सोनू निगम और अजान के मसले पर बोलने से पहले एक भूमिका रखता हूं। कुछ निजी संदर्भ हो जाए। यहां मैं यह बता दूं कि मैंने वर्ष 1997 में बाका़यदा उर्दू भाषा लिखना व पढ़ना सीखी थी। आज भी लिखना व पढ़ना जानता हूं।
उस समय मैं गीत, गजल, शेर वगैरह लिखता था और मोहम्मद रफी के गीतों प्रति जबर्दस्त आकर्षण और दीवानगी के चलते मैं उसी अंदाज में गीत लिखा करता था। उम्र थी मेरी 14 साल। चूंकि भाषा उर्दू सुनता व लिखता था तो सोचा कि लिपि भी उर्दू ही होना चाहिए।
तो बाकायदा उर्दू शिक्षक से सीखा। केवल चार महीने पढ़ाई की। उन चार महीनों में उर्दू की पहली से लेकर आठवीं तक की कोर्स की किताबें पढ़ीं। अरबी की शुरुआत भी होने वाली थी लेकिन बोर्ड परीक्षा की वजह से वह अधूरा रह गया और कभी पूरा न हो सका।
इसमें बताने योग्य यह बात है कि चार महीनों के दौरान उर्दू की कुछ मज़हबी किताबों के पैपरबैक एडिशन वगैरह भी हमें पढ़ाए गए। अजा़न और नमाज़ के बारे में जानकारी मिली। नमाज़ पांच समय की होती है। सभी के नाम हैं। सुबह पांच बजे वाली फज़र, दोपहर डेढ़ बजे के आसपास दूसरी जुहर, तीसरी सूर्यास्त के ठीक पहले शाम को असर, चौथी सूर्यास्त के ठीक बाद मगरीब और पांचवी व आखिरी रात साढ़े आठ बजे के आसपास होती है जिसे ईशा कहते हैं।
हिंदुओं की शयनआरती की तर्ज पर यह शयन नमाज़ है। नमाज़ के लिए दिये जाने वाले बुलावे, निमंत्रण या आहवान को अज़ान कहते हैं। यानी पांच बार नमाज़ होगी तो उससे कुछ देर पहले इसकी सूचना ऐलान करके दी जाती है। अब अज़ान के बारे में कुछ बातें। अज़ान के शब्द तयशुदा होते हैं। गौर फरमाइये।
अल्लाह हो अकबर अल्लाह,
अल्लाह हो अकबर अल्लाह,
अश-हदू अल्ला-इलाहा इल्लल्लाह
अश-हदू अल्ला-इलाहा इल्लल्लाह
अश-हदू अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह
अश-हदू अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह
ह्या ‘अलास्सलाह, ह्या ‘अलास्सलाह
हया ‘अलल फलाह, हया ‘अलल फलाह
अल्लाह हो अकबर अल्लाह,
ला-इलाहा इल्लल्लाह
सुबह के समय की अज़ान में एक लाइन अतिरिक्त होती है जो शेष चारों अज़ान में नहीं होती। यह है – अस्सलातो खेरूम मिरन्नूम। यानी नमाज़ नींद से बेहतर है। यानी नींद से जागो और नमाज़ पढ़ने आओ।
अब थोड़ी अलग और तीसरी दृष्टि से देखें। एक संगीतप्रेमी के नज़रिये से देखें। इतना तो तय है कि यह जो इबारत है, यह पूरी दुनिया में कॉमन है। भारत और भारत से बाहर सारे इस्लामिक देशों में यह अजा़न एकदम कॉमन है। अखंड। अब बेहद गहरी बात गौर कीजिये कि मान लीजिये यह एक म्यूजिकल नोट है। एक गीत है। और इसे हर शहर में, हर जिले में, हर कस्बे में, हर गांव में, हर गली मोहल्ले में, हर देश में हर मुल्ला हर बार अलग तरीके से गाता है।
