सावन, माँ पार्वती की कठोर तप साधना का माह। वह साधना जो शिव को सती के महावियोग से खींच लाई। जिन आदियोगी को कामदेव भी सृष्टि के मोह में बांध ना पाए, स्वयं खाक हो गए, उन्हें माँ पार्वती के तप ने पिघला दिया। माँ के कठोर तप के बाद भी जब-जब पार्वती के बारे में सोचता हूं, सती दबे पांव मेरे मस्तिष्क में कब्जा जमा लेती हैं। इनके पांवों के पाजेब की मधुर ध्वनि कानों में झंकृत होने लगती है।
शिव मेरे अराध्य ही नहीं प्रथम गुरु है। प्रथम के साथ अंतिम भी। वे सृष्टिकर्ता भी हैं और संहारक भी। त्रिनेत्रधारी… तीसरा नेत्र खोले तो जग विध्वंस कर दें।
वे कत्थक के जन्मदाता हैं, राग-रागनियों के प्रणेता हैं। जग में रमता जोगी हैं। भोग में वे भोगी हैं और योग में महायोगी।
जब भी सावन की फुहारों के बीच शिव-पार्वती के रिश्ते के बारे में सोचना शुरू करता हूं, मन-मस्तिष्क सती-सती-सती जपना शुरू कर देता है। कितना अजब रिश्ता था शिव-सती में।
मेरे दादाजी ने एक बार शिव-सती के विवाह को संसार का प्रथम प्रेम विवाह कहा था। विलक्षण गठबंधन… दक्षराज की पुत्री राजकुमारी सती और औघड़ शिव का। प्रेम की राह पर चल रही फूलकुमारी हर सांसारिक मोह को त्याग भोले का वरण करती है। अपने पिता ब्रह्मा के कहने पर, दक्षप्रजापति विवाह तो कर देते हैं लेकिन शिव को दामाद का दर्जा नहीं दे पाते। शिव का वरण कर सती अपने पिता से दूर होती हैं लेकिन उनकी यादों से दूर नहीं… पति के प्रेम में आकंठ डूबी सती पिता के प्रेम में विचलित रही।
अराध्य शिवशंभू की जीवनगाथा को आज के युग से जोड़ कर देखिए। बेहद सुंदर, नाजो से पली राजकुमारी… नृत्य करते- डम-डम-डमरू बजाते, कंठ में सर्प लपेटे शिव की ओर आकर्षित होती है। कत्थक की बारिकियां सीखते-सीखते शिव की रागनियों में डूब जाती हैं और उन्हें वर लेती हैं। माँ औघड़ जामाता को देख डरती हैं। दक्ष प्रजापति विरोध करते हैं। बेटी हठ पर अड़ जाती है। त्रिदेवों में से एक शिव को, दक्षप्रजापति मना नहीं कर पातें। कभी मन से जमाता भी नहीं मान पातें।
आप सोचिए… सती ने अपने पिता के सामने अपनी इच्छाओं का दमन नहीं किया लेकिन पिता के प्रति अपनी प्रीत भी कम नहीं कर पाईं वे। पिता यज्ञ कर रहे हैं, यह सुनकर पुत्री-पिता के द्वार जाती है, विश्वास है पिता लाड़ली पुत्री का आलिंग्न करेंगें। होता विपरीत है, जन्मदाता अपनी संतति के प्रति कठोर हो जाता है। पुत्री पिता के द्वार, नुपुर की खनक के साथ आती है, बदले में मिलते हैं पिता के पति के लिए कठोर वचन। पुत्री का पत्नी में कायांतर होता है, वह अपने पति का अपमान सह नहीं पाती, आत्मदाह कर लेती है।
सती से यह बिछोह हमारे अराध्य को असहनीय पीड़ा देता है। वे मृत सती की देह कांधे पर टांग, जोगियों की तरह भटकते हैं। श्रीहरि विष्णु के सुदर्शन से कट सती के अंग गिरते हैं… शक्तिपीठ बनते हैं लेकिन-लेकिन मेरे अराध्य का मन शांत नहीं होता। फिर योगी शिव अनंत ध्यान में खो जाते हैं।
इच्छाओं का दमन जब मेरे अराध्य को शिव को, महायोगी को इतनी पीड़ा पहुंचा सकता है… तो हम क्या सीख रहे हैं। क्यों एक-दूसरे की इच्छाओं का दमन कर दुखवादी बन रहे हैं। क्यों हम शिव के शिवतत्व को समझ नहीं पा रहे हैं। शक्तिपीठ बनाने के पीछे भी मेरे अराध्य का उद्देश्य उनकी ब्याहता को सम्मान देना है। सती की योनी तक को सम्मान दिया गया। कामाख्या शक्तिपीठ की स्थापना हुई। क्योंकि शिव-सती, शिव-पार्वती मिलकर ही संसार की रचना करते हैं, शिवलिंग और माँ कामख्या के गूढ़ रहस्य को हम जानते हुए भी अंजान बनते हैं।
सती से बिछोह के बाद भोलेनाथ अनंत ध्यान से तब ही बाहर आते हैं जब सती, पार्वती के रूप में उनके सामने आती है। मुस्कुराती है… मेरे अराध्य का अपना परिवार है। वे युद्ध करते हैं, सृजन करते हैं, विध्वंस करते हैं, भक्तों की भक्ति में रमते हैं… जोगी हैं, योगी हैं, भोगी हैं… फिर क्यों हम उनकी सच्ची भक्ति से डरते हैं।
शिव झूमकर नृत्य करते हैं, खुलकर जीने की कला सिखाते हैं… राग-रागनियां गाते हैं, वे हमें मुस्कुराना सिखाते हैं। वे इच्छाओं को पूर्ण करना सिखाते हैं। फिर हम उनकी भक्ति करते हुए अपने-अपनों की इच्छाओं का दमन कैसे कर सकते हैं। सोचिए… समझिए… शिव कुछ कह रहे हैं… कला के जन्मदाता हमें जीवन जीने की कला सिखा रहे हैं।
यही कला श्रीकृष्ण ने सिखाई थी… कृष्ण और शिव के जीवन का साम्य देखिए… राधा के बिना कृष्ण ने बांसुरी ना बजाई, सती के बिना शिव ने वीणा ना उठाई… इस जीवन का अस्तित्व प्रीत है… प्रीत का बिछोह जब देव को नीरस कर देता है तो इंसान की क्या बिसात… अभी भी वक्त है, धर्म की पोंगापंडिताई करने से बचिए। हमारे अराध्य हमें जीवन की कला सिखा रहे हैं… एक बार सीख कर देखिए।
ॐ नमः शिवाय
– साभार शिव शक्ति सोशल मीडिया से प्राप्त