सोशल मीडिया पर कई लोगों ने उल्लेख किया कि आतंकी देश के आतंकवादियों को चुनाव में विजय नहीं मिली, जबकि भारत में शायद उनको अधिक वोट मिल जाते।
इस बयान का दूसरा भाग (कि भारत में उनको अधिक वोट मिल जाते) शायद आंशिक रूप से सही हो, लेकिन पहले भाग में पूरी तरह से चूक गए।
उन आतंकवादियों को चुनाव में विजय इसलिए नहीं मिली क्योंकि वहां की मिलेटरी यह चाहती थी।
उन्होंने आतंकवादियों को जानबूझकर चुनाव लड़ने को कहा और फिर उन्हें धांधली से हरवा दिया क्योकि वे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को यह सन्देश देना चाहते थे कि आतंकी देश में आतंकवादियों को जनता का समर्थन प्राप्त नहीं है।
अगर यह विडंबना (irony) नहीं है तो फिर क्या है?
फिर, लोग वहां के चुनाव के तथाकथित विजेता के इस स्टेटमेंट पर धूल में लोट गए कि वह टेबल पर (भारत के साथ) एक साथ बैठकर कxxx मुद्दे को सुलझाना चाहते हैं।
आतंकी देश के एक भी नेता का नाम बता दीजिये जिसने ऐसा बयान दिया हो कि वह कxxx मुद्दे को बैठकर नहीं सुलझाना चाहता हो।
यह भी एक नारा या लॉलीपॉप है जिसे उन्हें वापस कर देना चाहिए – यह कहकर कि पहले आतंकियों को कण्ट्रोल करो, बाद में हमारे साथ टेबल पर बैठना।
क्या आपने ध्यान दिया कि प्रधानमंत्री मोदी ने अभी तक ट्विटर पर आतंकी देश के चुनाव पर चुप्पी साधी हुई है? प्रोटोकॉल के कारण वह बधाई देंगे, लेकिन उनकी चुप्पी कुछ कह रही रही। उन पर और अजित डोवाल की रणनीति पर विश्वास बनाये रखिये।
इसी तरह लिंचिंग की घटनाओं पर अभिजात्य वर्ग की राजनीति को समझिये कि क्यों वे एक तरह की लिंचिंग पर शोर मचा रहे है और दूसरी तरह की लिंचिंग पर मुंह पर ताला लगा रखा है।
उन्हें पता है कि अल्पसंख्यक समुदाय भाजपा को वोट नहीं देगा। (यहाँ पर स्पष्ट कर दूँ कि लिंचिंग का, चाहे वे गौ तस्कर, या केरल में आरएसएस के कार्यकर्त्ता, या कश्मीर में सैनिको पर पत्थरबाजी, मैं किसी का समर्थन नहीं करता)।
फिर भी वे लिंचिंग पर सेलेक्टिव शोर मचा रहे हैं क्योकि उन्हें आशा है कि भाजपा समर्थक कुछ वोटर उदारवाद के नाम पर नोटा दबा देंगे या किसी अन्य दल को वोट दे देंगे।
यही उनकी रणनीति है।
आपकी क्या रणनीति है?
मौजूदा सामरिक हालात में भारत की ज़रूरत है एक मज़बूत सरकार और प्रभावशाली नेतृत्व