यानी हम बॉलीवुड के एक से बढ़कर एक दिग्गज संगीतकारों को भी बुलाएं और टास्क दें तो वे भी एक सीमा पर आकर परेशान हो जाएंगे कि एक ही शब्दावली पर असंख्य धुनें कैसे बनाई जा सकती हैं। आप भी जिस शहर में जिस जगह रहते होंगे वहां गौर करना कि हर मुल्ला अपनी शैली में अपनी स्टाइल में अजा़न देता है। और इसके लिए उसने कोई क्लास ज्वाइन नहीं की होती है। उसके सामने लिरिक रखा होता है। उसे उस पर धुन बनाकर बिना आर्केस्ट्रा के गाना होता है।
यानी यहां उसकी मौलिकता और क्रिएटिविटी की दाद देना होगी क्योंकि घटिया किस्म के माइक और लाउडस्पीकर पर उसे गाना होता है। ऐसे में कुछ मुल्ले बेहद, बेहद, बेहद अत्यधिक कर्कश और कानफोडू होते हैं। ऐसे कि उन्हें एक लाइन तक ठीक से गाना या उच्चारित करना नहीं आता। पहली लाइन सुनकर ही आत्महत्या करने को जी चाहता है। कुछ कामचलाऊ होते हैं, और कुछ प्रतिभाशाली और कुछ अत्यंत प्रतिभाशाली।
अज़ान की दुनिया के वे मोहम्मद रफी होते हैं। उनका कंठ और अज़ान को गाने की अदायगी इतनी सुरीली और मिठास भरी होती है कि जी करता है उसे जाकर बोलें कि जनाब, एक बार और गा दो। अगली तीन नमाज़ एडवांस में कर लो। अल्लाह वगैरह से बाद में सेटिंग कर लेंगे, अभी तो तुम गा दो बस। इतने परफेकट म्यूजिकल नोट को यूं छोड़ा नहीं जा सकता।
टीवी पर आने वाले विज्ञापनों को जिंगल कहा जाता है। कुछ जिंगल्स इतने बेहतरीन होते हैं कि फिल्मों के गीत भी उनके सामने फेल लगते हैं। यानी मेलोडी कहीं भी हो सकती है। इस पर किसी का बस नहीं, ना यह किसी की बपौती है। पुराने उज्जैन शहर में उस समय मैं जहां रहता था वहां एक शाही मस्जिद थी। अब भी है। वहां मैंने गौर किया था कि सुबह के समय एक उम्रदराज मौलवी अज़ान देता है और शाम के समय किसी बालक की आवाज़ आती है। मैंने उन आवाज़ों को नाम दे रखे थे। पहला बादशाह, दूसरा शहजादा।
तो यह जो सुबह वाला था, वह बेहतरीन गायन विधा का स्वामी था। शानदार गायन कला का धनी। वाह, क्या अंदाज में अज़ान को गाता था। लंबी तान, सांस पर पूरा नियंत्रण, पूरी इबादत के भाव में डूबकर, बिना बेसुरा हुए और पूरी तृप्ति देकर खत्म करता था। वह वाकई रफी साहब की तरह ही ध्यानस्थ होकर गाता था।
उस समय 1998 में हम नया वॉकमैन लाए थे जिसमें ऑडियो टेप में रिकार्डिंग की सुविधा थी। वह सेल से चलती थी। सर्दी के दिन थे। सुबह पांच बजे तो रात ही रहती थी। पूरा अंधेरा। ऐसे में वह समय का पाबंद ठीक समय पर आकर अज़ान देता था। एक बार उसे मिस कर दिया तो अगले चौबीस घंटे इंतजार करना होता था बेसब्री से। तो, उसे रिकार्ड करने की ठानी। चुनौती ये थी कि उसके आने का ठीक समय पता नहीं था। टेप के सेल खत्म हो सकते थे। डेढ़ घंटे की कैसेट लगाई। साढ़े चार बजे सुबह उठकर पहुंचा छत पर। रिकार्डिंग शुरू कर दी। चालीस मिनट तक कैसेट कोरी चलती रही। सेल जल रहे थे। बहुत इंतजार के बाद मस्जिद का सन्नाटा आबाद हुआ और मेरा प्रिय मुल्ला अपनी लाजवाब आवाज़ लेकर हाजि़र हुआ। उसे पूरा रिकार्ड किया और किसी चैंपियनशिप में जीती ट्राफी की खुशी के समान टेप लेकर नीचे आया।
