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में क्या बीते कई सालों में हमने वैश्विक पटल पर कोई आदर्श रखे हैं?
कलाम साहब जैसे एक दो चेहरे भी खड़े होते हैं तो वो पूरे देश के लिए एक बड़ा आदर्श बन जाते हैं। हमें विज्ञान के क्षेत्र में इन आदर्शों को सामने रखने को महत्व देना होगा तभी हम मूल शोधों और चिंतन की तरफ बढ़ पाएंगे।
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