फिर तो उसे खूब सुना। बार बार, लगातार। दिन में दर्जनों बार। निश्चित ही कोई मुस्लिम कट्टरवादी यह सुनता तो मुझे मार देता कि एक दिन में पांच से अधिक बार अज़ान कैसे बजाई जा रही है। मैं कल्पनाओं में उसकी इमेज बनाया करता कि आवाज़ से इतना परफेक्ट है तो व्यक्तित्व में कैसा होगा। सच्चा मुसलमान होगा। कपड़े सलीके से पहनता होगा। रमजा़न निभाता होगा। बाद में वह मोहल्ला छूट गया और मैं उस आवाज़ और उस कल्पना को ख्यालों में ही दफन करके जीवन में आगे बढ़ गया।
जैसा कि मैंने कहा कि अज़ान कुछ शब्दों का जोड़ होता है जिसे तमाम मुल्ले अपने मन से गाते हैं। कभी यह कर्कश तो कभी एक्सीलेंट बन पड़ता है। ऊपर से बिना बैकग्राउंड म्यूजिक की चुनौती होती है। ऐसे में सोचता हूं कि देश भर में इतने क्रिएटिव मुल्ले हैं ऐसे में बॉलीवुड में प्रीतम चक्रवर्ती को या किसी और संगीतकार को धुनें, शब्द, गीत संगीत चोरी करने की नौबत यदि आती है तो उनके संगीतकार होने पर लानत है। इतने सारे अनट्रेंड मुल्ले संगीत की बेहतर सेवा कर रहे हैं और उन्हें पता भी नहीं, क्योंकि वे तो अपने बकवास धर्म की बकवास बातों को लाउडस्पीकर पर सुना रहे होते हैं। उससे हमें क्या लेना देना, हमें तो क्रिएटिविटी से मतलब है। अब लौटता हूं एकदम मुद्दे की बात पर।
सोनू निगम, जैसा कि हम सब जानते हैं, किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनकी इमेज सदा से एक मेलोडियस सिंगर की रही है। वे बहुत सुरीले और बेहतरीन गायक हैं। मोहम्मद रफी के स्कूल से निकले हैं तो सुरीला होना तो अनिवार्यता ही है। पिछले 15 सालों में सोनू निगम में इतने लाजवाब गीत दिए हैं कि उनकी दाद किसी पुरस्कार या पैसे से नहीं दी जा सकती। एक ऐसा गायक जो परंपरा और आधुनिकता का मिश्रण है। उसे आवाज़ पर इतना अधिकार है कि चाहे जिस दिशा में आवाज़ को उछाल सकता है, बावजूद सुर नहीं बिगड़ता।
सोनू निगम एक परफेक्ट और वर्सेटाइल सिंगर है। चूंकि यह वर्तमान दौर, यानी पिछले छह साल से जो चल रहा है, वह कर्कशता का दौर है। कूल डूड्स और हॉट बेब का दौर है। इन लोगों का क्वालिटी, संगीत, महानता, दिव्यता, पवित्रता से दूर दूर तक संबंध नहीं। इस घटिया दौर में क्वालिटी के सारे प्रतिमान गिर चुके हैं और मापदंड व परिभाषाएं एकदम उलट गई हैं और शीर्षासन कर रही हैं। यानी अब माधुर्य एक डिस्क्वालिफिकेशन है और कर्कशता एक क्वालीफिकेशन। यह प्रतिमान हर क्षेत्र में है। बॉलीवुड में बदसूरती अब सौंदर्य समझी जाती है, इसीलिए बदसूरत और घिनौने चेहरे वाले लोग हिट हैं। सुंदरता अब पिछड़ापन हो गई है।
अन्य क्षेत्रों में त्रुटिपूर्ण होना अब एक गुण है। गुणवान होना त्रुटि है। तो, ऐसे बंजर और बांझ दौर में कोई आश्चर्य नहीं कि वे लोग, जो सच्चे हैं और जीवन भर गुणों की, परफेक्शन की साधना करते आए हैं, वे खीझ उठें और चिढ़ जाएं।
बीते दौर के लाजवाब गायक अभिजीत यदि समय समय पर तीखे बयान देते हैं तो इसका ये अर्थ नहीं है कि वे पागल हैं या उन्हें लोकप्रियता चाहिए, बल्कि इसलिए वे संगत हैं और असंगति को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं।
बेशक, सोनू निगम एक महान गायक हैं। फिर वे हिंदू भी हैं। उन्हें धर्म से ऐतराज नहीं है। उन्होंने अपने कार्यजीवन का आरंभ ही देवी गीतों के जागरण से किया था। उन्होंने मुस्लिम धर्म के भी गीत गाए हैं। उनका महान एलबम दीवाना का संगीत साजिद वाजिद ने दिया था और मुस्लिमों से उनकी पटरी हमेशा से अच्छी बैठती रही है। उनके आराध्य, उनके इष्ट, उनके भगवान का नाम मोहम्मद रफी है, तो वे कैसे संकीर्ण हो सकते हैं।
यहां बात दूसरी है। पिछले कई दिनों से इस्लाम, जो कि अपनी तर्कहीनता, अपने गंवारपन, अपनी निरक्षरता और अपने जाहिलपन के कारण पूरी दुनिया के लिए महामारी बन चुका है। हम आए दिन आईएस जैसे बर्बर आतंकियों की कू्रता कथाएं पढ़ते रहते हैं। शाहरूख, आमिर, सलमान जैसे दुनियादार लोग अपने आप को बचाकर पतली गली से इस्लाम का भला कर रहे हैं और हिंदुओं की जेब से सौ सौ करोड़ निकाल रहे हैं। आतंकवाद ने सभी को मन से दुखी कर दिया है।
पाकिस्तान की आए दिन की हरकतों से सबका मन खट्टा हो चुका है। माहौल में इतनी तल्खी है कि केवल आर या पार की ही बात चाहते हैं अब लोग, अब उन्हें बीच की लीपापोती नहीं चाहिए। ज़ाहिर है, हिंसा और खूनखराबे के पक्ष में अच्छे लोग कभी नहीं आएंगे। सोनू निगम किसी लोकप्रियता के मोहताज नहीं हैं। वे कोई गली के गायक नहीं है जिसे मशहूर होना है। उन्हें मशहूर हुए बीस साल हो चुके हैं और वे बहुत बड़े कलाकार हैं। उनकी गायकी में नुक्स नहीं निकाल सकता कोई।
अचानक एक दिन उन्होंने एक के बाद एक ट्वीट किए और अज़ान की जान निकालकर रख दी। लोगों ने यही समझा कि जॉबलैस होते जा रहे सोनू को सनसनी की तलाश है ताकि उन्हें कुछ सुर्खी मिल सके। एक लड़की ने तो उन्हें री-ट्वीट करके कहा भी कि लगता है राज्यसभा के टिकट की तैयारी है। इस पर सोनू ने जवाब दिया कि बिलकुल नहीं। मुझे इसकी कोई ज़रूरत नहीं है।
जो लोग सोनू को केवल एक गायक के रूप में जानते हों उन्हें यह बता दूं कि एक इंसान के तौर पर वे बेहद स्प्ष्टवादी हैं। जवानी के दिनों में उन्होंने कई महिलाओं, युवतियों से प्रेम प्रसंग किए और अपनी लोकप्रियता को अच्छा खासा भुनाया। इस बात को भी वे साफ तौर पर बोलते रहे हैं। यानी दोहरा चरित्र नहीं है उनके पास। जो दिल में, वही ज़बान पर।
अब सवाल उठता है कि सोनू ने ऐसा क्यों किया और ये सही है या गलत। सोनू ने एकदम से ट्वीट तो किया लेकिन इसकी मानसिक तैयारी लगता है कई दिनों से धीरे-धीरे चल रही थी मन में। हो सकता है, जिस मुल्ला की अजा़न वे सुनते रहे हों, वह बहुत ही बेहूदा अंदाज में गाता हो। सुरों का सिपाही और कुछ सह ले लेकिन बेसुरेपन को हर्गिज नहीं सह सकता। वही हुआ भी।
सोनू का सब्र जवाब दे गया। उन्होंने तबीयत से अज़ान की खबर ले ली। मेरा दावा है यदि मेरे 1998 वाले मौलवी की अज़ान मैं सोनू को सुना पाता तो वे उसके साथ बैठकर बातें करते, चाय पीते, गले मिलते नज़र आते। लेकिन अफसोस ये हो नहीं सकता।
क्या सोनू ने महज सुर्खी के लिए यह किया। नहीं। क्योंकि ऐलान तो पूनम पांडे ने भी किया था टीम इंडिया के जीतने पर कपड़े उतारने का। इंडिया जीती लेकिन पूनम पलटी मार गई। सोनू को गंजा करने का फतवा आया तो सोनू ने खुद अपना सिर अपने घर पर मुंडवा लिया और कहा कि लाइये दस लाख रुपए कहां हैं। यहां सोनू ने पूनम की तरह पलटी नहीं मारी। जो कहा, वो करके दिखाया। अब बारी मौलवी की है, अपना कहा करके दिखाने की। सोनू एक सुशिक्षित, संस्कार, संयमित, शालीन और संजीदा व्यक्ति रहे हैं, जिसने सदा अपने काम की वजह से सुर्खी बटोरी।
यह पहला मामला है जब सोनू ने अपना रौद्र रूप दिखाया। उनके अपने संगीत साथी साजिद भी उनके बयान के बाद उनसे खफा हो गए हैं। बीस-पच्चीस साल पुराने मधुर संबंधों को भी यदि कोई ताक पर रखकर बोल रहा है तो निश्चित ही वह सस्ती लोकप्रियता के लिए यह सब नहीं कर रहा होगा। रिश्ते टूटना भी एक निजी क्षति होती है। सोनू को पसंद करने वाले अभी तक सब थे, सभी धर्मों के लेकिन अब मुस्लिम उन्हें सुनना बंद कर देंगे। निश्चित ही यह दांव, यह जुआ मज़ाक नहीं है।
जिस तरह की मानसिकता में अभी वे चल रहे हैं, वे पक्की बहस करने को राजी हैं, अंतिम बिंदु तक लेकिन किसी मौलवी की हिम्मत नहीं हो रही है बहस में उतरने की। बहस का खुला चैलेंज तो इरफान खान ने भी बकरीद पर दिया था, उनके सामने भी कोई गंवार मौलवी नहीं आया। सोनू के सामने भी नहीं आया। अब सवाल ये है कि सोनू ने ठीक किया या गलत। जवाब ये है कि यदि अज़ान बेसुरी थी तो सोनू ने ठीक किया। वैसे भी अजान में नई बात तो कही नहीं जाती।
चिल्ला चिल्लाकर, सुबह शाम, रोज वे नई बात कहते हों तो समझ में आता है लेकिन रोज रोज एक ही घिसी पिटी बकवास कि अल्लाह महान है। ये बात तुमको नहीं पता है क्या? अगर पता है तो हमको क्यों बता रहे हो। यदि ये खुद अल्लाह को सुनाने के लिए चिल्ला रहे हो तो उसको फोन लगाके बोलो ना, यहां हमको क्यों सुना रहे हो। तुम्हारी और अल्लाह की जो भी सेटिंग है, आपस में करो, बकवास को लाउड स्पीकर पर क्यों सुना रहे हो। इसलिए लाउड स्पीकर पर अल्लाह का तो क्या राम, कृष्ण का भी गुणगान सहन नहीं किया जा सकता।
यह तो मानसिक आतंकवाद है। हमारे लिए अल्लाह सर्वशक्तिमान नहीं है, तो इसे हमें क्यों झिलाए जा रहे हो जबरन। निश्चित ही सोनू ने सबकी बोलती बंद करके सही किया। यह अच्छी बात है कि अभी तक सेकुलरों के मुंह में लकवा पड़ा हुआ है और देश की जनता का बहुमत सोनू के साथ है।
रही मेरी बात, तो मैं केवल यही जानना चाहूंगा कि क्या जिस अज़ान को सोनू ने सुना, वह मुल्ला बेसुरा था या अच्छे गले का। यदि वह बेसुरा था तो सोनू उसे निशुल्क संगीत क्लास देकर उसे सुधार सकते हैं। यदि वह सुरीला है तो मैं उसे जरूर सुनना चाहूंगा और जानना चाहूंगा कि क्या वह मेरे 20 साल पुराने पसंदीदा मुल्ला से मिठास में बेहतर है या कमतर।
– नवोदित सक्तावत
सदियों में नहीं, पूरे इतिहास में केवल एक ही बार पैदा होता है रफी जैसा नायाब हीरा